सूचना
के अधिकार का मतलब है- सरकार के सच को जानने का अधिकार! यह अधिकार 2005 के
पहले तक सांसदों, विधायकों और पार्षदों तक सीमित था। वे सदन में
खड़े होकर प्रश्नोत्तर काल में सरकार को आड़े हाथों ले सकते थे, लेकिन
जनता बिलकुल निहत्थी थी। यदि किसी आम आदमी को सरकार के किसी विभाग से कोई जानकारी
चाहिए होती थी तो वह नहीं मिल सकती थी यानी सरकार केवल सांसदों और विधायकों के
प्रति ही जवाबदेह थी। जनता के प्रति नहीं। उस जनता के प्रति नहीं, जो
इन सांसदों और विधायकों को चुनकर भेजती है। अर्थात सरकार उसके असली मालिक को जवाब
देने के लिए बाध्य नहीं थी, लेकिन 2005 के सूचना का अधिकार कानून में यही नई बाध्यता कायम
कर दी गई है कि उसे जनता को जवाब देना
होगा।
सूचना
के अधिकार के अंतर्गत अब कोई भी नागरिक सरकारी काम-काज के बारे में जानकारी मांग
सकता है। वह एक अर्जी लिखे, 10 रुपए शुल्क भरे और 30
दिन के अंदर जवाब पाए। इस अधिकार का कुछ लोग दुरुपयोग भी करते हैं, लेकिन
इसने शासन-तंत्र के कान खड़े कर दिए हैं। अब मंत्री और नौकरशाह किसी मामले पर जब
भी कोई फैसला करते हैं तो वे अतिरिक्त सावधानी बरतते हैं। उन्हें डर लगा रहता है
कि सूचना के अधिकार के तहत अगर उनकी कारगुजारियां, सारी बातें जनता
के सामने आ गईं तो क्या होगा?
भ्रष्टाचार
तो अब भी जारी है, पक्षपातपूर्ण और गलत फैसले अब भी होते हैं,
लेकिन
अब उनको ढंकने का विशेष इंतजाम होता है। सबसे पहले तो इस कानून के अंदर ही छोड़ी
गई गलियों में से रास्ते निकाल लिए जाते हैं। कभी गोपनीयता का, कभी
राष्ट्रीय सुरक्षा का और कभी निजता का बहाना बना लिया जाता है और सूचनाओं पर कंबल
ढांक दिया जाता है। इसके अलावा अभी भारत की जनता भी इतनी जागरूक नहीं हुई है कि वह
बारीकियों में उतरकर सरकार को उसकी करतूतों का आईना दिखा सके। इसके बावजूद
सत्तारूढ़ दल और सरकार के नेता सूचना के अधिकार को भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी
उपलब्धि बताते हुए नहीं अघाते।
यदि
सचमुच लोकतंत्र का अर्थ जनता के लिए, जनता द्वारा जनता की सरकार है तो फिर
जनता को यह अधिकार क्यों नहीं मिलता कि वह सिर्फ सरकार ही नहीं, राजनीतिक
दलों की भी निगरानी करे। सरकारें तो अपने दलों की सेविकाएं होती हैं। सरकार में
बैठे नेतागण अपने पार्टी-नेताओं के इशारों पर नाचते हैं। सरकारों के असली मालिक तो
उनके राजनीतिक दल होते हैं। क्या हमारे देश के प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों
का चुनाव आम मतदाता करते हैं। वे तो चुने जाते हैं, नामजद किए जाते
हैं, उनकी पार्टियों के द्वारा, उनकी पार्टी के अध्यक्षों के द्वारा!
इसीलिए वे जो भी अच्छा या बुरा काम करते हैं, वह जाता है,
पार्टी
के खाते में! पार्टी ही चुनाव हारती और जीतती है।
सरकार
के मंत्री और नौकरशाह भी भ्रष्टाचार करते हैं, पार्टी की खातिर
ही! पार्टी को चलाने के लिए करोड़ों-अरबों की जरूरत होती है और चुनाव लडऩे के लिए
अरबों-खरबों की। यह जरूरत कौन पूरी करता है? यह पैसा कहां से
आता है, कैसे आता है? यह सरकार से आता है। चोर-दरवाजों से
आता है। जब मंत्रिगण रंगे हाथों पकड़े जाते हैं तो वे पार्टी-कोष का छाता तान लेते
हैं। जब उन्हें हटाने की हवा बहने लगती है तो वे पार्टी-अध्यक्ष से जाकर अपनी 'पार्टी-सेवा’
की
दुहाई देने लगते हैं।
वे
भ्रष्टाचार करते हैं, खुद के लिए भी, लेकिन उसकी सफाई
देते वक्त वे पार्टी-कार्यकर्ताओं की मांग पूरी करने का दम भरते हैं। पार्टी के
लिए कोष इकट्ठा करने के नाम पर बेहिसाब रिश्वतें ली जाती हैं। रिश्वत देने वालों
को अंधाधुंध फायदे दिए जाते हैं। रिश्वत देने वाले लोग रिश्वत लेने वाले मंत्रियों
से कहीं अधिक घाघ होते हैं। वे एक देते हैं तो बदले में दस ले लेते हैं। इसीलिए
सरकार में बेलगाम भ्रष्टाचार होता रहता है। सरकारी भ्रष्टाचार की जड़
पार्टी-भ्रष्टाचार में पलती है। पार्टी-भ्रष्टाचार सरकारी भ्रष्टाचार की अम्मा है।
पार्टी-भ्रष्टाचार इसलिए दबा रहता है कि उसका कोई सही हिसाब-किताब नहीं रखा जाता।
पैसे आने पर किसी को रसीद नहीं दी जाती और पैसा बांटने पर किसी से कोई पावती लिखाई
नहीं जाती। सब काम जबानी होता है। जो काम लिखित में होता है, वह
हाथी के दिखाने के दांत होते हैं। आयकर विभाग को कोई पार्टी दो हजार करोड़,
कोई
एक हजार करोड़ और कोई दो-तीन सौ करोड़ रु. की आमदनी दिखा देती है। ये दिखाने के
दांत हैं और जो खाने के असली दांत हैं, जरा उनके बारे में सोचिए। वे कितने
लाखों-करोड़ के होंगे? लाखों-करोड़ों नहीं, अरबों-खरबों के!
अरबों-खरबों
का यह भ्रष्टाचार क्यों ढंका-दबा रह जाता है? क्योंकि हमारे
ज्यादातर राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गए हैं। हमारी पार्टियों का
असली रूप क्या है? कोई मां-बेटा पार्टी है, कोई बाप-बेटा
पार्टी है, कोई पति-पत्नी पार्टी है, कोई
साला-जीजा पार्टी है, कोई बाप-बेटी पार्टी है। ये पार्टी-मालिक
अपने-अपने भ्रष्टाचारों पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं। ये टिकिट बांटने में पैसे
बटोरते हैं। पैसे का यह लालच पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को भी चकनाचूर कर देता
है। न तो पार्टी पदाधिकारियों का चुनाव विधिवत होता है न उम्मीदवारों का। वे ही
उम्मीदवार प्राथमिकता पाते हैं, जो मंत्री बनने पर पैसों के पेड़ बन
सकें ये उम्मीदवार चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्चे की सीमा का सरासर उल्लंघन
करते हैं। उस सीमा से 100-100 गुना ज्यादा खर्च करते हैं और फिर
सरकार में आने पर उसी खर्च को वे ब्याज समेत वसूलते हैं। सरकारी भ्रष्टाचार की जड़
यही है।
इसीलिए
सूचना का अधिकार राजनीतिक पार्टियों पर सबसे पहले लागू होना चाहिए था। राजनीतिक
पार्टियां सरकारों के मुकाबले कहीं अधिक सार्वजनिक होती हैं। सरकारी सच जानने से
भी ज्यादा जरूरी है, देश का राजनीतिक सच जानना। यदि राजनीति शुद्ध
हो जाए, यदि पार्टियों में आर्थिक शुचिता आ जाए तो सरकार को शुद्ध रखना
ज्यादा सरल होगा, लेकिन असली प्रश्न यह है कि क्या हमारे नेतागण
शुद्ध सरकार चाहते हैं? यदि चाहते होते तो राजनीतिक दलों को सूचना के
अधिकार के बाहर रखने पर ये सारे मौसेरे भाई एक क्यों हो गए? कोई दल तो बोलता
कि हम अपना सब सच सार्वजनिक करने को तैयार हैं? सारी पार्टियां
अपना पेट छिपाए क्यों बैठी हैं? पार्टी-सच, सरकारी-सच से
कहीं अधिक गंभीर होता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें