गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

बोझ से चरमराती व्यवस्था

आज दुनिया की आबादी सात अरब को पार कर चुकी है और सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इसमें बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। गौरतलब है कि साठ के दशक के आखिरी वर्षों में सालाना वैश्विक जनसंख्या वृद्धि दर 2$1 फीसदी थी जो 2011 में 1.2 फीसदी हो गई है। अभी वैश्विक आबादी में हर साल 8 से 9 करोड़ की वृद्धि हो रही है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि भविष्य में कुछ बड़े अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देश ही वैश्विक आबादी को तेजी से बढ़ायेंगे। इसमें खासतौर से भारत शामिल है।

जहां तक भारत का सवाल है, भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है। आने वाले 10-12 वर्षों में भारत चीन से भी आगे निकल जायेगा। यही नहीं, जैसे कि आशंका है वर्ष 2060 में भारत की आबादी 1.7 अरब तक पहुंच जायेगी। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगले चार दशक के दौरान भारत और चीन की शहरी आबादी में सबसे बड़ी बढ़ोतरी दर्ज की जायेगी। खासकर भारत के शहर बेतहाशा बढ़ती आबादी से बर्बाद हो जायेंगे। इससे इनके सामने अपने लोगों को नौकरी, घर, बिजली और बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की चुनौती होगी। वर्ष 2010 से लेकर 2050 तक भारत में 49.7 करोड़ और अधिक शहरी आबादी जुड़ जायेगी। देखा जाये तो अफ्रीका और एशिया इसी समयावधि के दौरान वैश्विक शहरीकरण के मामले में जनसंख्या वृद्धि में सबसे आगे होंगे। इनमें भारत के साथ चीन, अमेरिका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया प्रमुख होंगे जहां जनसंख्या वृद्धि में भारी बढ़ोतरी दर्ज की जायेगी।

संयुक्त राष्ट्र के तहत इस बीच नाइजीरिया में 20 करोड़, अमेरिका में 10.3 करोड़ और इंडोनेशिया में 9.2 करोड़ और लोग शहरों में रहने लगेंगे। यही नहीं, भारत और इंडोनेशिया में शहरी आबादी में वृद्धि का अनुमान पिछले 40 सालों की तुलना में अधिक होगा। यह प्रवृत्ति विशेषकर नाइजीरिया की दृष्टि से काफी मायने रखती है, जहां पर शहरी जनसंख्या वर्ष 1970 और 2010 के बीच केवल 6.5 करोड़ ही बढ़ी। लेकिन 2010 और 2050 के बीच इसमें 20 करोड़  की वृद्धि की संभावना जतायी जा रही है। इसके तहत दुनिया के सभी देशों में वृद्धि के मामले में नाइजीरिया का तीसरा स्थान होगा।

गौरतलब है कि वर्ष 2001 की तुलना में वर्ष 2011 में भारत की आबादी में 18 करोड़ की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसमें ग्रामीण आबादी के मुकाबले शहरी आबादी में अपेक्षाकृत बढ़ोतरी अधिक हुई। इसका एक कारण यह भी रहा कि वर्ष 2001 में 2500 के करीब मलिन बस्तियां जो ग्रामीण क्षेत्र में आती थीं, को 2011 में शहरी क्षेत्र में शामिल कर लिया गया। जहां तक शहरी आबादी में बढ़ोतरी का सवाल है, खासकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य राज्यों में ग्रामीण जनसंख्या वृद्धि दर में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2011 की जनगणना से यह साफ हो गया है कि 27 भारतीय राज्यों में मौजूदा दशक में ग्रामीण आबादी में तेजी से गिरावट आने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इसे यदि जनसांख्यिकीय बदलाव की संज्ञा दें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। देखा जाये तो वर्ष 2001 से ही गोवा, केरल, नागालैंड और सिक्किम में ग्रामीण आबादी में गिरावट आने के संकेत मिलने शुरू हो गए थे जबकि आंध्र प्रदेश एक ऐसा राज्य था जहां ग्रामीण आबादी स्थिर है। जबकि पंजाब और पश्चिम बंगाल दो ऐसे राज्य रहे जहां ग्रामीण आबादी में तेजी से गिरावट आयी। इस दौरान जहां पंजाब में ग्रामीण आबादी में 12 लाख की बढ़ोतरी हुई, वहीं शहरी क्षेत्रों में 21 लाख की बढ़ोतरी दर्ज की गई जबकि पश्चिम बंगाल में जहां ग्रामीण आबादी में 44 लाख की बढ़ोतरी हुई, वहीं शहरी आबादी तकरीबन 67 लाख के पार जा पहुंची। यही नहीं, तटीय राज्य भी इस संक्रमण से अछूते नहीं रह सके।

गौरतलब है कि देश की आबादी में युवाओं की अधिक संख्या का उस देश की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि अकसर 15 से 55 साल की कामकाजी उम्र को फायदेमंद माना जाता है। मौजूदा दौर में भारत में कुल कामकाजी आबादी में अधिकांशत:15 से 34 साल के युवा हैं। इससे साबित होता है कि भारत के पास अर्थव्यवस्था के मामले में अन्य देशों के मुकाबले तीव्र गति से विकास करने की क्षमता है।

असल में यह तभी संभव है जब हम मौजूदा चुनौतियों का सामना कर पाने में सक्षम हों। इसके अभाव में भारत अपने जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाने में नाकाम रहा है। इसमें दो राय नहीं है। जहां तक चुनौतियों का सवाल है, इनमें जनसंख्या नियोजन की नीतियों का कारगर न होना, अनियोजित गर्भधारण और अवांछित प्रजनन प्रमुख हैं।


इसके विपरीत दुनिया के ज्यादातर विकासवादी मॉडल यह दर्शाते हैं कि देश को गरीबी से छुटकारा शहरीकरण के माध्यम से ही मिल सकता है। समय की मांग है कि अब देश हित को मद्देनजर रखते हुए अपनी प्राथमिकताओं का फिर से निर्धारण किया जाये। इसमें उस दशा में ही सफलता की आशा की जा सकती है जबकि उन सरकारी स्कूलों और कालेजों में जहां गरीब व ग्रामीण छात्र पढ़ते हैं, में निवेश बढ़ाया जाये। यह सब देश के नीति-नियंताओं और उनसे जुड़े सगठनों-विभागों द्वारा समय पर अहम व सकारात्मक कदम न उठाये जाने का ही नतीजा है। अब यदि 12वीं पंचवर्षीय योजना में इस बाबत कदम उठाये जाते हैं तो निश्चित तौर पर देश की दशा-दिशा में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है अन्यथा नहीं। इसमें दो राय नहीं है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

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