भारत में वीवीआइपी की श्रेणी में केवल
तीन पद हैं-राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति
और प्रधानमंत्री,
परंतु
वीआइपी की सूची बड़ी लंबी है। वीआइपी अपने लिए विशेषाधिकारों की मांग जोर-शोर से
उठाते रहते हैं। सांसदों का वर्ग ऐसा है कि वे अपनी तनख्वाह तथा सुविधाएं स्वयं तय
करते हैं। साथ-साथ अपने विशेषाधिकार भी स्वयं ही परिभाषित करते हैं। इस साल
महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के ठीक एक दिन पहले यह खबर आई कि नागरिक उड्डयन
महानिदेशालय ने निजी एयरलाइनों को आदेश जारी किया है कि एयर इंडिया की तरह वे भी
सांसदों की खातिरदारी करें। 10 दिसंबर, 2013 को उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि केवल संवैधानिक पदों पर
आसीन अधिकारियों को ही गाड़ी में लालबत्ती के इस्तेमाल की इजाजत होनी चाहिए। अदालत
ने स्पष्ट किया कि आपातकालीन सेवाओं में इस्तेमाल होने वाली गाड़ियों में नीली
बत्ती लगाई जा सकती है।
लोकतंत्र का अभ्युदय ही सामंतवाद के
विद्रोह के रूप में हुआ। लोकतंत्र समता और समानता के सिद्धांत पर आधारित है, जो प्रजा को नागरिक बना देता है। जहां
विकसित लोकतंत्रों में मंत्री और सांसद आम आदमी की तरह घूमते नजर आते हैं वहीं भारत
में सामंती विशेषाधिकारों को पुनस्र्थापित करने की कोशिशें जारी हैं। हर राजनीतिक
पार्टी और सरकार आम आदमी की बात करती है, किंतु आम जन तथा अभिजन के फर्क को बढ़ाने का काम भी लगातार चलता रहता
है। बराबरी का सिद्धांत सबसे पहले 1776 के अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में आया, क्योंकि वहां सामंतवाद का कोई इतिहास
नहीं था। 1787 के अमेरिकी संविधान में समानता का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया, हालांकि अश्वेतों को उनका हक नहीं दिया
गया। यह नस्ल के आधार पर भेदभाव जरूर था, लेकिन संवैधानिक स्तर पर समानता के सिद्धांत को स्वीकृति प्राप्त
हुई। फ्रांसीसी क्त्रांति ने अभिजन और आमजन की दूरी को पाटने का काम किया। रूसो ने
अपनी पुस्तक सोशल कांट्रेक्ट में आम इच्छा की बात कही, जिससे फ्रांसीसी क्त्रांति को प्रेरणा
मिली। एडमंड बर्क ने इस क्त्रांति के विरुद्ध ब्रिटिश संसद में भाषण दिया और एक किताब
भी लिख डाली कि सत्ता विशिष्ट लोगों के हाथ में बनी रहनी चाहिए। इसके जवाब में
थॉमस पेन की चर्चित पुस्तक राइट्स ऑफ मैन (1791) प्रकाशित हुई। पेन ने फ्रांसीसी
क्त्रांति का जोरदार समर्थन करते हुए लिखा कि यदि सरकार आम आदमी के हितों की रक्षा
करने में नाकामयाब रहती है तो जनता को हक है उसके विरुद्ध आंदोलन करने। पेन के
विरुद्ध ब्रिटेन में देशद्रोह का मुकदमा उनकी अनुपस्थिति में चला और उन्हें फांसी
की सजा सुनाई गई,
किंतु
फांसी दी नहीं जा सकी, क्योंकि
वह फ्रांस में थे।
ब्रिटेन में वैसे तो लोकतंत्र का
प्रारंभ 1688 की क्त्रांति से ही माना जाता है, परंतु वह सम्राट तथा संसद के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी और संसद
अभिजात्य वर्ग की ही प्रतिनिधि थी। पहले केवल कुलीनों को मताधिकार प्राप्त था।
धीरे-धीरे अन्य वगरें को यह हक मिला। लेबर पार्टी के मजबूत होने पर वहां समाजवाद
का भी अच्छा असर पड़ा। अंग्रेजों ने अपने यहां तो सामंती व्यवस्था काफी हद तक खत्म
कर दी, लेकिन अपने उपनिवेशों में जबर्दस्त
सामंतशाही की नींव डाली। इसलिए दिल्ली में वायसराय के लिए बनाया गया बंगला (जो अभी
राष्ट्रपति भवन है) बकिंघम पैलेस से ज्यादा भव्य है। जिलों में कलेक्टरों और पुलिस
अधीक्षकों की विशाल कोठियां भी उसी की प्रतीक हैं। इसकी एक वजह यह भी थी कि भारत
आने वाले अंग्रेजों में अधिकतर स्कॉटलैंड के थे जो उतने विकसित और संपन्न नहीं थे।
इसलिए उनमें सामंती प्रवृति कुछ ज्यादा ही थी।
स्वाधीनता संग्राम के नेता उदात्त
मूल्यों को आत्मसात कर और बड़े त्यागकर आंदोलन में कूदे थे। बड़े-बड़े वकीलों ने अपनी
लाखों की प्रैक्टिस को एक झटके में छोड़ दिया। महात्मा गांधी ने लंगोटी पहनकर स्वयं
को आम लोगो से जोड़ा। मोतीलाल नेहरू जैसे बड़े वकील ने भी सादगी का रास्ता चुना। जो
अपनी यात्रा के लिए ट्रेन का पूरा डब्बा आरक्षित कराते थे वह द्वितीय श्रेणी में
चलने लगे। 1921 की एक घटना हैं। मोतीलाल ट्रेन से इलाहाबाद से कोलकाता जा रहे थे।
वह द्वितीय श्रेणी में सफर कर रहे थे। उसी ट्रेन में जवाहरलाल नेहरू भी तृतीय
श्रेणी में यात्रा कर रहे थे। गाड़ी जब पटना पहुंची तो जवाहरलाल नीचे उतरकर
प्लेटफॉर्म पर टहलने लगे जहां उनकी मुलाकात राजेंद्र प्रसाद से हो गई। राजेंद्र
बाबू भी कोलकाता जा रहे थे और उन्होंने तृतीय श्रेणी का टिकट ले रखा था। जवाहरलाल
उन्हें अपने पिता से मिलवाने ले गए। मोतीलाल ने राजेंद्र प्रसाद से पूछा कि वह किस
श्रेणी में यात्रा कर रहे हैं। जब राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि वह तृतीय श्रेणी
में हैं तो मोतीलाल नेहरू ने कहा कि वह खुद प्रथम श्रेणी से नीचे द्वितीय श्रेणी
में आ गए हैं और राजेंद्र बाबू को सलाह दी कि वह थोड़ा ऊपर आ जाएं और द्वितीय
श्रेणी में चलें। फिर उन्होंने बेटे जवाहरलाल के बारे में कहा कि इनकी उम्र अभी
मौज करने की है,
किंतु
वह तृतीय श्रेणी में यात्रा कर रहे हैं। मोतीलाल की सलाह के बावजूद राजेंद्र
प्रसाद ने तृतीय श्रेणी में ही यात्रा की। 1937 में जब पहली कांग्रेसी सरकार कई
प्रांतों में बनी तो मंत्री ट्रेन के तीसरे क्लास में ही यात्रा करते थे। आजादी के
बाद कई केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री
बिना लंबे-चौड़े काफिले के चलते थे। उनमें आम आदमी का अक्स दिखाई देता था। इंद्रजीत
गुप्त सांसद के रूप में वेस्टर्न कोर्ट के एक कमरे में रहते ही थे। 1996 में
केंद्रीय गृहमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने कोठी नहीं ली। वेस्टर्न कोर्ट में ही
तीन-चार और कमरे लेकर उन्होंने काम चला लिया। आज यह समृद्ध परंपरा लोप हो गई है।
अब सांसद ही नहीं,
वह
हर व्यक्ति जिसकी थोड़ी भी हैसियत है अपने को विशिष्ट मानकर आम आदमी से नफरत करता
है।
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