मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

पूर्वोत्तर का अकेलापन

नीडो तानियम से इस देश की मुलाकात उसकी मौत के बाद हुई। जब तक नीडो जिंदा था उसका मजाक उड़ाया जाता रहा। कितनी ही बार ऐसा हुआ होगा जब लोगों की बातें उसके बर्दाश्त से बाहर चली गई होंगी, लेकिन परिणाम में उसे अंतत: मौत ही मिली। आज भी अधिकांश लोग नहीं जानते कि मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश हमारे ही देश का हिस्सा हैं। हम सदियों तक गुलाम रहे और आजाद होने के बाद सत्ता के लिए जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद के खेल खेलने लगे। अपने-अपने इलाके बांटने लगे और भूल गए कि राष्ट्र निर्माण का काम अभी भी शेष है। हम आज भी एक आजाद और जिम्मेदार देश के रूप में व्यवहार करना नहीं सीख पाए हैं। लोकतंत्र की विरासत हमें एकता की ओर प्रेरित करने के बजाय विभाजन की ओर ही ले जाती प्रतीत हो रही है। दिल्ली में नीडो और मणिपुर के लोगों के साथ जो कुछ हुआ, कुछ वैसा ही व्यवहार महाराष्ट्र और असम में उत्तर भारतीय हिंदीभाषी लोगों के साथ होता है। महानगरों की अधकचरी, अर्धविकसित सोच इसके लिए जिम्मेदार है। एक शब्द है राष्ट्रीय एकीकरण, जो महज सरकारी पत्रावलियों तक सीमित है। देश में एकीकरण या सामंजस्य कैसे बढ़ाया जाए, इस पर कभी कोई चर्चा अथवा विमर्श सुनने को नहीं मिला। चूंकि इससे क्षेत्रीय गुटबाजी में मदद नहीं मिलती इसलिए राजनीति को कभी इसकी जरूरत भी नहीं रही। हम असम या पूर्वोत्तर को तभी याद करेंगे जब वहां दंगे हों, धमाके हों अथवा पूर्वोत्तरवासियों की बेंगलूर, चेन्नई से भगदड़ हो। पूर्वोत्तर हमारी प्राथमिकता में कहीं नहीं है। अगर असम में जनता के बीच लोकप्रिय गोपीनाथ बारदोलाई जैसा नेता होता तो पूर्वोत्तर आज पूर्वी बंगाल के साथ पाकिस्तान का हिस्सा बन गया होता। यह तो गांधीजी थे जो असम को दुर्भाग्य के जबड़े से वापस खींच लाए।

हम आज तक खासी, गारो, मिजो, मणिपुरियों को उसी तरह भारत का हिस्सा होने का अहसास क्यों नहीं करा सके जैसा कि हम सबको है? यदि दिल्ली पुलिस में दस फीसद सिपाही अथवा इंस्पेक्टर पूर्वोत्तर के होते तो क्या तब भी ऐसा अजनबीपन देखने को मिलता। इसी तरह यदि दिल्ली पुलिस का पच्चीस फीसद हिस्सा दक्षिण भारत से होता तो दक्षिण भारत के आम लोगों के लिए दिल्ली घर जैसी होती। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है, लेकिन यहां राष्ट्रीय जैसा क्या है? जब महाराष्ट्र, गुजरात, मद्रास, आंध्र प्रदेश के विभाजन के आंदोलन चले तो उसी समय चेत जाना चाहिए था कि उपराष्ट्रवादी शक्तियां मजबूत हो रही हैं। आज हमारे देश में कम से कम 50 और राज्यों को बनाए जाने की आवश्यकता है। एक भाषा का एक ही राज्य होगा, यह किस संविधान में लिखा है? हिंदी के विरोध में खड़ा किया गया आंदोलन एक बड़ी चेतावनी थी, लेकिन इसका मुकाबला करने के बजाय मामले को टालने का प्रयास हुआ।

आज पूर्वोत्तर सिर्फ पूर्वोत्तर तक सीमित रह गया है। इसी तरह कश्मीरियों को हमने कश्मीर से बाहर नहीं आने दिया। राष्ट्रीय स्तर पर पूर्वोत्तर के निवासियों के अवसर बढ़ाने के लिए हमने कोई गंभीर प्रयास नहीं किए। क्या विभिन्न राज्य सरकारें पूर्वोत्तर के लोगों को अपने यहां नौकरी-व्यवसाय आदि में प्राथमिकता देने की नहीं सोच सकतीं? अगर एकीकरण की सोच हो तो ऐसा बिलकुल संभव है। कोई राज्य यदि ऐसा कुछ सोचता भी है तो वह स्थानीय राजनीतिक विरोध के कारण तत्काल हाथ वापस खींच लेगा। क्या राष्ट्रीय स्तर पर कुछ किया जा सकता है? स्वाभाविक ही उन्हें भी वोटों का गणित बैठाना पड़ेगा जो पूर्वोत्तर के खिलाफ जाएगा। आखिर रास्ता क्या है? रास्ता राष्ट्रीय सोच रखने वाले उद्योगपतियों के पास है। रास्ता नारायणमूर्ति, अजीम प्रेमजी और रतन टाटा के पास है। बात नौकरियों में आरक्षण की नहीं है। बेहतर यही होगा कि हम अमेरिका की तर्ज पर सकारात्मक दायित्व में संभावनाएं तलाशें। आज अमेरिका में नीग्रो समाज इसी सकारात्मक दायित्व की बदौलत इतना समर्थ हो गया कि उनका एक सदस्य अमेरिका का राष्ट्रपति है।

अमेरिकी राजनेताओं ने हमारी तरह आरक्षण जैसी कोई बात नहीं सोची, बल्कि उद्योग, व्यवसायी वगरें और संस्थाओं पर यह जिम्मेदारी डाल दी कि वे ब्लैक अमेरिकनों को नौकरियों, व्यापार, सेवाओं आदि में पर्याप्त अवसर दें। सकारात्मक दायित्व एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी बनी जिसने अफ्रीकी-अमेरिकन समाज का भाग्य बदल दिया। हम आज चाहें तो पूर्वोत्तर के लोगों के लिए ऐसा सोच सकते हैं। आज अगर दक्षिणी राज्यों में उद्योग व्यापार से लगभग पांच लाख पूर्वोत्तरवासी जीविका चला रहे हैं तो यह किसी सरकार का किया हुआ काम नहीं है। अगर पंजाब के खेतों में धान की रोपाई के लिए लाखों बिहारी और पूवरंचली मजदूर प्रतिवर्ष जाते हैं तो यह किसी नेता का चलाया हुआ रोजगार अभियान नहीं है। अगर बनारस, जौनपुर के हजारों-लाखों लोग समस्याओं के बावजूद मुंबई में दूध से लेकर सिक्योरिटी गार्ड तक के कारोबार कर रहे हैं तो यह किसी राजनीति की देन नहीं है।


जो रास्ता उत्तर भारतीयों ने मुंबई में दिखाया है वही राह पूर्वोत्तर के लिए भी है। उद्योग जगत, सकारात्मक दायित्व का निर्वहन कर पूर्वोत्तर के लोगों को उनकी कार्यक्षमता के अनुरूप विभिन्न उद्योगों में सीधे अथवा सहयोगी रोजगार की सुविधा दे सकता है। प्रत्येक राज्य में पूर्वोत्तर रोजगार ब्यूरो, पूर्वोत्तर भवनों की स्थापना की जा सकती है। वर्ष 1962 में चीनी सेनाओं के सामने असहाय प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने रेडियो संदेश में कहा था कि हमारा दिल असम के लोगों के साथ है। असम को भयानक अकेलेपन में उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया था। आज पहली बार पूर्वोत्तर की परवाह एक मुद्दा बनी है। शायद इसके लिए नीडो जैसी एक शहादत की दरकार थी। उम्मीद की जानी चाहिए कि उसकी याद में जलाई जा रही मोमबत्तियों की रोशनी बेकार नहीं जाएगी।

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