शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

अंतरिम बजट : न समता, न विकास

वित्तमंत्री ने 2014-15 का अंतरिम बजट पेश करते हुए अपने भाषण का समापन एक बार फिर तिरुवेल्लुवर को उद्धरण के साथ किया। इसे उन्होंने नियम ही बना लिया है। बहरहाल, आने वाले आम चुनाव को देखते हुए जरूरी हो गए चार महीने के लिए लेखा अनुदान के लिए संसद के अनुमोदन का आग्रह करने के बजाय, उन्होंने सीधे-सीधे चुनावी प्रचार का ही रास्ता पकड़ लिया। उनके शब्द थे: ''मुझे यकीन है कि भारत की जनता जिम्मेदारी उस हाथ को सोंपेगी, जो 'समता की ओर झुकाव के साथ' राजदंड संभालेगा।''

लेकिन, बात इससे उल्टी है। भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों की जो तस्वीर उन्होंने पेश की है, यही दिखाती है कि कम से कम जनता के लिए तो हालात समता की दिशा में बढ़ने के बजाय, इससे उल्टी ही दिशा में बढ़ रहे हैं। आर्थिक मंदी जारी है यानी रोजगार के अवसर तेजी से सिकुड़ रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद में 4.8 फीसद की वृद्धि दर का जो अनुमान लगाया गया है, उसमें 4.6 फीसद की तो कृषि वृद्धि दर ही शामिल है। इस तरह, गैर-कृषि अर्थव्यवस्था गतिरोध की ही शिकार बनी हुई है। सच तो यह है कि पिछले दो वर्षों में, विनिर्माण सूचकांक और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक, दोनों नकारात्मक वृद्धि दरें ही दर्ज कराई हैं। खाद्य मुद्रास्फीति, वित्त मंत्री ने खुद माना कि ''अब भी मुख्य चिंता'' का कारण बनी हुई है। मुद्रास्फीति और रोजगार संकुचन के दुहरे हमले ने एक कहीं ज्यादा असमानतापूर्ण समाज गढ़ा है।

यह दावा चलने वाला नहीं है कि राजकोषीय सुदृढ़ीकरण हुआ है क्योंकि राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 4.6 फीसद के स्तर पर रहने का अनुमान है, जबकि वृद्धि दर 4.8 फीसद रहने जा रही है। कुल कर राजस्व 2013-14 के बजट अनुमानों के मुकाबले 76,964 करोड़ रुपए नीचे चला गया है। कर राजस्व की सभी मदों में यानी नैगम, आय, उत्पाद शुल्क तथा सेवा कर, सभी मदों में एक सिरे से लगाकर गिरावट हुई है। इस तरह, राजकोषीय घाटे पर कथित रूप से अंकुश लगाए जाने का कमाल, बजटित खर्चों में और खासतौर पर सामाजिक क्षेत्र के बजटित खर्चों में भारी कटौतियों के बल पर ही किया गया है। संशोधित अनुमान दिखाते हैं कि कुल केंद्रीय योजना आबंटन, बजट अनुमान के मुकाबले 66,000 करोड़ रुपए घट गया है। केंद्रीय योजना के लिए बजट सहायता 63,575 करोड़ रुपए घट गई है। इसी तरह राज्यों केंद्र शासित क्षेत्रों के  योजना खर्च के लिए केंद्रीय सहायता 17,215 करोड़ रुपए घटा दी गई है। इस तरह, खर्चों में भारी कटौतियां थोपकर ही राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाया गया है। दूसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था के बजटीय संकुचन के हथियार से ही राजकोषीय सुदृढ़ीकरण हासिल किया गया है।

प्रमुख सब्सीडियों में रुपयों में जो बढ़ोतरी दिखाई गयी है, अगर मुद्रास्फीति को हिसाब में लिया जाए तो वास्तव में काफी कम बैठती है। ये सब्सीडियां 2013-14 के बजट वाले अनुपात में यानी 12 फीसद के स्तर पर ही हैं। इस सब का अर्थ यह हुआ कि 2013-14 में रोजगार के अवसर उल्लेखनीय हद तक सिकुड़े हैं जबकि संकट की मारी जनता के लिए वित्तीय मदद में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है।

वित्त मंत्री ने त्यागे गए राजस्व के संबंध में सालाना ब्यौरा ही नहीं देने का रास्ता अपनाया है। याद रहे कि प्रणब मुखर्जी ने बजट के साथ यह ब्यौरा देने की परंपरा शुरू की थी और पिछले तीन साल से हरेक  बजट में यह ब्यौरा दिया जाता रहा था। बहरहाल, राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में (11 फरवरी 2014), यह बताया गया कि नैगम तथा आय कर की मदों में ही परित्यक्त राजस्व 2012 के दिसंबर तक ही 4.82 लाख करोड़ रुपए पहुंच चुका था और 2013 के दिसंबर तक 5.10 लाख करोड़ रुपए हो गया था। बहरहाल, संपन्नों तथा उद्योग जगत को दी जाने वाली इन सब्सीडियों को विकास के लिए 'प्रोत्साहन' का सम्मानजनक नाम दिया जाता है! याद रहे कि इस तरह के 'प्रोत्साहन' गरीबों को तथा हाशिए पर पड़े लोगों को विभिन्न मदों में दी जाने वाली तमाम सब्सीडियों से दोगुने से भी ज्यादा बैठते हैं। इन प्रोत्साहनों के बावजूद कोई अतिरिक्त निवेश नहीं हुए हैं जो विकास को गति देते क्योंकि इन निवेशों के जरिए जो कुछ पैदा हो सकता था, उसे खरीदने के लिए जनता के हाथों में क्रय शक्ति ही नहीं है। इसी का नतीजा है कि प्रोत्साहनों के नाम पर अमीरों को इन सब्सीडियों के जरिए लुटाया जा रहा पैसा, सट्टेबाजार निवेशों के ही रास्ते पर जा रहा है। इसीलिए तो अचल संपत्ति, सोने तथा विदेशी मुद्रा के दाम में भारी बढ़ोतरियां हुई थीं और इनमें से आखिरी के चलते तो रुपए का भारी अवमूल्यन हुआ था। इस तरह, अपने वर्गीय चरित्र के प्रति सच्ची बनी रहकर यूपीए-द्वितीय की सरकार अमीरों को कर रियायतें देने और गरीबों पर ज्यादा बोझ लादने के सूत्र पर चल रही है। 'और ज्यादा समानता' के दावों के पीछे छिपी हकीकत यही है।

विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए उत्पाद शुल्कों में कटौतियां करने का असर, घरेलू मांग में भारी बढ़ोतरी के बिना बहुत ही तत्कालिक ही रहेगा। लेकिन, घरेलू मांग में उल्लेखनीय बढ़ोतरी तो दूर, राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के चक्कर में घरेलू मांग में भारी संकुचन ही हुआ है। दूसरी ओर तटकर संरक्षण में कमी करने का जो एलान किया गया है, घरेलू विनिर्माण क्षेत्र पर प्रतिकूल असर ही डालने जा रहा है।

अनावश्यक आयातों पर अंकुश लगाने के बजाय और ज्यादा विदेशी निवेश आकर्षित करने के जरिए ही चालू खाता घाटे (सी डी) पर अंकुश लगाने के रास्ते पर चलने पर ही जोर है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय सट्टेबाजाराना पूंजी प्रवाहों के सामने और कमजोर करने का ही काम करेगा। सच्चाई यह है कि बढ़ते चालू खाता घाटे पर अंकुश लगाने में जो थोड़ी सी भी सफलता हासिल हुई है, मुख्यत: सोने पर आयात शुल्क में बढ़ोतरी किए जाने के जरिए ही हासिल हुई है। कुल मिलाकर यह कि सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी करने तथा इस तरह रोजगार सृजित करने तथा इसके माध्यम से घरेलू मांग में बढ़ोतरी लाने और इस रास्ते से विनिर्माण क्षेत्र में नयी जान डालने तथा उद्योग के विकास को उत्प्रेरण देने का रास्ता अपनाने के बजाय, यह अंतरिम बजट अर्थव्यवस्था पर और ज्यादा संकुचन थोपने तथा जनता पर और ज्यादा बोझ लादने के जरिए, संकट को और बढ़ाने का ही रास्ता बनाता है। आज की विश्व आर्थिक परिस्थिति में, जब आर्थिक मंदी जारी है, विदेशी पूंजी के और ज्यादा प्रवाह आने की उम्मीद करना सिर्फ गैर-यथार्थवादी है बल्कि यह विदेशी वित्तीय पूंजी तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रवाहों को लुभाने के लिए भांति-भांति के अतिरिक्त कदम उठाए जाने के रास्ते पर ही ले जाएगा। यह भारत को, विश्व वित्तीय सट्टाबाजार के सामने और ज्यादा कमजोर भी करेगा और घरेलू विनिर्माण को कमजोर भी करेगा।

इस तरह, भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट आने वाले दिनों में और बढ़ने ही जा रहा है। चालू खाता घटा, वहनीय स्तर से बहुत ज्यादा है। दूसरी ओर, ऋण संबंधी भुगतानों का बोझ कुल राजस्व प्राप्तियों के पूरे 36.93 फीसद के स्तर पर पहुंच गया है। यह स्तब्ध करने तरीके से 1991 के जैसे हालात को ही दिखाता है, जिनकी पृष्ठभूमि में हमारे देश पर उदारीकरण के आर्थिक सुधार थोपे जाने का दौर यानी मनमोहनी अर्थशास्त्र का दौर शुरू हुआ था। ऐसा लगता है कि हम जहां से चले थे, घूमकर वहीं पहुंचे हैं।

यह किसी नीतिगत पंगुता का परिणाम नहीं है, जैसा कि भाजपा दिखाना चाहती है। यह तो सीधे-सीधे नवउदारवादी सुधार की नीति का ही नतीजा है। यह नीति साहस के साथ सार्वजनिक निवेशों के सहारे अर्थव्यवस्था का विस्तार करने के बजाय, जो कि हमारी अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने का एकमात्र रास्ता है, आर्थिक संकुचन थोपने की ही नीति है। सच्चाई यह है कि आज हमारे देश की सत्ताधारी पार्टी और मुख्य विपक्षी पार्टी, दोनों ही भारत की घरेलू आर्थिक बुनियादों को कमजोर करने तथा जनता पर और ज्यादा बोझ लादने की कीमत पर, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को खुश करने के ही रास्ते पर चल रही है।


समता के साथ अर्थव्यवस्था में नयी गति पैदा करने के लिए जरूरत है ऐसी वैकल्पिक नीतिगत दिशा की, जो सार्वजनिक निवेशों की भारी खुराक के जरिए हमारे घरेलू बाजार का विस्तार करे। भारत की जनता 2014 के आम चुनाव के बाद, ऐसे ही वैकल्पिक नीतिगत रास्ते पर चले जाने की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा कर रही है।                                                             

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