बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

भारत के निर्वाचन कानून

भारत सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है। लोकतंत्र भारत के सविंधान की अक्षुण्ण मौलिक विशेषताओं में एक है और यह सविंधान के बुनियादी ढ़ांचा का हिस्सा है (केशवानंद भारती बनाम केरल तथा अन्य एआईआर 1973 एससी 1461)। संविधान की लोकतंत्र की अवधारणा पहले से ही निर्वाचन के जरिए संसद तथा राज्य विधानपालिकाओं में जन प्रतिनिधित्व को मानती है (एनपी पून्नू स्वामी बनाम निर्वाचन अधिकारी नामक्कल एआईआर 1952 एससी 64)। लोकतंत्र के बने रहने के लिए विधि का शासन आवश्यक है और यह भी आवश्यक है कि देश के उचित शासन के लिए सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध व्यक्ति को जनप्रतिनिधि चुना जाना चाहिए (गदाख यशवंतराव कंकरराव बनाम बाला साहिब विखेपाटिल एआईआर 1994 एससी 678)। सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध व्यक्ति को जनप्रतिनिधि चुनने के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होने चाहिए तथा चुनाव ऐसे वातावरण में कराये जाने चाहिए जिसमें मतदाता अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार अपने मताधिकार का प्रयोग करें। इस तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र का आधार है। 

 भारत ने संसदीय प्रणाली की सरकार की ब्रिटिश वेस्टमिन्सटर प्रणाली अपनाई है। हमारे यहां निर्वाचित राष्ट्रपति, निर्वाचित उप-राष्ट्रपति, निर्वाचित संसद तथा प्रत्येक राज्य के लिए निर्वाचित राज्य विधानमण्डल है। हमारे यहां निर्वाचित नगरपालिकाएं, पंचायतें तथा अन्य स्थानीय निकाय हैं। इन पदों तथा निकायों के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए तीन पूर्व आवश्यकताएं हैः (1) इन चुनावों को सम्पन्न कराने के लिए एक प्राधिकार जो राजनीतिक तथा कार्यपालक हस्तक्षेप से मुक्त हो, (2) ऐसे कानून जो चुनाव संचालन को शासित करे और जिसके अनुसार इन चुनावों को कराने के लिए जिम्मेदार प्राधिकार हो तथा (3) एक ऐसी व्यवस्था हो जो इन चुनावों से सम्बंधित सभी संदेहों तथा विवादों का समाधान करे।
 
भारत के संविधान ने इन सभी आवश्यकताओं की ओर उचित ध्यान दिया है और सभी तीन मामलों के लिए उचित प्रावधान किया है।

सविंधान ने एक स्वतंत्र भारत निर्वाचन आयोग का गठन किया है। आयोग में भारत के  राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति पद तथा संसद और राज्य विधानपालिकाओँ के चुनाव के लिए मतदाता सूचियों की तैयारी तथा चुनाव करने का अधीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण की शक्ति निहित है (अनुच्छेद 324)। इसी प्रकार नगरपालिकाओं, पंचायतों तथा अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव कराने के लिए स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकार का गठन किया गया है (अनुच्छेद 243के तथा 243जेडए)।
 
राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति तथा संसद और राज्य विधानपालिकाओं के चुनावों के लिए कानून बनाने  का अधिकार संसद द्वारा दिया गया है (अनुच्छेद-71 तथा 327)। नगर पालिकाओं, पंचायतों तथा अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव करने संबंधी कानून राज्य विधानपालिकाएं बनाती हैं (अनुच्छेद-243के तथा 243जेडए)। राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति पद के चुनावों से संबंधित सभी संदेहों, विवादों का निपटारा उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाता है (अनुच्छेद-71), जबकि संसद तथा राज्य विधानपालिकाओं के चुनाव से संबंधित सभी संदेहों तथा विवादों को निपटाने का अधिकार संबद्ध राज्य के उच्च न्यायालय को है। इनमें उच्चतम न्यायालय में अपील करने का अधिकार भी है (अनुच्छेद-329)। नगरपालिकाओं आदि के चुनावों से संबंधित विवाद के मामलों का निर्धारण राज्य सरकारों द्वारा बनाये गए कानूनों के अनुसार निचली अदालतें करती हैं।
 
राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव से संबधित कानून संसद द्वारा राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम 1952 बनाये गए हैं। इस अधिनियम की प्रतिपूर्ति राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति निर्वाचन नियम 1974 द्वारा की गई है और इसके आगे सभी पक्षों पर निदेश तथा निर्देशन निर्वाचन आयोग द्वारा दिया जाता है। 
संसद तथा राज्य विधान पालिकाओं के चुनाव करने संबंधी प्रावधान जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 तथा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में हैं। 

जनप्रतिनिधित्व अधिनयम 1950 मुख्यतः निर्वाचन सूचियों की तैयारी तथा पुनरीक्षण से संबंधित है। इस अधिनियम के प्रावधानों की प्रतिपूर्ति उस अधिनियम की धारा-28 के तहत केन्द्र सरकार द्वारा निर्वाचन आयोग के परामर्श से विस्तृत नियमों, निर्वाचक पंजीकरण नियमों 1960 से की जाती है तथा यह नियम मतदाता सूचियों की तैयारी, योग्य नामों को जोड़ने, अयोग्य नामों को हटाने तथा विवरणों में सुधार सहित समय-समय पर उनके पुनरीक्षणों से संबंधित हैं। इन नियमों में पंजीकृत मतदाताओं को फोटो वाले मतदाता पहचान पत्र राज्य के खर्च पर देने की व्यवस्था है। ये नियम निर्वाचन आयोग को मतदाताओं के फोटो वाले फोटो निर्वाचक सूची तैयार करने का अधिकार देते हैं। इन सूचियों में मतदाता के अन्य विवरण भी होते हैं। इन शक्तियों का प्रयोग करते हुए आयोग भारत के सभी संसदीय तथा विधानसभा क्षेत्रों के लिए निर्वाचक फोटो वाली मतदाता सूचियां तैयार कर रहा है, जिसमें व्यक्तिगत पहचान-पत्र जारी करने के अलावा मतदाता के फोटो होंगे। 

चुनाव के वास्तविक संचालन से संबंधित सभी विषय जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के प्रावधानों से शासित होते हैं। इसकी प्रतिपूर्ति उस अधिनियम के अनुच्छेद-169 के तहत निर्वाचन आयोग के परामर्श से केन्द्र सरकार द्वारा बनाये गये निर्वाचन संचालन नियम 1961 से होती है। इस अधिनियम तथा नियमों में चुनाव संचालन के सभी चरणों के विस्तृत प्रावधान हैं यथा निर्वाचन अधिसूचना जारी करने, नामांकन पत्र दाखिल करने, नामांकन पत्रों की जांच, उम्मीदवारी वापसी, चुनाव कराने, मतगणना तथा घोषित परिणामों के आधार पर सदनों का गठन।
 
संविधान द्वारा चुनाव अधीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण की शक्ति निर्वाचन आयोग को प्रदान की गई हैं। निर्वाचन आयोग वैसे मामलों से निपटने के लिए विशेष आदेश या निर्देश जारी कर सकता है, जिसके बारे में संसद द्वारा पारित कानून ने कोई प्रावधान नहीं किया है या प्रावधान अपर्याप्त है। ऐसे विचारशून्य (अस्पष्ट) क्षेत्रों को भरने संबंधी शास्त्रीय उदाहरण चुनाव चिन्ह (आरक्षण तथा आबंटन) आदेश 1968 का जारी होना है। यह आदेश राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर राजनीतिक दलों की मान्यता से संबंधित मामलों, उनके लिए चुनाव चिन्हों का आरक्षण राजनीतिक दलों के अलग हुए गुटों के विवादों के निपटारे तथा चुनाव में सभी उम्मीदवारों को चुनाव चिन्ह आबंटन संबंधी मामलों के बारे में है।

एक अन्य अस्पष्ट क्षेत्र है जहां संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत निर्वाचन आयोग अपनी अंतर निहित शक्तियों का प्रयोग करता है। यह राजनीतिक दलों तथा निर्देशन के लिए आदर्श आचार संहिता को लागू करना है। आदर्श आचार संहिता स्वयं राजनीतिक दलों द्वारा विकसित दस्तावेज है जो यह शासित करता है कि चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक दलों के लिए बराबरी का स्तर सुनिश्चित हो। विशेषकर सत्तारूढ़ दल या दलों द्वारा अपने उम्मीदवारों की चुनावी संभावना मजबूत करने के लिए सरकारी शक्ति तथा सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग को रोकता है।
 
निर्वाचन के पश्चात चुनावों से संबंधित सभी संदेहों तथा विवादों का समाधान जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के प्रावधानों के अनुसार किया जाता है। इस अधिनियम के अंतर्गत ऐसे सभी संदेह और विवाद संबद्ध राज्य के उच्च न्यायालय के समक्ष केवल चुनाव समाप्ति के बाद उठाये जा सकते हैं, चुनाव प्रक्रिया जारी रहने के समय नहीं।
 
उपरोक्त जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 तथा 1951 तथा निर्वाचन नियम 1960 के पंजीकरण तथा निर्वाचन नियम 1961 संसद के दोनों सदनों तथा राज्य विधानमण्डलों के चुनाव से संबंधित सभी विषयों के बारे में सम्पूर्ण संहिता हैं। चुनाव आयोग या इसके अधीन कार्य कर रहे प्राधिकार के किसी निर्णय से आहत कोई व्यक्ति इन अधिनियमों और ऩियमों के प्रावधानों के अनुरूप समाधान पा सकता है।
 
ये अधिनियम और नियम निर्वाचन आयोग को निर्वाचक सूची की तैयारी/पुनरीक्षण तथा चुनाव संचालन से संबंधित सभी पक्षों के बारे में निर्देश जारी करने के अधिकार देते हैं। इसके अनुरूप आयोग ने अनेक निर्देश दिये हैं, जिनका उल्लेख निर्वाचक पंजीकरण अधिकारियों, निर्वाचन अधिकारियों, पीठासीन अधिकारियों, उम्मीदवारों, मतदान अभिकर्ताओं तथा मतगणना अभिकर्ताओं के लिए पुस्तिका में किया गया है।
 

संसद द्वारा पारित कानून और इनकी पूर्ति के लिए बने नियम तथा आयोग के निर्देशों की समीक्षा समय-समय पर विभिन्न महत्वपूर्ण मामलों में उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई है। शीर्ष न्यायालय ने इन कानूनों को पूरक रूप देने तथा निर्वाचन प्रणाली के सुधार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उदाहरण के लिए उच्चतम न्यायालय ने मोहिंदर सिंह गील बनाब मुख्य निर्वाचन आयुक्त (एआईआर 1978 एससी 851) मामले में व्यवस्था दी कि निर्वाचन आयोग संविधान सृजक के रूप में संसद द्वारा बनाये गये कानूनों की प्रतिपूर्ति वहां कर सकता है जहां कानून ने हमारे जैसे विशाल लोकतंत्र में चुनाव संचालन के दौरान उत्पन्न किसी स्थिति  के संबंध में कोई पर्याप्त प्रावधान नहीं किया है। इन शक्तियों का उपयोग करते हुए आयोग आदर्श आचार संहिता लागू कर रहा है। यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए स्वयं राजनीतिक दलों द्वारा किया गया अनूठा योगदान है। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिवर्टीज (एआईआर 2003 एससी 2363) मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संसद या राज्य विधानसभाओं के चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को हलफनामे में उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि यदि कोई हो, उसकी, पति/पत्नी और आश्रित बच्चों की परिसम्पति, उसकी शैक्षणिक योग्यताओं का ब्यौरा देना होगा ताकि निर्वाचक अपना प्रतिनिधि चुनते समय अपनी पसंद व्यक्त कर सके। रिसर्जेंस इंडिया [लाज (एससी)-2013-9-35] मामले में उच्चतम न्यायालय ने हाल में व्यवस्था दी कि निर्वाचन अधिकारी द्वारा बताने या स्मरण कराने के बाबजूद यदि कोई उम्मीदवार हलफनामे में आवश्यक जानकारी नहीं देता है तो उसके नामांकन पत्र के जांच के समय निर्वाचन अधिकारी नामांकन पत्र को नामंजूर कर सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा चुनाव कानून से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज [लाज (एससी)-2013-9-87] मामले में किया गया है। इस मामले में न्यायालय ने कहा कि मतदाता को निर्वाचन क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों के प्रति असंतोष व्यक्त करने तथा नकारात्मक मत देने का अधिकार है। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय को लागू करने के लिए निर्वाचन आयोग ने वोटिंग मशीनों (ईवीएम) में (नोटा-उपरोक्त में से कोई नहीं) का बटन जोड़ा है। इस बटन को दबाकर मतदाता यह व्यक्त कर सकता है कि वह किसी भी उम्मीदवार के लिए मत देना नहीं चाहता। यह व्यवस्था मतदाताओं को गोपनीय रूप से अपनी इच्छा व्यक्त करने योग्य बनाता है। लेकिन कानून यह नहीं कहता कि यदि ईवीएम में दर्ज नोटा विकल्प वाले वोटों की संख्या किसी उम्मीदवार द्वारा पाये गये मतों की संख्या से अधिक है तो यह उसके निर्वाचन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। डॉ. सुब्रमण्यन स्वामी [लाज (एससी)-2013-10-20] मामले में एतिहासिक निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा की इलेक्ट्रांनिक वोटिंग मशीनों में वोटर वैरीफाइबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) का प्रावधान होना चाहिए था कि मतदाता द्वारा अपना वोट डालने के बाद एक मुद्रित पर्ची निकले जिसमें मतदाता द्वारा व्यक्त पसंद के उम्मीदवार का नाम तथा चिन्ह लिखा हो। इससे मतदाता स्वयं को संतुष्ट करेगा कि उसके द्वारा दिया गया मत उचित तरीके से रिकॉर्ड हुआ है और उसने अपनी पसंद के उम्मीदवार को मत दिया है।  

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