सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

मीडिया का एजेंडा...

न्यूज चैनल्स इन दिनों रोज ही लोकसभा के चुनाव करवा रहे हैं। रोज-रोज चुनाव सर्वे कराना, आकलन पेश करना, यह क्यों हो रहा है। इसके पीछे कारण क्या है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यूं ही सेत-मेत में तो यह कर नहीं रहा होगा और न ही ऐसा करना उसके शौक में शामिल है। टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए भी ऐसा नहीं किया जा रहा है। एकाध चैनल सर्वे कराता तो बात कुछ अलग होती। यहां तो सारे न्यूज् चैनल्स एक ही तरह का काम रोज कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं लगता कि ''लोग चलें, मोहि हुम्मस लागे'' की तर्ज पर एक-दो न्यूज् चैनल ने सर्वे प्रसारित किया हो तो बाकी भी उसके साथ चल पडे। सब चल रहे हैं तो अपन भी चल पडें, ऐसा नहीं सोच रहे हैं न्यूज् चैनल्स। दरअसल इसके पीछे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बड़ा छिपा एजेंडा है। सोचने की बात है कि पांच विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कुछ दिनों तक न्यूज् चैनल्स आम आदमी पार्टी की दुदुंभी बजा रहे थे। अरविन्द केजरीवाल को प्रधानमंत्री की दौड़ में दूसरे नंबर पर ला दिया था और राहुल गांधी को इस दौड़ में काफी पीछे कर दिया था। न्यूज् चैनल्स ने कहना शुरु किया कि नरेन्द्र मोदी के मार्ग में केजरीवाल चट्टान बनकर खडे हो गए हैं। श्री मोदी को इस चट्टान को तोड़ना होगा अन्यथा श्री मोदी की इच्छा पूरी नहीं हो सकती। ऐसा प्रचार कि भारतीय जनता पार्टी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। सोच में पड़ गई पार्टी कि कहीं किया धरा सब गुड-ग़ोबर न हो जाए। सोचा था क्या, क्या हो गया- यह न हो जाए। लेकिन जनवरी के मध्य से ही (8 दिसम्बर, 2013 को चुनाव परिणाम आए) न्यूज् चैनल्स के स्वर बदले। अचानक कई न्यूज् चैनल्स ने 2014 लोकसभा चुनाव के लिए सर्वे करा दिया और रोज ही सर्वे कराने लगे। एक चैनल ने तो घोषणा ही कर दी कि कांग्रेस की ऐतिहासिक हार निश्चित है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री की दौड़ में कहीं नहीं ठहरते। कांग्रेस की लुटिया तो डूबेगी ही।


विचार करने की बात यह है कि कुछ न्यूज् चैनल्स ऐसा क्यों करने लगे। आम आदमी पार्टी को पीछे ढकेल कर नरेन्द्र मोदी को पुन: सामने लाने के पीछे कारण क्या है और इसके लिए रोज-रोज सर्वे कराके उसका परिणाम दिखाने के पीछे मकसद क्या है। मीडिया जानता है कि किसी बात को, किसी धारणा को बार-बार बताया जाए तो लोगों के दिमाग में वह घर कर लेती है और लोग उसे सत्य मानकर उसके अनुरूप आचरण करने लगते हैं। समाज की मानसिकता बनाने में मीडिया की प्रमुख भूमिका होती है। युगों से यह होता आ रहा है। बार-बार यह बताया गया कि स्त्री को पुरुष के अधीन होना चाहिए तो स्त्रियों तक को ऐसा मानने विवश होना पड़ा कि स्त्री को पुरुष के अधीन होना चाहिए। ''अवगुन आठ सदा उर बसहिं...'' इस कथन को स्त्रियां भी सत्य मानने विवश की गईं। कहानियां गढी ग़ईं, कहावते बनाई गईं और लगातार समाज में प्रचार कर यह स्थापित कर दिया गया कि स्त्रियां दोयम दर्जे की होती हैं- ''तिरिया जनम झन देहु विधाता...।'' यह स्त्रियों ने दु:ख के साथ गाया। लेकिन प्रचार ने समाज में स्त्रियों की गौण स्थिति स्थापित कर दी। इसी तरह लगातार प्रचार ने यह भी स्थापित किया कि चार वर्ण विधि ने बनाए हैं। हिन्दू समाज में चार वर्ण होते हैं- हर वर्ण का काम निर्धारित है अत: अपना कर्म हर वर्ण को करना चाहिए, दूसरे वर्ण के कार्य में प्रवेश न करें- सब अपने-अपने धर्म का पालन करें। युगों से मीडिया ने कमजोर को यह महसूसकराने का काम किया कि कमजोर केवल कमजोर रहने ही पैदा हुआ है- यही विधि का विधान है। अज्ञानता में रखने और अंधविश्वास को सत्य मानने का भी काम मीडिया ने प्रचारित किया और कुछ लोग इसके वश में आज भी हैं। कहने का अर्थ यह कि किसी धारणा को पुष्ट करने मीडिया निरंतर एक ही तरह का प्रचार करते रहा है। व्यवस्था के साथ समझौता कर, समाज को उस खास व्यवस्था के पक्ष में करने का काम मीडिया करते रहा है और इसका लाभ वह उस ''व्यवस्था'' से उठाता रहा है, ''व्यवस्था'' का संरक्षण उसे मिलते रहा है। वर्तमान मीडिया  उस मीडिया का उत्तराधिकारी है। प्रचार उसे विरासत में मिली है।  मीडिया के इस चरित्र के खिलाफ भक्तिकाल में आवाज बुलंद की गई। आज इलेक्ट्रानिक मीडिया या कहें न्यूज् चैनल्स जो कर रहे हैं उसके पीछे यह कारण है कि मीडिया इस व्यवस्था का हित साध रहे हैं इसलिए लगातार प्राय: रोज ही चुनाव सर्वे पेश कर देश की जनता का ''मन'' एक खास की ओर मोड़ना चाहते हैं। दरअसल मीडिया आज की व्यवस्था का गुलाम है, उसके आदेश पर ही चलेगा और उसके आदेश पर ही चलने में उसका लाभ है- इसी से वह मनवांछित लाभ कमाता है। शासन प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, महंगाई आदि पर चर्चा करने का आशय व्यवस्था-विरोधी होना नहीं होता। आमूलचूल व्यवस्था परिवर्तन की बात यह मीडिया नहीं करता। यह मीडिया वही कहता है जो इसके नियंता चाहते हैं। जो पार्टी इस व्यवस्था की मदद नहीं कर सकती अथवा जिस पार्टी की ताकत पर व्यवस्था को संदेह पैदा होने लगे उस पार्टी को बदलने में व्यवस्था क्षणभर की देरी बरदाश्त नहीं कर सकती। इस व्यवस्था को लगने लगा कि अब कांग्रेस उसके काम की नहीं रही अत: भाजपा पर दांव खेला जाए। इसलिए उसने आम आदमी पार्टी के बढ़ते प्रभाव को कम दिखाने और पुन: भाजपा को ताकतवर हो जाने का लगातार प्रचार अपने ''मीडिया'' के द्वारा कराना शुरू किया। रोज-रोज का सर्वे जनता का मन गढ़ने के उद्देश्य से किया जा रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया का इतना भारी विस्फोटक रूप सामने है कि जनता के मन को मोड़ना पूर्व की अपेक्षा आसान हो गया है। पहले तो यात्राएं करनी पड़ती थीं, बरसात में कहीं आ-जा नहीं सकते थे, अब तो बारहो मास चौबीसों घंटे इस इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए सारे रास्ते आसान हो गए हैं-काहे की बरसात और काहे की ठंड। यह इलेक्ट्रानिक मीडिया तुरंत पहुंचकर तुरंत असर कर रहा है- गणेशजी ने दूध पिया... और यह खबर तुरंत समाज तक पहुंच गई और करोड़ों लोग गणेशजी को दूध पिलाने लगे। रावण का शव और परशुराम का फरसा दिखाने वाले भी न्यूज् चैनल्स रहे हैं, इसी तरह रोज ही सर्वे कर यह मीडिया एक मानस गढ़ रहा है। प्रचार का भयानक विस्फोट आदमी या कहें समाज के विवेक को कुंद कर देता है। इस मीडिया पर नियंत्रण की जरूरत नहीं। जरूरत है जन-मीडिया की और समाज को जनतांत्रिकता में शिक्षित करने की। मीडिया भोलेपन से कहता है कि जो घट रहा है वह हम दिखा रहे हैं। ऐसा है नहीं। दरअसल मीडिया चाहता है कि ऐसा हो, उस तरह की मानसिकता बनाता है और फिर वैसा होने लगता है।  

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