शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

सामाजिक बदलाव के दस साल

हाल के वर्षों में दुनिया भर की युवा सोच को जितना फेसबुक ने बदला है, उतना शायद ही मीडिया के किसी और साधन ने। ज्वलंत मुद्दों पर टिप्पणी से लेकर देश-दुनिया पर फौरी प्रतिक्रियाओं के मंच के रूप में इस सोशल नेटवर्किंग साइट का जवाब नहीं है।

नवोन्मेषी अमेरिकी युवा मार्क जुकरबर्ग और उनके साथियों ने एक दशक पहले जिसकी शुरुआत हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों को जोड़े रखने की वेबसाइट के तौर पर की थी, आज वह एक विशाल कंपनी है, जिसके 1.2 अरब से भी अधिक यूजर्स हैं।

जिस दौर में पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के खत्म होने की बात की जाती है, उस दौर में फेसबुक ने लोगों को अपने दोस्तों से जुड़ने, बात करने और तस्वीरें साझा करने की सुविधा उपलब्ध कराई है। जिन परिचितों से हमारे संबंध सूत्र वर्षों पहले छिन्न हो चुके हैं, फेसबुक पर उनसे मुलाकात के दृष्टांत तो असंख्य हैं।

यही नहीं, फेसबुक ने अरब वसंत को संभव बनाया, तो अभिव्यक्ति पर रोक के बावजूद चीन की तिब्बत पर दादागीरी को सार्वजनिक कर सोशल मीडिया के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका साबित की! पिछले एक दशक में हुए तकनीकी बदलाव ने भी इसे लोकप्रिय बनाने में बड़ी मदद की है।

अमेरिका में वयस्कों की एक तिहाई आबादी फेसबुक पर ही खबरें देखती है, तो अपने यहां के फेसबुक यूजर्स द्वारा आगामी लोकसभा चुनाव में सौ से अधिक सीटों के नतीजों को प्रभावित करने की संभावना जताई जा रही है। चाहे पटना में लालू यादव के बेटे तेजस्वी का अपने फेसबुक फ्रैंड्स से मिलने का उदाहरण हो या हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार एक फिल्म का फेसबुक पर भी रिलीज होने की ताजा घटना, ये सब हमारे सार्वजनिक जीवन में इसकी बढ़ती पैठ के ही उदाहरण हैं।


इन सबके बावजूद फेसबुक आभासी दुनिया को ही प्रतिबिंबित करता है, वह हमारे असली जीवन का विकल्प नहीं बन सकता। जब दुनिया की करीब दो तिहाई आबादी कंप्यूटर और इंटरनेट से वंचित है, तब फेसबुक को हमारे सामाजिक जीवन का आईना मानने का तो सवाल ही नहीं है। फिर आने वाले दिनों में फेसबुक की लोकप्रियता घटने की बात भी कही जा रही है। इसके बावजूद फेसबुक के जरिये हमारे जीवन में आए बदलाव की अनदेखी करना मुश्किल है।

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