खबर है कि निर्वाचन आयोग चुनाव खर्च की
सीमा बढ़ाने पर विचार कर रहा है। फिलहाल लोकसभा उम्मीदवार के लिए चुनावी खर्च की
सीमा चालीस लाख और विधानसभा उम्मीदवार के लिए सोलह लाख रुपए है। इस हदबंदी को
बढ़ाने की मांग काफी समय से होती रही है। राजनीतिक दल कहते आए हैं कि यह सीमा
अव्यावहारिक है। चुनाव खर्च वास्तव में निर्धारित सीमा से बहुत ज्यादा होता है। इस
विरोधाभास का नतीजा यह होता है कि उम्मीदवारों को अपने चुनावी खर्च का गलत ब्योरा
देने के मजबूर होना पड़ता है। अपवादस्वरूप ही कोई दल या उम्मीदवार व्यय का सही
विवरण देता होगा। इसलिए मौजूदा व्यय-सीमा बढ़ाई जानी चाहिए। समय-समय पर यह सीमा
बढ़ाई भी गई है। मसलन, 2009
में लोकसभा प्रत्याशी के लिए खर्च की हदबंदी पच्चीस लाख रुपए थी। वर्ष 2011 में
निर्वाचन आयोग वे इसे बढ़ा कर चालीस लाख रुपए कर दिया। अब अगले आम चुनाव से पहले एक
बार फिर इस सीमा को बढ़ाने पर विचार हो रहा है। तमाम चीजों की लागत बढ़ने के
मद्देनजर चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा बढ़नी चाहिए। मगर सवाल है कि आयोग के प्रस्ताव
के मुताबिक तीस से पचास फीसद की बढ़ोतरी कर दी जाती है, तो क्या पार्टियां उसे व्यावहारिक मान
लेंगी? क्या उस हदबंदी का पालन होगा?
लोकसभा में भाजपा के उपनेता गोपीनाथ
मुंडे ने पिछले साल सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि 2009 के चुनाव में उन्होंने आठ
करोड़ रुपए खर्च किए थे। इस पर आयोग ने उन्हें नोटिस जारी किया। मगर फिर क्या हुआ, पता नहीं। दरअसल, मुंडे ने जो कहा वह चुनाव की असलियत
जानने वालों के लिए कोई हैरत की बात नहीं थी। मुख्य मुकाबले में रहने वाले तमाम
उम्मीदवारों का खर्च निर्धारित सीमा से कई गुना ज्यादा होता है। अगर वे सही हिसाब
दें तो जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(6) के उल्लंघन के दोषी माने जाएंगे।
इसलिए कोई सही हिसाब नहीं देता। पर मुद्दा सिर्फ उम्मीदवार का
नहीं, पार्टियों के खर्च का भी है। राजनीतिक
दलों के खर्च की कोई सीमा तय नहीं है। इसका फायदा उठा कर बहुत सारा चुनावी खर्च
पार्टियों के खाते में दिखाया जाता है। अलबत्ता पार्टियों को अपने आय-व्यय का
ब्योरा देना पड़ता है। पर उनके लिए अपनी आय का स्रोत बताने की कोई बाध्यता नहीं है।
केंद्रीय सूचना आयोग ने कुछ महीने पहले राजनीतिक
दलों को भी सूचनाधिकार अधिनियम के दायरे में लाने का फैसला सुनाया था। पर
एक-दो दलों को छोड़ कर बाकी सबने उसे अनावश्यक हस्तक्षेप करार दिया और अपनी संसदीय
शक्ति के सहारे उस फैसले को नाकाम कर दिया। फिर, चुनावी आचार संहिता चुनाव की घोषणा होने के बाद लागू होती है। मगर
पार्टियां और संभावित उम्मीदवार उसके पहले से चुनावी तैयारियों में जुट जाते हैं
इसके मद्देनजर खर्च भी शुरू हो जाता है।
आगामी आम चुनाव के लिए अभी से
विज्ञापनों और दूसरे माध्यमों से प्रचार शुरू हो गया है। इस सब पर खर्च की मर्यादा
कैसे बांधी जाएगी?
जब
चुनाव नजदीक न हों, तब
भी पार्टियों के संचालन पर काफी खर्च होता है। यह सब आता कहां से है? यों राजनीतिक दल यह दावा करते रहे हैं
कि सारा खर्च वे अपने सदस्यों और समर्थकों से मिले चंदों से उठाते हैं। पर
जानकारों से यह हकीकत छिपी नहीं है कि पार्टियों को बहुत सारा पैसा उद्योग घरानों
से मिलता है। हमारी राजनीति के संचालन में काले धन की कितनी भूमिका है इस बारे में
अलग-अलग अनुमान हैं। कई देशों में पार्टियों के लिए अपनी समस्त आय का स्रोत बताना
कानूनन अनिवार्य है। हमारे देश में भी ऐसा प्रावधान होना चाहिए। सिर्फ उम्मीदवार
के चुनावी खर्च की सीमा बढ़ाने से पारदर्शिता नहीं आ पाएगी।
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