शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

श्रीलंका: तमिल समस्या के वैश्विक निहितार्थ

श्रीलंका में तमिल समुदाय पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के साथ ही साथ उनकी जमीनों, घरोंबस्तियों और गांवों  को  बचाने की रणनीति बनाने हेतु लंदन में ब्रिटिश संसद 'हाउस ऑफ कॉमन्स' के एक सभागार में 31 जनवरी को एक वैश्विक बैठक का आयोजन किया गया था। इस बैठक में ब्रिटेन के विभिन्न दलों के सांसदों के अतिरिक्त श्रीलंका, भारत, अमेरिका, जर्मनी, बंगलादेश आदि देशों के सैकड़ों नागरिक उपस्थित थे।  गौरतलब है कि सन् 2002 से प्रारंभ हुए युध्द के अंतिम दौर में ही तकरीबन 1,50,000 ऐसे लोग मारे गए थे, जिन्हें युध्द से प्रभावित होने से बचाने के लिए श्रीलंका सरकार द्वारा सुरक्षा क्षेत्र में रखा गया था। लेकिन बाद में बड़ी निर्ममता के साथ बमबारी कर उन्हें मार डाला गया। इतना ही नहीं इस दौरान विद्यालयों, घरों और अस्पतालों पर भी बमबारी की गई थी। गौरतलब है कि सन् 2006 में युध्दविराम लागू होने के पहले मृत व्यक्तियों की गिनती तो आज तक सामने आई ही नहीं है। इस प्रक्रिया में लाखों विस्थापित हो गए और आज वे भारत से लेकर जर्मनी तक तमाम देशों में बसे हुए हैं। इसके बावजूद इस घृणित अपराध की सजा भुगतने को शासक वर्ग तैयार नहीं है।

इराक युध्द से लेकर अफगानिस्तान युध्द तक सभी में वैश्विक ताकतें खुले रूप में शामिल थीं। ऐसे में वहां हुई हत्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी। लेकिन श्रीलंका में हुए हत्याकांडों की आवाज दुनिया भर में रहने वाले तमिलों ने जोर-शोर से उठाई। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के साथ कार्य कर चुके ब्रुसे फेनेने ने श्रीलंका के सेनाप्रमुख एवं राष्ट्राध्यक्ष महेंद्र राजपक्षे को आरोपी बनाकर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। राजपक्षे के अमेरिकी व श्रीलंका दोनों देशों के नागरिक होने के नाते उन्हें अमेरिकी न्यायालय वर्ष 2007 में हुए जातीय नरसंहार के अपराध में दोषी ठहरा सकते थे। किन्तु सं.रा. संघ के राजनायिकों को दी जाने वाली छूट की आड़ में उन्हें सुरक्षा कवच पहना दिया गया।

श्रीलंका विवाद में यह तय हो गया कि इस सुंदर व समृध्द टापू देश को सिंहली समाज द्वारा केवल 'अपना' घोषित करना ही एक तरह से आतंक का पर्याय था। ऐसा ही दर्प भंडारनायके के शासन के दौरान सिंहली भाषा कानून की घोषणा के समय भी सामने आया था। लेकिन इस सबके पहले से भूमि के मुद्दे पर बहुसंख्यक सिंहली, तमिलों की विरोध करते आए थे। तमिल बहुसंख्यक क्षेत्रों व उत्तर श्रीलंका में भूमि सुधार के नाम पर हुए भूमि बंटवारे में वहां सिंहली परिवारों को बसाया गया। यह एक प्रकार की जबरदस्ती ही थी। भारत में जिस प्रकार अंग्रेजों ने सन् 1935 में भूमि की कानूनी बंदोबस्ती प्रारंभ की थी ठीक वैसे ही श्रीलंका में भी तोड़ो (फूट डालो) और राज करो की नीति अपनाई गई। इससे तमिल प्रदेश में जातीय समीकरण बदलने लगा और असंतोष भी बढ़ा। सन् 1951 में किसान संगठन ने शांतिपूर्ण आंदोलन कर तमिल चेतना जागृत की और अपनी सामाजिक व सांस्कृतिक विविधता का हवाला देते हुए अल्पसंख्यकों की रक्षा का मामला उठाया। लेकिन बावजूद इसके इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया। परिणाम यह हुआ कि सांख्यकीय स्थितियां बदलती गई। सन् 1901 से 2012 के दौरान जहां पूर्व में तमिलों की जनसंख्या में 537 प्रतिशत की वृध्दि हुई वहीं सिंहलियों की जनसंख्या में 3991 प्रतिशत की वृध्दि हुई। ऐसा ही त्रिकोनामाली व अन्य स्थानों पर भी हुआ है।

भारत के उत्तरपूर्व की स्थिति भी यहां से काफी समानता वाली है। हाल ही में महाराष्ट्र में भी प्रांतवाद एक मुद्दा बन गया है। जाहिर है कि ऐसे मामलों से जातीय संघर्ष में वृध्दि होती ही है। इस प्रक्रिया में भूमि व प्राकृतिक संसाधन ताकतवर वर्ग के हाथ में पहुंच जाते हैं। श्रीलंका में तीन दशकों तक चले युध्द ने हमें यही तो सिखाया है। दोनों पक्षों द्वारा सन् 2006 के युध्द विराम को तोड़े जाने को भारत जैसे बड़े पड़ोसी देश की मध्यस्थता भी नहीं रोक पाई। अपनी विफलता के बावजूद हमने युध्द का समर्थन नहीं किया, लेकिन राजपक्षे सरकार द्वारा श्रीलंका के संविधान में किए गए 13वें संशोधन की आड़ में 17 सदस्यीय समिति की सिफारिशों को जबरन अमल में लाने के कारण न केवल सत्ता का केंद्रीकरण हुआ, बल्कि तमिलों के स्वनिर्धारण की मांग को युध्द से कुचलने का मौका भी मिल गया। इस महाभयंकर हत्याकांड की तुलना किसी अन्य घटना से नहीं की जा सकती। वैसे भी इस फासिस्ट व नस्लवादी हिंसा की तुलना असंभव ही है। दुनिया भर में हो रही भर्त्सना व सं.रा. संघ के पूर्व अधिकारियों, तमिल समुदाय व तमिल राजनेताओं के बढ़ते आक्रोश के मद्देनजर भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भाग लेने श्रीलंका नहीं पहुंचे। यहां विदेशमंत्री ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। लेकिन इस सम्मेलन में युध्द अपराधों पर न तो कोई बात हुई और 1500 व्यक्तिगत मामलों (युध्द अपराध संबंधी) पर भी कोई कार्रवाई नहीं हो पाई। गौरतलब है श्रीलंका में अब 'भूमि' का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। इसमें राय द्वारा भूमि हड़पना और तमिल समुदाय को जीविका से वंचित रखना एक नई चुनौती है और यह हिंसा का नया प्रकार है। युध्द के दौरान हजारों एकड़ जमीनें (10500 एकड़) सैनिक शिविर के नाम पर अधिग्रहित कर ली गई। इस दौरान सुदूर क्षेत्रों में तथाकथित कल्याणकारी गांव व केंद्र बनाए गए। जाफना में 6500 एकड़ निजी जमीन सैन्य शिविर हेतु ले ली गई। निजी पट्टों वाली इन जमीनों पर अब किसान नहीं, बल्कि सैनिक खेती करते हैं और उपज बेचकर कमाई करते हैं। इतना ही नहीं, खुली पड़ी जमीनों पर बिना अधिग्रहण कानून का पालन करे चीन व अन्य देशों की कंपनियों को पूंजी निवेश के नाम पर स्पेशल इकॉनामिक जोन (विशेष आर्थिक क्षेत्र) में लाने का न्यौता पिछले पांच वर्षों से लगातार दिया जा रहा है। राजनीति के इस सैन्यीकरण को कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार पूंजीवाद और नई आर्थिक नीति केंद्रित बाजारवाद, एक बार पुन: तमिल क्षेत्रों को लील रहा है। आज भी डेढ़ से दो लाख सैनिक उत्तरी तमिल प्रदेशों में जमे हुए हैं। यह स्थिति की गंभीरता व इसका एकपक्षीय होना दर्शाता है। इसी के समानांतर ताप विद्युतगृहों व मेगा सिटी जैसी अनेक योजनाएं तमिल बसाहटों और गांवों को खत्म करने की साजिश ही है। लंदन सम्मेलन में इस प्रकार की हिंसा की खुले तौर पर निंदा की गई। सैनिक शिविरों और सैन्यीकरण के अलावा विकास परियोजनाओं के नाम पर भूमि की बंदरबाट  श्रीलंका के तमिल क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया सहित दुनियाभर के देशों में आम हो गई है। किसान मजदूर, मछुआरे सभी इस विस्थापनवादी व विषमतावादी विकास मॉडल से हैरान हैं। भारत के तमिलनाडु में श्रीपेरेम्बदूर, शिरुमंगलम जैसे अनेक जिलों में 1500 से 2000 एकड़ तक जमीन बलपूर्वक अधिग्रहित कर वहां पर ब्रिटेन और यूरोप की कंपनियों को लाया जा रहा है। इसमें अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों का हित भी जुड़ा रहता है। तमिल व सिंहली समुदाय दोनों ही आपसी संघर्ष में अंतत: घाटे में रहेंगे और महावेली जैसी बड़ी सिंचाई योजनाएं सिंहली व तमिलों में से किसी को भी बक्शेगी नहीं। अतएव श्रीलंका की तमिल जनता के प्रति शांति न्याय व जनतंत्र के दृष्टिगत ही व्यवहार किया जाना चाहिए।


तमिल नेशनल अलायंस के प्रतिनिधि मान रहे हैं, कि महज चुनावी राजनीति से इस स्थिति से निपटा नहीं जा सकता। इस हेतु विकेंद्रित शासन प्रणाली की आवश्यकता है। हम सबको अपने वंचित वर्ग को संभालना व बचाना होगा। किसी समुदाय को वहां की भूमि, प्रकृति व संस्कृति ही बचाती है। तमिलों को पूर्ण मताधिकार प्रदान किए जाने के साथ ही उनकी भूमि को भी बचाना ही होगा, तभी उनकी जीविका और जीवन चल सकता है। वैश्वीकरण, कंपनीकरण व उदारीकरण के इस मॉडल को स्थानीयता के आधार पर चुनौती देना होगी तथा वैकल्पिक विकास व पुनर्वास का कार्य भी साथ-साथ करना होगा। गौरतलब है कि पुनर्निमाण आज श्रीलंका की सबसे बड़ी चुनौती है। लंदन में हुई इस बैठक में विभिन्न राष्ट्रों, व्यवसायों, और पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति इस बात पर एकमत थे कि इस चर्चा को मूर्तरूप देना अनिवार्य है।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य