आपदा
एक प्राकृतिक या मानव निर्मित जोखिम का प्रभाव है जो समाज या पर्यावरण को
नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है आपदाशब्द ज्योतिष विज्ञान से आया है इसका अर्थ
होता है कि जब तारे बुरी स्थिति में होते है तब बुरी घटनाये होती हैं.
समकालीन
शिक्षा में, आपदा अनुचित प्रबंधित जोखिम के परिणाम के रूप
में देखा जाता है. ये खतरें आपदा और जोखिम के उत्पाद है. आपदा जो कम जोखिम के
क्षेत्र में होते हैं वे आपदा नही कहे जाते हैं जैसे निर्जन क्षेत्र में. विकाशशील
देश आपदा का भारी मूल्य चुकाते हैं- आपदा के कारण ९५ % मौत विकासशील देशों में
होती है और प्राकृतिक आपदा से होने वाली मौत औद्योगिक देशों की तुलना में विकाशशील
देशों में २० गुना ज्यादा हैं. आपदा को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है
-एक दुखद घटना, जैसे सड़क दुर्घटना, आग, आतंकवादी
हमला या विस्फोट, जिसमें कम से कम एक पीड़ित व्यक्ति हो.
एक
प्राकृतिक आपदा एक प्राकृतिक जोखिम का ही परिणाम है
(जैसे की ज्वालामुखी विस्फोट, भूकंप, या भूस्खलन)
जो
कि मानव गतिविधियों को प्रभावित करता है.मानव दुर्बलताओं को उचित योजना और
आपातकालीन प्रबंधन के आलोक में और बढ़ा देता है, जिसकी
वजह से आर्थिक, मानवीय और पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है. इसके
परिणाम स्वरुप होने वाली हानि जनसँख्या की आपदा को बढ़ावा देने या विरोध करने की
क्षमता पर निर्भर करती है अर्थात उनके लचीलेपन पर. ये समझ केंद्रित है इस विचार
में: "जब जोखिम और दुर्बलता का मिलन होता है तब दुर्घटनाएं घटती हैं". जिन इलाकों में
दुर्बलताएं निहित न हों वहां पर एक प्राकृतिक जोखिम कभी भी एक प्राकृतिक आपदा में
तब्दील नहीं हो सकता है, उदहारण स्वरुप, निर्जन प्रदेश
में एक प्रबल भूकंप का आना.बिना मानव की भागीदारी के घटनाएँ अपने आप जोखिम या आपदा
नहीं बनती हैं, इसके फलस्वरूप प्राकृतिक शब्द को विवादित बताया
गया है. हाल ही में भारत के उत्तरी राज्यों में घटित बाढ़ और भूस्खलन की घटना ने
प्राकृतिक आपदाओं के स्वरूप पर बहस को और गंभीर बना दिया है .
ये
आपदाएं मानव निर्मित थी अथवा प्राकृतिक इस पर बहस भले ही की जा रही हो परन्तु इस
बात से किसी को संदेह नहीं की आपदा पश्चात के प्रबंधन की मानवीय तथा अन्य भौतिक
क्षति को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है . कुदरत के कहर से भारी तबाही का
सामना कर रहे उत्तराखंड के पास इस आपदा से निपटने के लिए कोई आपदा प्रबंधन योजना
ही नहीं थी। अपनी सरंचना के कारण हमेशा ही प्राकृतिक आपदाओं के खतरे से घिरे रहने
वाले इस राज्य की ओर से इन आपदाओं से निपटने के लिए कोई पुख्ता तैयारी नहीं की गई
थी। कैग द्वारा हाल ही में 23 अप्रैल को जारी एक विज्ञप्ति में कहा
गया है कि अक्टूबर 2007 में गठित स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी की
आज तक कोई बैठक तक नहीं हुई है और न ही इस अथॉरिटी ने अब तक आपदा से निपटने के लिए
कोई नियम-कानून या दिशानिर्देश ही बनाए हैं।
राज्य
की आपदा प्रबंधन तंत्र की तरफ इशारा करते हुए कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि
नियमों के अनुसार आपदा के समय उससे निपटने की तैयारी की जिम्मेदारी आपदा प्रबंधन
तंत्र की होती है। लेकिन इस मामले में 'राज्य की अथॉरिटीज पूरी तरह से
निष्क्रय थीं।' राज्य आपदा प्रबंधन प्लान निर्माणाधीन था और कई
आपदाओं के लिए कोई योजना ही नहीं बनाई गई।
क्या
आपदा पूर्व चेतावनियों पर अमल करके उत्तराखंड के ऊपरी इलाकों को तबाही से बचाया जा
सकता था। कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले से जारी चेतावनियों पर अमल करने
के बारे में कोई योजना नहीं बनाई गई थी। 'संचार व्यवस्था अपर्याप्त थी। यह
लपरवाही तब और भी चौंकाने वाली बन जाती है जबकि वर्ष 2007-8 और 2011-12 के
बीच राज्य में 653 लोगों ने प्राकृतिक आपदाओं में अपनी जानें
गंवाईं। इनमें से 55 प्रतिशत लोगों की मौत भूस्खलन और तेज बारिश की
वजह से हुई। इस अवधि के दौरान राज्य में 27 बड़े भूस्खलन की घटनाएं हुईं। अकेले
वर्ष 2012 में 176 लोगों की मौत प्राकृतिक आपदा के कारण हुई।
साथ
ही कैग की रिपोर्ट में राज्य आपदा राहत कोष के धन के इस्तेमाल में भी बड़े पैमाने
पर गड़बड़ियों की तरफ इशारा किया गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य सरकार ने
प्राकृतिक आपदा की सलाना रिपोर्ट तक तैयार नहीं की और नहीं उसने इस बात जानकारी दी
की राहत कोष के फंड का इस्तेमाल कैसे किया गया। नतीजा वर्ष 2007-11 के
दौरान केंद्र सरकार द्वारा फंड जारी करने में 80 दिन से लेकर 184
दिनों की देरी हुई।
उत्तराखंड
सरकार के कुप्रंबधन का उदाहरण देते हुए कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि
जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने जून 2008 में राज्य के 101
गांवों को असुरक्षित करार दिया था लेकिन आज तक राज्य सरकार ने उस गांव के लोगों के
लिए पुर्नवास की योजना नहीं बनाई।
भारत
में लोगों को आपदासे बचाना या तत्काल राहत देना किसकी जिम्मेदारी है?. दरअसल
आपदा प्रबंधन तंत्र की सबसे बड़ी आपदा यह है कि लोगों को कुदरती कहर से बचाने की
जिम्मेदारी अनेक की है और किसी एक की नहीं।
इस
देश में जब लोग बाढ़ में डूब रहे होते हैं, भूकंप के मलबे
में दब कर छटपटाते हैं या फिर ताकतवर तूफान से जूझ रहे होते हैं, तब
दिल्ली में फाइलें सवाल पूछ रही होती हैं कि आपदा प्रबंधन किसका दायित्व है?
कैबिनेट
सचिवालय? जो हर मर्ज की दवा है। गृह मंत्रालय? जिसके पास
दर्जनों दर्द हैं। प्रदेश का मुख्यमंत्री? जो केंद्र के भरोसे है। या फिर नवगठित
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण? जिसे अभी तक सिर्फ ज्ञान देने और
विज्ञापन करने का काम मिला है। एक प्राधिकरण सिर्फ 65 करोड़ रुपये के
सालाना बजट में कर भी क्या सकता है। ध्यान रखिए कि इस प्राधिकरण के मुखिया खुद
प्रधानमंत्री हैं।
जिस
देश में हर पांच साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600
जानें लील जाती हो, पिछले 270 वर्षो में जिस
भारतीय उपमहाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की
मार झेली हो और ये तूफान भारत में छह लाख जानें लेकर शांत हुए हों, जिस
मुल्क की 59 फीसदी जमीन कभी भी थरथरा सकती हो और पिछले 18
सालों में आए छह बड़े भूकंपों में जहां 24 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हों,
वहां
आपदा प्रबंधन तंत्र का कोई माई-बाप न होना आपराधिक लापरवाही है।
सरकार
ने संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी और अब तक
यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ है। भारत काआपदा प्रबंधन
तंत्र इतना उलझा हुआ है कि इस पर शोध हो सकता है। आपदा प्रबंधनका एक सिरा कैबिनेट
सचिव के हाथ में है तो दूसरा गृह मंत्रालय, तीसरा राज्यों,
चौथा
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन या फिर पांचवां सेना के। समझना मुश्किल नहीं है कि इस
तंत्र में जिम्मेदारी टालने के अलावा और क्या हो सकता है। गृह मंत्रालय के एक
शीर्ष अधिकारी का यह कहना, 'आपदा प्रबंधन तंत्र की संरचना ही अपने
आप में आपदा है। प्रकृति के कहर से तो हम जूझ नहीं पा रहे, अगर मानवजनित
आपदाएं मसलन जैविक या आणविक हमला हो जाए तो फिर सब कुछ भगवान भरोसे ही होगा..',
भी
यही जाहिर करता है।
उल्लेखनीय
है कि सुनामी के बाद जो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया गया था, उसका
मकसद और कार्य क्या है यही अभी तय नहीं हो सका है। सालाना पांच हजार करोड़ से
ज्यादा की आर्थिक क्षति का कारण बनने वाली आपदाओं से जूझने के लिए इसे साल में 348
करोड़ रुपये मिलते हैं और काम है लोगों को आपदाओं से बचने के लिए तैयार करना। पर
बुनियादी सवाल यह है कि आपदा आने के बाद लोगों को बचाए कौन? यकीन मानिए कि
जैसा तंत्र है उसमें लोग भगवान भरोसे ही बचते हैं।
आपदा
प्रबंधन का हाल
इन
सबों के बीच हमें गुजरात से आपदा प्रबंधन सीखना चाहिए जहां बीस मीटर की गहराई में
दबे इंसान की धड़कन सुनने वाला यंत्र, गोताखोरों को लगातार 12
घंटे तक आक्सीजन देने वाला ब्रीदिंग सिस्टम, अंडर वाटर सर्च
कैमरा, आधुनिक इन्फेलेटेबल बोट, हाई वाल्यूम वाटर पंपिंग..। आप सोच रहे
होंगे कि यह किसी विकसित देश के राहत दल की तकनीकी क्षमता का ब्यौरा है। जी नहीं!
यह और ऐसी तमाम क्षमताएं व विशेषज्ञताएं इसी देश के एक राज्य, गुजरात
में मौजूद हैं और इन्हीं के बूते आपदाप्रबंधन के मामले में गुजरात विकसित देशों से
मुकाबले की स्थिति में आ गया है।
सोलह
सौ किलोमीटर से अधिक के समुद्री किनारे तथा भूकंप के मामले में सक्रिय अफगानिस्तान
से प्लेट जुड़ा होने के कारण गुजरात पर हमेशा आपदाओं का खतरा बना रहता है। लेकिन
गुजरात ने आपत्ति को अवसर में बदलते हुए आपदा प्रबंधन में एक अनोखी दक्षता हासिल
की है। आज गुजरात की यह विशेषज्ञता व उपकरण बिहार के बाढ़ पीड़ितों की जान बचा रहे
हैं। मुख्य फायर आफिसर एम.एफ. दस्तूर बताते है कि इजरायल का एक्वा स्टिक लिसनिंग
डिवाइस सिस्टम उनकी आपदा टीम की धड़कन है। यह उपकरण जमीन के नीचे बीस मीटर की
गहराई में दबे किसी इसान के दिल की धड़कन तक सुन लेता है। मोटर वाली जेट्स्की बोट
और गोताखोरों को लगातार 12 घटे (आम ब्रीदिंग सिस्टम की क्षमता 45
मिनट तक आक्सीजन देने की है) तक आक्सीजन उपलब्ध कराने वाला अंडर वाटर ब्रीदिंग
एपेरेटस भी सरकार के पास हैं।
यहां
का आपदा प्रबंधन तंत्र आधुनिक मास्क, इन्फ्लेटेबल बोट, हाई
वाल्यूम पंपिंग यूनिट आदि आधुनिक उपकरणों से लैस है। यहां आपदा प्रबंधन दल के पास
नीदरलैंड का हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट भी है, जो मजबूत छत को
फोड़ कर फर्श या गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का रास्ता बनाता है। सरकार ने
अग्निकांड से निपटने के लिए बड़ी संख्या में अल्ट्रा हाई प्रेशर फाइटिग सिस्टम भी
खरीदे हैं। आम तौर पर आग बुझाने में किसी अन्य उपकरण से जितना पानी लगता है,
यह
सिस्टम उससे 15 गुना कम पानी में काम कर देता है। इसे
अहमदाबाद के दाणीलीमड़ा मुख्य फायर स्टेशन ने डिजाइन किया है। यह आग पर पानी की एक
चादर सी बिछा कर गर्मी सोख लेता है।
अमेरिका
के सर्च कैमरे तथा स्वीडन के अंडर वाटर सर्च कैमरे भी सरकार ने अपनी राहत और बचाव
टीमों को दिए हैं। ये उपकरण जमीन के दस फीट नीचे तथा 770 फीट गहरे पानी
में भी तस्वीरे उतार कर वहां फंसे व्यक्ति का सटीक विवरण देते हैं। अमरीका की लाइन
थ्रोइंग गन से बाढ़ में या ऊंची बिल्डिंग पर फंसे व्यक्ति तक गन के जरिए रस्सा
फेंक कर उसे बचाया जा सकता है। राज्य की एम्बुलेंस सेवा 108 ने तो गंभीर
वक्त पर बहुत अच्छे परिणाम दिए है। अब गुजरात में कहीं भी पंद्रह मिनट में
एम्बुलेंस सेवा प्राप्त की जा सकती है। गुजरात ने महज एक वर्ष के भीतर भूकंप की
विनाशलीला का कोई चिह्न नहीं रहने दिया.
वर्तमान
में आपदा प्रबन्धन का सरकारी तंत्र देखें ता कैबिनेट सचिव, गृहमंत्रालय,
राज्यों
में मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन विभाग और सेना इस
तंत्र का हिस्सा हैं। यह भी सच है कि हमारे देश में आपदा प्रबन्धन की स्थिति
ज्यादा ही लचर है। हमारे आपदा प्रबन्धन की कमजोर कड़ी लगभग हर आपदा में ढीली दिखी,
लकिन
हमने उसे मजबूत करन का प्रयास नहीं किया। मीडिया की भाषा में यह ‘प्रशासनिक
लापरवाही’ अथवा न्यायपालिका की भाषा में ‘आपराधिक
निष्क्रियता’ है। प्रभावी आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त है
जागरूकता और प्रभावित क्षेत्रा में तत्काल राहत एजेन्सी की पहुंच। यदि लोगों में
आपदा की जागरूकता नहीं है तो तबाही भीषण होगी और राहत में दिक्कतें आएंगी। आपदा
सम्भावित क्षेत्र में तो लोगों को बचाव की बुनियादी जानकारी देकर भी आपदा से होने
वाली क्षति को कम किया जा सकता है। आपदा प्रबन्धन के बाकी तत्वों में ठीक नियोजन,
समुचित
संचार व्यवस्था, ईमानदार एवं प्रभावी नेतृत्व, समन्वय
आदि काफी महत्वपूर्ण हैं। हमारे देश में व्यवस्था की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि
यहां सब-एक दूसरे पर जिम्मेवारी डालते रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक औसतन 5 से
10 हजार करोड़ की आर्थिक क्षति तो प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं से उठाते
हैं लकिन इससे जूझन के लिये आपदा प्रबन्धन पर हमारा बजट महज 348
करोड़ रुपये है। इस धनराशि में अधिकांश प्रचार आदि पर ही खर्च हो जाता है।
प्रशिक्षण की अभी तो तैयारी भी नहीं है। वर्ष 2005 में आपदा
प्रबन्धन अधिनियम संसद ने पारित कर दिया है। इसके बाद से ही राष्ट्रीय आपदा
प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया गया है.
गुजरात
भूकम्प के बाद वहां विकसित प्रभावी आपदा प्रबन्धन तंत्र एक मिसाल है। इस मॉडल को
अन्य राज्य सरकारें अपना सकती हैं। इस समय गुजरात आपदा प्रबन्धन विभाग को
विश्वस्तरीय आपदा प्रबन्ध्न संस्था के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यदि ऐसा
है, तो अन्य राज्य सरकारों को भी अपना आपदा प्रबन्धन तंत्र मजबूत और
प्रभावी बनाना चाहिए। बाढ़ प्रभावित इलाके में स्थानीय मदद से प्रत्येक गांव या
दो-तीन गांवों पर एक आपदा राहत केन्द्र की स्थापना कर वहां दो-तीन महीन का अनाज,
पर्याप्त
साधन, जरूरी दवाएं, पशुओं का चारा, नाव, तारपोलीन
व अन्य जरूरी चीजों का बाढ़ से पूर्व ही इन्तजाम सुनिश्चित किया जाना चाहिए। आज की
सबसे बड़ी जरूरत है देश भर के इंजीनियरों, डाक्टरों, अफसरों, जनप्रतिनिधियों
का ऐसी प्रशिक्षण दी जाए जो विषम से विषम परिस्थितियों में भी मजबूत मनोबल व पूरी
क्षमता से कार्य कर सके । इस कार्य में अन्य स्वयंसेवी संगठनों, एनसीसी,
एनएसएस,
विविल
डिफेंन्स, होमगार्ड, कालेज छात्रों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
आपदा प्रबन्धन में लापरवाही को राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए। हमें यह
समझना ही होगा कि आपदा प्रबंधन की अनुपस्थिति समस्त उपलब्धियों पर पानी फेर सकती
है।
भारत में आपदा प्रबंधन के विधिक ढांचे के विषय में और जानने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें http://mha.nic.in/hindi/pdfs_hin/NPDM%28H%29150110.pdf
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