शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

करजई के अमेरिकी विरोध के निहितार्थ

पिछले कुछ समय से अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई का नजरिया तालिबान के प्रति उदार होता दिख रहा है, जबकि अमेरिका के प्रति तल्ख। उनका यह रवैया अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की विदाई की घोषणा के बाद से ही दिखना शुरू हो गया था। अब सवाल यह उठता है कि उनका यह आचरण समय की मांग का परिणाम है यानि 'माइनस अमेरिका प्लस तालिबान' की आवश्यकता की देन है या फिर अन्य कारणों से ऐसा हो रहा है। इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि अमेरिका एक साम्रायवादी देश है और पिछले एक दशक में अफगानिस्तान का ध्वंस करने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन कुछ अन्य पक्ष भी हैं। एक यह कि करजई कोई जमीनी नेता नहीं हैं बल्कि वे स्वयं अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान पर थोपे गए नेता हैं। दूसरी बात यह कि यदि अमेरिका ने अफगानिस्तान का ध्वंस किया तो तालिबान ने भी चार चांद नहीं लगाए। तीसरा यह अफगानिस्तान को इस स्थिति में लाने के लिए यदि कोई सर्वाधिक जिम्मेदार है तो वह पाकिस्तान है, लेकिन करजई उसे अपना भाई बताने में गर्व महसूस कर रहे हैं। आखिर क्यों?


दरअसल अमेरिका और अफगानिस्तान के बीच ताजा विवाद बगराम जेल के कैदियों की रिहाई के कारण उत्पन्न हुआ। दरअसल अफगानिस्तान सरकार द्वारा बगराम जेल में बंद 65 बंदियों की रिहाई को अमेरिका काफी अफसोसजनक कार्रवाई मान रहा है जबकि करजई इस निर्णय में अफगानों के चेहरे पर मुस्कराहट ढूंढ रहे हैं। अमेरिका का कहना है कि इनमें से कुछ बंदी अफगान नागरिकों और अफगान तथा अमेरिकी नेतृत्व में वहां तैनात सेना के सदस्यों की हत्या के लिए जिम्मेदार थे। लेकिन हामिद करजई का इस पर दो टूक जवाब यह रहा कि इन कैदियों की रिहाई 'अमेरिका के लिए चिंता की बात नहीं' है। चूंकि करजई की नजर में बगराम जेल 'तालिबान पैदा करने वाला कारखाना' है, इसलिए उन्होंने कैदियों की रिहाई को आतंकवाद को रोकने की दिशा में सम्भवत: एक अहम् कदम मान लिया है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? 

हामिद करजई के उक्त  जवाब के प्रति अमेरिका को स्वीकार्याभाव का प्रदर्शन करना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, बल्कि अमेरिका यह आरोप लगा रहा है कि जब से उस जेल की कमान अफगानों के नियंत्रण में गई है, उस समय से रिहा हुए कुछ बंदी पहले ही लड़ाई में लौट चुके हैं। इसके बाद अगर कुछ और बंदी रिहा होते हैं तो वे भी चरमपंथ की ओर ही जाएंगे। यदि यह स्थिति निर्मित होती है, तो फिर बुरा तो है ही लेकिन इससे भी गलत बात यह है कि अमेरिका और अफगानिस्तान रिश्ते एक ऐसे दौर में पहुंच जाएंगे जहां से तालिबान के ताकत प्राप्त करने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाएगी। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह तालिबान और पाकिस्तान, दोनों की ही इच्छा है। यहां पर यह बात समझ में नहीं रहा है कि क्या करजई को आने वाले समय की चुनौतियां वास्तव में दिख पा रही हैं? किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले यहां पर कुछ बातों पर गौर करना जरूरी है। पहली बात तो यह कि अफगानिस्तान से विदेशी फौजों की वापसी के बाद अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति पर बुरा असर पड़ेगा, इससे अर्थव्यवस्था में पूंजी के प्रवाह पर रोक लग जाएगी। इससे भी अहम् बात यह है कि विदेशी फौजों की वापसी के बाद तालिबान को अफगानिस्तान के एक बड़े हिस्से में फिर से अपना प्रभाव बढ़ाने का मौका मिल जाएगा। यदि इस स्थिति का गम्भीरता से अवलोकन करें तो अभी भी अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में तालिबान को ही वास्तविक सरकार माना जा रहा है।  हालांकि गैर-पश्तून नस्ली समूह तालिबान की वापसी को स्वीकारने को तैयार नहीं होंगे। यह भी संभव है कि यदि अफगान सुरक्षा बल तालिबान की चुनौती का सामना करने में कामयाब नहीं हुए तो गैर-पश्तूनी समूह उनका मुकाबला करने के लिए खुद ही अपने सैन्य संगठन गठित कर लेंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि पाकिस्तान पूरी तरह तालिबान का समर्थन कर रहा है। इस स्थिति में यदि तालिबान का प्रभाव बढ़ता है तो अफगानिस्तान के अन्य पड़ोसी देश भी अपने-अपने हितों की रक्षा करने के लिए मोर्चे पर जाएंगे।  एक बात ध्यान रखने योग्य यह है कि भारत द्वारा अफगानिस्तान को जो भी मदद दी गई है, उसका अधिकांश हिस्सा सरकार को दी गई मदद के रूप में है जिसका वहां की जनता को कोई सीधा फायदा नहीं मिला है। हां, करजई और उनकी सरकार को लाभ जरूर हुआ। चूंकि करजई सरकार भ्रष्टतम सरकारों में से एक है इसलिए भारत द्वारा दी गई मदद नीचे तक नहीं पहुंच पाई। आज भी भारत अमेरिका के विरुध्द करजई के साथ खड़ी होने का दावा कर रही है। यह बात समझ से परे है कि एक तरफ  भारत के सरकारी नुमाइंदे अमेरिका के रणनीतिक साझेदारी की बात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ वे उसके खिलाफ करजई के साथ खड़े होते हैं जबकि यह सभी जानते हैं कि करजई अफगानों में लोकप्रिय हैसियत कभी प्राप्त नहीं कर पाए। इसके विपरीत चीन वहां नये सिरे अपनी गोटियां बिछा रहा है ताकि नाटो फौजों की वापसी के बाद उभरने वाले शून्य को भरा जा सके। चीन अफगानिस्तान में केवल 'रेल निधि, और अफगान पुलिस को साधनों से लैस करने में मदद कर रहा है, बल्कि अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों में निवेश कर स्वयं लाभ कमाने और अफगानों को उनसे जोड़ने की कोशिश में है। पेंटागन के एक आकलन के मुताबिक संसाधनों की भारी भूख रखने वाला चीन, जो कि अफगानिस्तान के उत्तर-पूर्वी हिमालयी कॉरिडोर के साथ एक छोटी सीमा ही साझा करता है (केवल 46 मील), लेकिन वह अफगानिस्तान के 1 ट्रिलियन संसाधनों पर आधिपत्य जमाने की प्रबल इच्छा रखता है। गौर से देखा जाए तो चीन ने इस दिशा में शुरूआत तभी कर दी थी जब तालिबान शासन का पतन हुआ था। हालांकि अफगानिस्तान में सोवियत प्रवेश के साथ चीन ने कूटनीतिक सम्बंध निलम्बित कर दिए थे और 1992 के बाद दूतावास भी बंद कर दिया था जिसे 6 फरवरी 2002 को खोला गया, जो दोनों देशों के मध्य मैत्री सम्बंधों की दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जा सकता है। इसके बाद चीन ने रणनीतिक रूप से अफगानिस्तान में प्रवेश करने की कोशिश की जिसे हू जिंताओ रणनीति साझेदारी सहयोग (स्ट्रेटजिक को-ऑपरेशन पार्टनरशिप) के जरिए स्थायी बनाने का काम किया। अब चीन के लिए अफगान संपदा, विशेषकर खनन, तेल एवं गैस, के दरवाजे खुल गये। परिणाम यह हुआ कि एक तरफ चीन अफगानिस्तान के संसाधनों पर कब्जा कर ले गया और दूसरी तरफ  अफगानों को रोजगार देकर सहानुभूति प्राप्त कर ले गया। लेकिन भारत इस मामले में पूरी तरह से असफल रहा। कुल मिलाकर करजई चीन और पाकिस्तान की ओर सरकते दिख रहा है, चीन अफगानिस्तान में अपना दोहरा मिशन पूरा कर रहा है और भारत अफगानिस्तान सरकार को मदद देकर अपनी कार्यावधि पूर्ण करना चाह रहा है। ये स्थितियां भारत को कोई लाभ देती तो दिखाई नहीं देती। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य