उपभोग और उत्पादन
की परिघटनाएं अनंतकाल
से विद्यमान हैं
यद्यपि उनके स्वरूप
में निरंतर परिवर्तन
होते रहे हैं।
मनुष्य हो या
अन्य कोई प्राणी,
हर किसी को
जिन्दा रहने के
लिए कतिपय पदार्थों
की जरूरत हमेशा
रही है। आरंभिक
दिनों में मनुष्य
फल एवं कंदमूल
बटोर और अन्य
जीवों का शिकार
कर जिंदा रह
सका। बटोरने और
शिकार करने की
प्रक्रिया को उत्पादन
का नाम दिया
गया।
कालक्रम में उत्पादन
और उपभोग के
स्वरूप में बदलाव
आए। मनुष्य
कृषि एवं पशुपालन
से जुड़ा। जहां
तक उपभोग का
संबंध है उसमें
भी बदलाव आया।
मनुष्य प्रकृति से प्राप्त
वस्तुओं का यों
का त्यों इस्तेमाल
करने के बदले
नमक और मसालों
के साथ खाने
लगा। उसने पहनने-ओढ़ने की
वस्तुओं में इस
प्रकार परिवर्तन किए जिससे
अपनी आवश्यकताओं को
बेहतर ढंग से
संतुष्ट कर सके।
उत्पादन के पैमाने
चरित्र और स्वरूप
में बदलाव हुए। इस
प्रकार उपभोग मानवीय दशा
का दर्पण बन
गया। इतिहास इंगित
करता है कि
उपभोग सर्जनात्मकता का
स्रोत और सामाजिक
संबंधों और मनुष्य
की पहचान का
आधार बन गया।
उपभोग में क्या
कुछ शामिल होता
है यह बहुत
कुछ पर्यवेक्षक पर
निर्भर होता है।
1980 के दशक में
कई लोगों ने
इसे 'शापिंग' से
जोड़ा जिसके बाद
'उपभोग' शब्द का
निहितार्थ इतना व्यापक
हो गया कि
उसके अंतर्गत खरीदारी
के अतिरिक्त इच्छा
उत्पति की प्रक्रिया
के साथ ही
अपव्यय और रिसाइक्लिंग
जैसी परिघटनाएं आ
गईं।
प्रारंभ में उपभोग
को पूर्ण तथा
उत्पादन का विपरीतार्थक
माना जाता रहा।
यह धारणा व्यापक
थी कि उत्पादन
जहां सृजन करता
है वहीं उपभोग
सृजित वस्तुओं को
समाप्त कर देता
है। रेमंड
विलियम्स के अनुसार
'कंयूम' शब्द नष्ट
करने, समाप्त करने,
इस्तेमाल कर लेने
और खपा देने
का पर्याय होता
था। इसी कारण
वह क्षय रोग
का भी द्योतक
बन गया।
'उपभोक्ता' शब्द का
प्रयोग भी इसी
व्यापक अर्थ में
सोलहवीं सदी से
होने लगा। अठारहवीं
सदी के मध्य
से इसमें तब
बदलाव दिखा जब
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संदर्भ
में इसका इस्तेमाल
बाजार के बढ़ते
वर्चस्व के तहत
होने लगा।
जो भी हो,
अप्रीतिकर निहितार्थ उन्नीसवीं सदी
के आरंभ तक
बने रहे। बीसवीं
सदी के मध्य
से 'उपभोग' और
'उपभोक्ता' शब्द आम
बोलचाल में आ
गए। तब से
'ग्राहक' या 'खरीदार'
के लिए 'उपभोक्ता'
शब्द का प्रयोग
होने लगा।
यदि हम
पीछे मुड़कर देखें
तो पाएंगे कि
उपभोग के इतिहास
के दो कालखंडों
में बांटा जा
सकता है। पहले
कालखंड का आरंभ
सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दियों के
दौरान होता है
जब उपभोग एक
महत्वपूर्ण तत्व के
रूप में आता
है। दूसरा कालखंड
द्वितीय विश्वयुध्द के उपरांत
आरंभ होता है
जब उपभोक्ता समाज
का वर्चस्व बढ़ता
है।
आधुनिक उपभोक्ता समाज
का उद्भव अमेरिका
में हुआ। बाद
में वह सारी
दुनिया में फैला।
अमेरिका ने अपने
यहां पनपे उपभोक्ता
समाज के मॉडल
को शीतयुध्द के
दौरान पश्चिमी यूरोपीय
देशों को निर्यात
कर उसे अपनाने
पर बल दिया।
कहा गया कि
वही विकास के
सोवियत मॉडल का
एकमात्र प्रभावकारी विकल्प है।
सोवियत मॉडल में
अपरिग्रह और समानता
पर जोर था
जबकि उपभोक्ता समाज
का अमेरिकी मॉडल
रेखांकित करता है
कि उपभोग को
बढ़ावा दिया जाय
जिससे वस्तुओं और
सेवाओं की मांग
बढेग़ी। उपभोग को बढ़ावा
देने के लिए
बेहतर वस्तुएं समाज
में लाई जाएंगी।
विज्ञापनों के जरिए
संभावित उपभोक्ताओं को आकर्षित
किया जाएगा।
उपर्युक्त अमेरिकी मॉडल
के विषय में
कहा गया कि
वह 'समृध्द समाज'
लाएगा। हर कोई
अपनी उपभोक्तावादी पहचान
प्राप्त करने की
कोशिश करेगा। अमेरिका
को ध्यान में
रखकर कहा गया
कि वह इसी
के जरिए विकास
के मार्ग पर
अग्रसर हुआ है।
द्वितीय विश्वयुध्द के
उपरांत, विशेषकर 1950 और 1960 के दशकाें
के दौरान, उपभोक्ता
समाज पर कोई
उंगली नहीं उठाई
गई। उसको लेकर
जरूर बहस चली
कि वह किस
हद तक जनहित
में है। एक
तरफ डब्लू.डब्लू.
रोस्टोवा ने कहा
कि वह चयन
की आजादी को
बढ़ावा दे मुक्त
समाज को मजबूत
करेगा वहीं गालब्रेथ
और वांस पैकार्ड
जैसों ने इसका
विरोध किया कि
इससे कृत्रिम आवश्यकताएं
पनपेंगी और सार्वजनिक
जीवन में घटिया
किस्म का व्यक्तिवाद
बढेग़ा।
नील मैकेंद्रिक
ने पाया कि
अठारहवीं सदी में
इंग्लैंड द्वारा भी ऐसे
दावे किए गए
थे। उनके अनुसार
इस मॉडल के
साथ जुडे अवयव
जैसे चयन, बाजार,
फैशन और स्वनिर्णयगत
आय में वृध्दि
देखने को मिले।
औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप
उत्पादन नवनिर्मित कारखानों में
मशीनों और व्यापक
श्रम-विभाजन एवं
विशेषीकरण के आधार
पर होने लगा
था। रोशनी और
ऊर्जा के नए स्रोतों
के उपलब्ध होने
से उत्पादन की
प्रक्रिया बेरोक-टोक चलने
लगी। मैकेंद्रिक ने
इस कारण-कार्य
को उलट दिया
और कहा कि
उत्पादन के स्वरूप
के व्यापक बनने
के पीछे उपभोग
का व्यापक होना
था। औद्योगिक क्रांति
होने के पहले
ही चाय, सूती
कपड़ों, चीनी मिट्टी
के बर्तनों आदि
का उपयोग बड़े
पैमाने पर होने
लगा था। फैशन
से जुड़ी पत्रिकाओं
और विपणन की
रणनीतियों की अहम्
भूमिका थी। यह
निष्कर्ष रखा गया
कि 'उपभोग क्रांति'
ने 'औद्योगिक क्रांति'
को जन्म दिया।
कई इतिहासकारों
ने 'उपभोक्ता समाज'
को पीछे ढकेलने
के प्रयास आरंभ
किए। पुनर्जागरण से
जुडे लोगों ने
उपभोक्ता क्रांति के चिन्ह
और लक्षण इटली
में ढूंढने की
कोशिश की। वस्तुओें
की नीलामी, वायदा
खरीद, और निजी
स्रोतों से मिलने
वाले ऋणों की
भरपूर उपलब्धि ने
उपभोग को बढ़ाया।
अप्रैल 2012 में प्रकाशित
क्लेयर हाल्वेरन की पुस्तक
'शापिंग इन एशियंट
रोम' में प्राचीन
रोम के उपभोक्ता
समाज की एक
झलक देखने को
मिलती है।
शीतयुध्द समाप्त होने
के दो दशक
बाद समाज विज्ञानियों
ने पूर्वाग्रह त्याग
उपभोक्ता समाज पर
नए सिरे विचार
आरंभ किया है।
उन्होंने उपभोक्ता समाज को
बनाए रखने और
आगे बढ़ाने से
जुड़े अनेक नए
प्रश्नों की ओर
अपना ध्यान दिया।
आर्थिक संवृध्दि की सीमाओं
तथा पर्यावरण को
लेकर चिंताएं व्यक्त
की जाने लगीं।
वर्तमान उपभोक्ता समाज
का मॉडल अमेरिका
में तैयार कर
अन्यत्र निर्यात किया गया
जिससे सोवियत संघ
के प्रति बढ़ते
आकर्षण से निबटा
जा सके। स्पष्टतया 'उपभोक्तावाद'
और 'अमेरिकीकरण' परस्पर
पर्याय बन गए।
कई लोग उपभोक्ता
समाज के अमेरिकी
मॉडल के निर्यात
को अन्य देशों
पर अमेरिकी वैचारिक
आक्रमण के रूप
में लेते हैं।
परिणामस्वरूप अन्य देशों
की अपनी परंपराओं,
जीवन शैलियों तथा
सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की
अपूरणीय क्षति हुई है।
स्पष्टतया, उपभोग केवल
आवश्यकताओं को ही
संतुष्ट नहीं करता
बल्कि उपभोक्ता विशेष
की सामाजिक-शक्ति
और स्थिति को
भी रेखांकित करता
है। इसी से
प्रदर्शन उपभोग की परिघटना
आई है जिसे
पहले पहल थोर्स्टीन
वेबलेन ने उन्नीसवीं
सदी के अंत
में विस्तार से
रखा। आगे चलकर
उपभोग को सामाजिक
विभेदीकरण और असमानता
का जनक माना
गया। ऐसी वस्तुओं
और सेवाओं के
उपभोग की ओर
लोग उन्मुख हुए
जिससे समाज के
अन्य सदस्यों और
वर्गों पर उनका
रौब जमे और
वे अपने को
श्रेष्ठतर दिखा सकें।
इस कारण वस्तुओं
और सेवाओं का
उपभोग उनके 'प्रतीक
मूल्यों' के वजह
से भी होने
लगा।
इन उपभोक्ताओं
के मुकाबले आने
की ललक समाज
के निचले पायदानों
पर बैठे लोगों
में भी जगी।
इससे उपभोक्ता संस्कृति
को बढ़ावा मिला
और 'उपभोक्तावाद' की
परिघटना का जन्म हुआ।
अलग-अलग जगह
इस होड़ की
अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न रूपों
में देखी गई। कई
जगह उच्चतर हैसियत
वालों ने बड़ी
गाड़ियां खरीदने और उनपर
ऐसे नम्बर लगवाने
की होड़ अन्य
लोगों में दिखी
जिससे सड़क पर
निकलते ही आम
लोगों को आकर्षित
करे। इन आकर्षक
नम्बरों को प्राप्त
करने के लिए
राजनीतिक दबाव और
रिश्वत का सहारा
लिया गया। कतिपय
देशों में इस
प्रवृत्ति को भोंडा
करार देने वाले
भी देखे गए।
वहां परंपरागत समृध्द
लोगों ने नवधनाढयों
से अपने को
अलग करने के
प्रयास किए।
औद्योगिक क्रांति के
बाद वस्तुओं और
सेवाओं का उत्पादन
तेजी से बढ़ा।
उत्पादकों ने खरीदारों
की संख्या बढ़ाने
के लिए विज्ञापन
का सहारा विभिन्न
रूपों में लिया।
पत्र-पत्रिकाओं, प्रदर्शनियाें
फिल्मों, नाटकों, रेडियो, टेलीविजन
एवं व्यक्तिगत संदेशों
के जरिये संभावित
ग्राहकों को आकर्षित
करने की मुहिम
देखी गई। संभावित
ग्राहकों के मानस
को इस प्रकार
प्रभावित किया जाने
लगा कि वे
आवश्यकता हो या
न हो, वे
वस्तु विशेष को
प्राप्त करने के
लिए ललकें। वस्तु
के गुणों को
बढ़ा-चढ़ाकर विज्ञापित
किया जाने लगा।
प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़
गई कि वे
एक-दूसरे की
वस्तुओं से बेहतर
बताने की कोशिश
करने लगे। छद्म
आवश्यकताओं का सृजन
किया गया। कालक्रम में एक
'संस्कृति उद्योग' पनपा जिसने
उपभोक्तावाद को नए
आयाम दिए। उसने
महिलाओें की ओर
विशेष ध्यान दिए
और यह बतलाने
की कोशिश की
गई कि वे
उपभोक्तावाद के जरिए
अपनी एक अलग
पहचान बना सकती
हैं।
उन्नीसवीं सदी के
अंतिम दशकों के
दौरान महिलाएं खदीदार
के रूप में
सामने आईं। पेरिस
के बॉन मार्च
और लंदन के
सेलफ्रिजेज जैसे डिपार्टमेंट
स्टोर्स ने महिला
खदीदारों को आकर्षित
करने के विशेष
प्रयास किए।
अल्फे्रड मार्शल ने
उपभाग की कल्पना
एक सीढ़ी के
रूप में की
थी जिसमें हर
निचला पायदान आदतों
और इच्छाओं से
प्रेरित होकर अगले
पायदानों की ओर
ले जाता है।
विलियम स्टेनले जेवंस ने
1870 के दशक के
दौरान उपभोग को
मूल्य-सृजन की
प्रक्रिया के केंद्र
में रखा और
व्यक्तिगत चयन पर
जोर दिया। उन्होंने
माना कि उपभोग
बर्बाद करने की
प्रक्रिया का पर्याय
है। उपभोग के
परिणामस्वरूप वस्तु का अस्तित्व
समाप्त हो जाता
है।
पिछले कुछ दशकों
के दौरान ही
उपयोग के अध्ययन
के क्रम में
सांस्कृतिक, भूमंडलीय, और भौतिक
इतिहास से जुड़े
आयामों का समावेश
हुआ है। हाल
के वर्षों के
दौरान समृध्दि और
उपभोग पर पड़ने
वाले प्रभाव को
लेकर विशेष चर्चाएं
हो रही हैं।
कई लोग उपभोग
के वर्तमानस्वरूप को
समृध्दि जन्म बीमारियों
के रूप में
देखते हैं। मोटापा, मधुमेह, हृदयरोग
आदि को इनमें
शामिल किया जाने
लगा है।
बीसवीं सदी के
उत्तरार्ध से उपभोग
को हेराफेरी, चालबाजी,
निजता, अविरोध, असंगति और
कष्ट से उसके
जुड़ाव को रेखांकित
किया गया है।
जबकि पहले उसे
सर्जनात्मकता, निजी शैली
और आकर्षक नवीनता
और आनंद को
प्रतीक माना जाता
रहा।
द्वितीय विश्वयुध्द के
उपरांत उपभोग की वस्तुओं
में विविधता घटी। विज्ञापनों,
फिल्मों, टे्रडमार्क वाली वस्तुओं
का प्रचार-प्रसार
हुआ। यदि हम
अपने आसपास नजर
दौड़ाएं तो पाएंगे
कि मैक्स वेबर
के जमाने का
मितव्ययी, अनुशासित और सादा
जीवन बिताने वाले
कबके विदा हो
चुके हैं। उनकी
जगह जो उपभोक्ता
आए हैं उनका
जोर वस्तुओं के
इस्तेमाल से अपनी
शान-शौकत, सामाजिक
हैसियत और आर्थिक
स्थिति के प्रदर्शन
पर वही अधिक
हैं। वे अपने
को समाज के
अन्य लोगों से
अलग दिखलाने की
पुरजोर कोशिश करते हैं।
अब उत्पादक के
बदले उपभोक्ता समाज
का केन्द्रबिंदु बन
गया है। खाद्य
पदार्थ अब सिर्फ
कैलोरी के आधार
पर ही नहीं
देखे जाते हैं।
उनके प्रतिष्ठा और
प्रतीक मूल्यों पर भी
ध्यान दिया जाता
है। कहना न
होगा कि वर्ग
आधारित समाज में
उपभोग हाशिए से
निकलकर उसकी नींव
के रूप में
प्रतिष्ठित हुआ है।
महिलाओं का महत्व
उपभोग की प्रक्रिया
के आयोजन और
संचालन की दृष्टि
से अहम् हो
गया है।
नेहरू-इंदिरा के
जमाने की तुलना
में भारत का
वर्तमान उपभोक्ता व्यय करने
तथा तड़क-भड़क
से रहने में
कोई हिचकिचाहट नहीं
दिखला रहा। शहरी
समाज में बचत
पर पहले जितना
जोर नहीं है।
क्रेडिट कार्ड ने शहरी
उपभोक्ता को वर्तमान
आय और उसके
आधार पर ऋण
लेने की क्षमता
के घेरे से
बाहर ला दिया
है। शहर का
नवोदित मध्यवर्गीय व्यक्ति एक
से अधिक क्रेडिट
कार्ड रखने लगा
है।
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