रविवार, 23 फ़रवरी 2014

फांसी पर राजनीति

सर्वोच्च न्यायालय ने लगभग एक माह पहले फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने के स्पष्ट दिशा-निर्देश बताए थे। जिसमें एक प्रमुख बात यह थी कि अगर फांसी की सजा प्राप्त कैदी की दयायाचिका पर लंबे अरसे तक निर्णय नहींलिया गया है तो उसे उम्रकैद में बदल दिया जाना चाहिए। इसी आधार पर 15 लोगों की मौत की सजा उम्रकैद में बदल दी गई थी और तब से कुछ और सजायाफ्ता कैदियों पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार देश को था, इसमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे भी शामिल थे। मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय ने राजीव गांधी की हत्या के दोषी तीन लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने का निर्णय सुनाया और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने बिना देरी किए अगले ही दिन श्री गांधी की हत्या के दोषी सभी लोगों की रिहाई का फैसला कर लिया। जिस पर केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी। यह सही है कि जिन तीन कैदियों की फांसी आजीवन कारावास में बदली, उनकी दया याचिका पिछले 11 वर्षों से लंबित थी, और सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के मुताबिक उनके संबंध में जो निर्णय लिया गया उसके ठोस न्यायिक और संविधानिक आधार हैं। यहां यह भी गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उम्र कैद का मतलब जीवनपर्यंत कारावास बताया था। किंतु सुश्री जयललिता ने फांसी की सजा पाए तीन कैदियों समेत सभी सात दोषियों की रिहाई के संबंध में जो जल्दबाजी दिखाई, उसके पीछे न्यायिक, संविधानिक या मानवीय कारण नहींबल्कि विशुध्द राजनैतिक कारण दिखाई दे रहे हैं।

तमिलनाडु में क्षेत्रवाद, भाषावाद किस कदर अपनी जड़ें जमाए हुए है, इसकी अलग से व्याख्या की आवश्यकता नहीं। विगत कई वर्षों से एमडीएमके के वाइको, द्रमुक के करुणानिधि और अन्नाद्रमुक की जयललिता सभी अपने-अपने स्तर पर तमिल भावनाओं को भुनाते रहे हैं। पूर्व उल्लेखित दोनों दल इस मामले में थोड़े अधिक उग्र हैं, जबकि जयललिता ने बीते कुछ बरसों से तमिल क्षेत्रवाद की राजनीति पर अधिक ध्यान देना प्रारंभ किया है। चूंकि आम चुनाव निकट हैं और जयललिता भावी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखती हैं, तो उन्होंने इस बार तमिल भावनाओं को भुनाने में जल्दबाजी दिखाई और इसके पहले कि वाइको या करुणानिधि के दल राजीव गांधी के हत्यारों पर कोई राजनीतिक चाल चलते, उन्होंने सातों कैदियों की रिहाई का फैसला लेकर सबसे बड़ा तमिल रहनुमा बनने का दांव चल दिया है। इस दांव से उन्हें कितना लाभ मिलता है और विपक्षी दल इसका जवाब कैसे ढूंढते हैं, यह बाद में पता चलेगा। किंतु इससे राष्ट्रीय हितों और न्यायालय की भावना की जो अनदेखी हुई है, उसका नुकसान अवश्य देश को उठाना पड़ेगा। फांसी पर राजनीति की चाल इस देश के लिए अभिशाप की तरह बनती जा रही है। अफजल गुरु की फांसी पर भी सियासत चली और हाल के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कश्मीर के राजनेताओं ने फिर उस पर बयानबाजी प्रारंभ की, जबकि वे जानते हैं कि इससे स्थितियां और उलझेंगी। इसी तरह पंजाब में बेअंत सिंह की हत्या के दोषियों पर राजनीति चली, जिसका नुकसान अंतत: जनता को ही भुगतना पड़ता है। बहुविध संस्कृतियों वाले भारत में क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण जब हत्या के आरोपियों का महिमामंडन कुछ लोग करने लगें, या उन्हें निर्दोष बताने के लिए जोड़-तोड़ करने लगें तो इससे उन्हें क्षणिक राजनीतिक लाभ अवश्य मिल सकता है, लेकिन देश को दीर्घकालिक हानि ही होगी।


सर्वोच्च न्यायालय ने जो दिशा-निर्देश दिए थे, उसके पीछे सभ्यता के विकास में काफी आधुनिक हो चुके समाज की यह मान्यता काम कर रही है कि जहां तक हो सके किसी को मौत की सजा मिले, क्योंकि हम किसी को जीवन दे नहींसकते, तो लेने का अधिकार भी नहींहै। मानवाधिकार की सोच इस फैसले के पीछे है। भारत में ऐसी ही सोच के चलते दुर्लभतम मामलों में ही फांसी का प्रावधान है, वह भी लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद। लेकिन इसका यह अभिप्राय कतई नहींहै कि न्यायपालिका की उदार, तर्कसम्मत दृष्टि का अनुचित लाभ राजनीतिक दल उठाएं और जनभावनाओं को भड़काएं।

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