शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

चिंता विश्व शांति की या इजराइली सुरक्षा की

गत वर्ष 24 नवम्बर को जब 'ई3 , 3' (ईयू के तीन देश-ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी तथा अमेरिका, रूस और चीन) तथा ईरान' 'रेसीप्रोकल मीजर्स' खोजने में सफल हुए थे  लेकिन तब इत्मीनान नहीं हो पाया था कि ईरान अपना यूरेनियम एनरिचमेंट कार्यक्रम वास्तव में बंद कर देगा। लेकिन इसकी उम्मीद थी क्योंकि यह मालूम था कि ईरान और अधिक समय तक अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का सामना या तो कर नहीं पाएगा या फिर उसे भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।  हालांकि उस समय यह प्रश्न भी उठा था कि आखिर पश्चिमी विश्व ने जिस तरह से ईरान के सम्भावित बम को दुनिया के सामने सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने की कयावद की, वैसी कवायद पाकिस्तान के बम को लेकर क्यों नहीं की गई? यही प्रश्न अभी मौजूद है जब  ईरान ने अपने यूरेनियम एनरिचमेंट कार्यक्रम को बंद करने की प्रक्रिया पर अमल (20 जनवरी 2014 से) करना शुरू कर दिया है। तो क्या इस तरह के कार्यक्रमों पर दुनिया के शक्तिशाली शासकों और उनकी चेरी बनी वैश्विक संस्थाओं को दोहरा मापदण्ड अपनाना चाहिए? यह भी सोचना होगा कि क्या यूरेनियम एनरिचमेंट प्रक्रिया से जुड़े अन्य देश तेहरान के साथ हुए समझौते के बाद ऐसा करने भौमिकीय कार्यक्रमों को बंद कर देंगे? यदि नहीं, तो फिर अकेले ईरान को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों मचाई गई? एक सवाल यह भी है कि क्या इस समझौते के बाद ईरान को  'एक्सिस ऑफ एविल' से मुक्त कर दिया जाएगा और वह पश्चिमी शक्तियों के साथ बातचीत के विहारों में मुक्त रूप से विचरण कर सकेगा?

नवम्बर में जो पी5+1 के साथ ईरान ने जिस अंतरिम समझौते को स्वीकार किया था, उस पर 20 जनवरी से अमल आरम्भ हो गया। समझौते के अनुसार ईरान 5 प्रतिशत से अधिक यूरेनियम एनरिच नहीं करेगा, 20 प्रतिशत एनरिच्ड यूरेनियम का पूरा हिस्सा समाप्त करेगा, मीडियम एनरिच्ड स्टॉकपाइल्स को न्यूट्रलाइज करेगा, ईराक के हैवी वाटर प्लांट को आगे विकसित करने से रोकेगा, और सेंट्रीफ्यूज नहीं लगाएगा, उसका 3.5 प्रतिशत एनरिच्ड यूरेनियम छह महीने बाद भी इतना ही रहेगा तथा आईएईए के निरीक्षकों की मॉनीटरिंग बढ़ायी जाएगी जिसमें नांताज और फ रादो न्यूक्लियर साइट्स की प्रतिदिन निगरानी भी शामिल होगी। इसके बदले में  'पी5+1' देश आंशिक रूप से प्रतिबंधों में ढील देने के साथ-साथ उसके तेल के वर्तमान स्तरों तक खरीद की अनुमति देंगे, अर्ध्दकीमती धातुओं और एयरलाइंस पर लगे प्रतिबंधों को निलम्बित करेंगे और प्रतिबध्दता का अनुपालन करने पर उसे 4.2 डॉलर फॉरेक्स रिजर्व प्राप्त करने की अनुमति देंगे।

ईरान के न्यूक्यिलयर प्रोग्राम को बंद कराने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगियों की तरफ से जो प्रयास हुए क्या उनके केन्द्र में विश्व शांति थी या फिर इजराइली सुरक्षादरअसल ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकने की वर्तमान कोशिशें दो महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर आकर्षित करती हैं।  प्रथम-ईरान की परमाण्विक महत्वाकांक्षाओं का अंत करने के लिए अमेरिका और इसके पश्चिमी सहयोगी देशों के प्रयासों में दिखती प्रतिबध्दता। पर खास बात यह है कि इन देशों के इस दिशा में प्रयास अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के नवंबर 2011 के उस आकलन के बाद तेज हुए, जिसमें कहा गया था कि ईरान वास्तव में परमाणु हथियार बना रहा है और इसकी प्रक्रिया उस खतरनाक स्थिति तक पहुंच चुकी है, जहां से इसे रोका नहीं जा सकेगा। इस आकलन के बाद अमेरिका और उसके सहयोगियों को लग रहा था कि ईरान के खिलाफ कड़े कदम उठाने में विफल रहने पर इजराइल आक्रामक सैन्य कार्रवाई की ओर बढ़ सकता है। द्वितीय बिंदु इस धारणा के इर्द-गिर्द घूमता है कि ईरान की परमाणु क्षमता अकेले इजराइल के लिए ही खतरा नहीं बनती बल्कि वह अमेरिका के लिए भी खतरा साबित होती। इसके तत्काल बाद दिसंबर में यहूदी धर्म सुधार संघ के एक कार्यक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने स्पष्ट भी किया था कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम इजराइल ही नहीं, अमेरिका और पूरी दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरा है। इसी क्रम में ओबामा ने दिसम्बर 2011 में ही एक बार फिर अपने वक्तव्य में कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता में केवल अमेरिकी सुरक्षा नहीं, बल्कि इजराइल की सुरक्षा भी है और वे ईरान से उत्पन्न खतरे को हल करने की कोशिशों को आगे बढ़ाते रहेंगे। क्या उस वक्त ओबामा के वक्तव्यों में इस तरह के शब्द अनायास ही आए थे या वास्तव में ये वे रणनीतिक शब्द थे चुनाव बड़ी ही सावधानी से किया गया थाये शब्द बता रहे थे कि अमेरिका जल्द ही ईरान पर अपनी नीति में कुछ बदलाव लाने वाला है।

यहां पर एक बात और महत्वपूर्ण है, वह यह कि ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को लेकर अमेरिकी नीतियों पर जारी बहस में पिछले एक दशक से यादा समय से यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह किसका मुद्दा है? अर्थात इजराइल का या फिर अमेरिका का? इस संदर्भ में इजराइल के पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन की वह सलाह बेहद महत्वपूर्ण है जिससे वे अपने सहयोगियों को बचने के लिए कहा करते थे।  वे उनसे कहते थे कि ईरान के मसले पर वे कोई उकसाने वाला बयान न दें क्योंकि ऐसी स्थिति में दुनिया ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अकेले इजराइल की समस्या मान लेगी। इसलिए उनकी रणनीति अमेरिका पर यह दबाव बनाए रखने की होती थी कि वह अपने देश की चिंता करने से पहले इजराइल के हितों की चिंता करे। लेकिन अमेरिका के ही कुछ राजनीति विज्ञानी विशेषकर जॉन मियर शेमर और स्टीफन वाल्ट ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं से अमेरिका के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं है। यदि रूस, चीन और यहां तक कि दक्षिण कोरिया के भी नाभिकीय क्षमतायुक्त होने के बावजूद अमेरिका शांति से रह सकता है, तो ईरान के नाभिकीय क्षमता युक्त होने के बाद क्यों नहीं? यही कारण है कि इजराइल के अमेरिका समर्थकों को ईरान का विरोध करने के लिए अमेरिकी राजनेताओं पर लगातार दबाव बनाना पड़ रहा है। लेकिन एक बात तो है कि अमेरिका अपने  ऊपर आते संकट को देखे बगैर ईरान के साथ दबाव और समझौते की नीति बिल्कुल न अपनाता। इसलिए यह संभव हो सकता है कि ईरान की नाभिकीय क्षमता दोनों के लिए खतरा हो।  यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह मानना पड़ेगा कि इजराइल के हित अमेरिकी हितों के पूरक हैं इसलिए इजराइल के सामने आने वाला संकट दरअसल अमेरिका पर आने वाला संकट सिध्द होता, इसलिए अमेरिका को इस दिशा में प्रतिबध्दता के साथ कदम उठाना पड़ा।

लेकिन इसी अमेरिका ने दक्षिण एशिया में ऐसी ही शांति के लिए पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने का प्रयास नहीं किया, बल्कि उसे सम्पन्न होने दिया या फिर अप्रत्यक्ष रूप से उसे बढ़ावा दिया, क्योंजिस दौरान ईरान को जिस आधार पर एक्सिस ऑफ  एविल में शामिल किया जा रहा था उसी दौरान उसी आधार का नकारते हुए पाकिस्तान को क्लीन चिट दी जा रही थी जबकि वह परमाणु हथियार सम्पन्न भी था और आतंकवाद का एपीसेंटर भी। ईरान के मामले में तर्र्क  दिया गया कि ईरानी उन्मादी होते हैं। अगर उन्हें इजराइल का सिर मिले तो वे राष्ट्रीय हत्या करने से भी नहीं हिचकेंगे। लेकिन क्या पाकिस्तानी वास्तव में इतने शांत हैं कि कभी भी किसी को नुकसान पहुंचाए ही न? अगर ईरान अपना परमाणु बम हिजबुल्ला और हमास को सौंप सकता है तो पाकिस्तान भी अलकायदा और तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा या मदहे शहाबा जैसे आतंकी संगठनों के साथ ऐसा ही कर सकता है। अब तक की सूचनाओं के अनुसार पाकिस्तान पहले से ही अपने परमाणु कार्यक्रम को तेज किए हुए है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम भारत के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहा है। कई सूत्रों के अनुसार इस समय 70-90 अथवा 100 नाभिकीय हथियार हैं जिन्हें वह लगातार बढ़ाने की कोशिश में है। सीआईए के 'वीपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन' तथा 'एनर्जी डिपार्टमेंट' के डायरेक्टर ऑफ  इंटेलिजेंस के मुताबिक पाकिस्तान अगले दस वर्ष में 50 से 100 नाभिकीय बमों संबंधी अनुमानों की अपेक्षा कम से कम दो गुना न्यूक्लियर हथियार बना लेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि 'पी 5' का एक सदस्य चीन लगातार पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में शामिल है। अमेरिकी परमाणु वैज्ञानिकों थॉमस रीड और डैनी स्टिलमैन की पुस्तक 'न्यूक्लियर एक्सप्रेस' बताती है कि चीन ने 26 मई 1990 को अपने लोपनोर परीक्षण स्थल पर पाकिस्तान के लिए परमाणु परीक्षण किया था। लेकिन क्या उस कोई प्रतिबंध लगाया गया था?

बहरहाल ईरान का हौवा समाप्त होने के बाद देखना यह है कि दुनिया शांति की दिशा में कितने कदम आगे बढ़ पाती है?

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