सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

धारा 377 पर आए फैसले पर कौन खुश है?

सर्वोच्च न्यायालय के ताजे निर्णय- जिसके अन्तर्गत उसने समलैंगिकता के अपराधीकरण पर फिर एक बार अपनी मुहर लगा दी है- ने शान्ति एवं न्याय के चाहने वालों को भले ही चिन्तित कर दिया हो मगर हम देख रहे हैं कि धर्म के स्वयंभू कर्णधार एवं नैतिकता के रक्षकों को तो उसने नया बल प्रदान किया है। अभी पिछले माह की बात है जब उनके चन्द नुमाइन्दों ने प्रेस सम्मेलन करके धारा 377 को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय- जिसके अन्तर्गत उसने समलैंगिकता हाईकोर्ट के 2009 के निर्णय को पलट दिया था- को लेकर खुशी का इजहार किया था और उसके प्रति अपना समर्थन प्रदान किया था। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को उन्होंने 'मुल्क की पूरब की परम्पराओं, नैतिक मूल्यों और धार्मिक शिक्षाओं के अनुरूप बताया था' तथा कहा था कि वह पश्चिमी संस्कृति के आक्रमण, पारिवारिक प्रणाली के विघटन और सामाजिक ताने-बाने के बिखराव को लेकर पैदा संदेहों को खारिज करता है। मालूम हो कि 2009 के दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय- जिसने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से मुक्त किया था और संविधान की धारा 377 को चुनौती दी थी- उसके बारे में उन्हें सख्त एतराज था।

चाहे  इस मसले पर आयोजित प्रेस सम्मेलन हों या अन्य कार्रवाइयां हों, 'विभिन्न धर्मों के इन पुण्यजनोंके बीच नज आ रहा यह मेलजोल सभी के सामने है। ऐसे मौके कम ही आते हैं जब वे सभी अपने मुरीदों के वास्तविक भौतिक सरोकारों को लेकर एकत्रित होने के लिए इस कदर तत्पर दिखते हों या जब आस्था की अपनी-अपनी समझदारी के तहत उनके अनुगामी 'हम' और 'वे' में बंटे हुए सड़कों पर नफरत का लावा फैलाने में मुब्तिला दिखते हों, तब उन्हें रोकने के लिए इकट्ठा दौड़ जाते हों।

निश्चित ही उन सभी की चिन्ता यह नहीं थी समलैंगिक सम्बन्धों में 'पश्चिमी' कहा जानेवाला कुछ नहीं है और अन्य प्राचीन समाजों की तरह, यहां भी उसके प्रति कभी उस कदर आक्रामक रुख कभी नहीं रहा है। रूथ वनिता अपने एक आलेख में पूर्व औपनिवेशिक भारतीय साहित्य और कला से ऐसे कई उदाहरण पेश करती हैं जो इस पर रौशनी डालते दिखते हैं। दरअसल समलैंगिकता के खिलाफ  कानून - जिन पर विक्टोरियाई नैतिकता की छाप थी - पश्चिमी जगत से आयातित थे, जो यहां की न्यायप्रणाली का भी हिस्सा बना दिए गए। ब्रिटिशकाल में ही यहां पर धारा 377 का प्रवेश हुआ क्योंकि उन्हें इस बात की अत्यधिक चिन्ता थी कि उनकी सेना एवं बेटियां पूरब के अवगुणों का शिकार बनेंगी। यह अलग बात है कि खुद ब्रिटिशों ने लगभग पचास साल पहले अपनी कानून की किताबों से इस घृणास्पद प्रावधान को हटा दिया है। आज सहमति रखनेवाले वयस्कों के बीच यौन सम्बन्ध समूचे यूरोप और अमेरिका में कहीं भी अपराध नहीं है।

यह अलग बात है कि आज, भारत ऐसे देशों के साथ एक विचित्र सी प्रतियोगिता में शामिल हुआ है, जिन्होंने राय द्वारा प्रायोजित होमोफोबिया अर्थात् समलैंगिकों के प्रति नफरत की नीतियों को अपनाना कबूल किया है। नागरिकों के बीच किसी भी आधार पर भेदभाव न करने के संविधान के बुनियादी सिध्दांत की हिमायत करने के बजाय आला अदालत के फैसले ने ही समलैंगिकता के अपराधीकरण का रास्ता खोल दिया है। यहां यह जानना समीचीन होगा कि भारत आज 'होमोफोबिक' अर्थात् समलैंगिकता से नफरत करनेवाले मुल्कों के उस उदितमान क्लब का हिस्सा है जिसमें रूस, नाइजीरिया और युगांडा जैसे देश शामिल हैं। हालांकि रूस के समलैंगिकताविरोधी नए कानून जो ''समलैंगिकता के प्रचार'' पर पाबन्दी लगाता है के बारे में बहुत लोग जानते हैं, इसी सन्दर्भ में रूस में सोची में आयोजित ओलम्पिक खेलों में  'गे एथलीट' अर्थात् समलैंगिक एथलीटों की सुरक्षा को लेकर चिन्ता प्रकट की जा रही है। दूसरी तरफ नाइजीरिया और युगांडा जैसे मुल्कों के घटनाक्रम पर बहुत कम लोगों की निगाह गई है। बीते माह 13 जनवरी को नाइजीरिया के राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन ने एक अध्यादेश पर दस्तखत किए जिसके अन्तर्गत समलैंगिक यौनाचार को अपराध घोषित किया गया, जिसके प्रावधान भारत की धारा 377 से अधिक दमनकारी हैं। वैसे युगांडा का कानून इन सबमें सबसे अधिक दमनकारी दिखता है जहां समलैंगिकता के 'अपराध' के लिए आप को उम्रकैद की सजा भी सुनाई जा सकती है, जिस बिल को दिसम्बर माह में मंजूरी दी गई। युगांडा में दो साल पहले समलैंगिक अधिकारों के लिए सक्रिय कार्यकर्ता पासिकली काशूसबे की बर्बर ढंग से हत्या की गई थी, जिसमें शामिल होने के आरोप ऐसे ही अतिवादी समूहों पर लगे थे जो समलैंगिकता का विरोध करते हैं। 

वैसे इन 'पुण्यजनों' को यह अधिकार है कि वह पाप किसे कहते हैं या नहीं कहते हैं इस पर अपनी राय बना लें, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस बात का बहुत कम एहसास है कि जनतंत्रा में सजाएं महज अपराध के लिए दी जाती हैं, पापों के लिए नहीं। इस तरह कोई धर्मतंत्र या ऐसा मुल्क जहां विशिष्ट धर्म की राय के संचालन में अधिक भूमिका दिखती है, वह किसी को सजा-ए-मौत सुना सकता है, महज इसलिए कि उस व्यक्ति ने अपने आप को नास्तिक घोषित किया, मगर जहां तक एक धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र का सवाल है तो वह अलग ढंग से संचालित होता है। लाजिमी था कि अपने सीमित विश्व नजरिये के चलते इन धर्ममार्तण्डों के लिए इस बात को समझना भी मुश्किल जान पड़ा था कि वर्ष 2009 के हाईकोर्ट के फैसले ने - जिसने समलैंगिकता के अपराधीकरण को खारिज किया था- किस तरह हमारी आजादी को विस्तारित करने के लिए संवैधानिक नैतिकता की समझ को पुनर्जीवित करने की कोशिश की थी और उसे सार्वजनिक नैतिकता के बरक्स पेश किया था जो समाज के वर्चस्वशाली दृष्टिकोण की वाहक होती है।

अपने समुदायों के इन 'पुण्यजनों' का इस कदर एकत्रित होने का यह प्रसंग, एक ऐसे कदम के खिलाफ जिससे मानवीय स्वतंत्रता की सीमाएं बढ़ने की सम्भावना हो, हमारे अपने अतीत के एक ऐसे ही अन्य प्रसंग की याद ताजा करता है। लगभग अस्सी साल पहले की बात है जब भारत अभी भी औपनिवेशिक जुए के नीचे था। भले ही सन्दर्भ अलग हों और मुद्दा अलग हो, मगर जिस तरह 'धार्मिक शिक्षाओं', 'परम्परा और संस्कृति' और 'विशाल बहुमत की राय' की बात की जा रही है, उसी किस्म की बात पहले भी चली थी।

वह एक ऐसा दौर था जब शारदा एक्ट लाने की- जिसके अन्तर्गत चौदह साल से कम उम्र की लड़की शादी पर पाबन्दी लगाने की- बात चल रही थी, जिसने तमाम धार्मिक प्रवृत्तियों के संगठनों एवं व्यक्तियों को उद्वेलित किया था। राष्ट्रवादियों का एक हिस्सा भी 'बाहरी' लोगों द्वारा लोगों के आन्तरिक मामलों में की जा रही दखलंदाजी को लेकर आन्दोलित था। वैसे बहुत कम लोग आज जानते होंगे कि इस कानून को लाने के लिए एक तरह से प्रेरणा का काम फुलमोनी नामक एक बालिका वधु की दुखद मौत ने किया था, जिसकी उससे कई गुना बड़े उम्र के व्यक्ति से शादी कर दी गई थी।  इस अधिनियम का विरोध करने के लिए हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के तमाम 'पुनितजनों' की अगुआई में जगह-जगह आन्दोलन चले थे, जिन्होंने यह ऐलान किया था कि वह 'उनके सबसे मूल्यवान अधिकारों' पर किसी तरह का आक्रमण होने नहीं देंगे, उनकी यह भी घोषणा थी कि वह औपनिवेशिक सरकार को उनकी 'महान संस्कृति और परम्परा' में दखलंदाजी नहीं करने देंगे। उन दिनों इनका संघर्ष किस तरह चला था इसे समझने के लिए जवाहरलाल नेहरू के एक आलेख के एक हिस्से को उध्दृत किया जा सकता है जो 'माडर्न रिव्यू' के दिसम्बर 1935 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसमें यह बताया गया था कि पुरोहित एवं मौलवी तबके के नुमाइन्दे क्या कर रहे थे:'कुछ साल पहले की बात है जब मैं बनारस गया था... हम लोगों ने देखा कि ब्राह्मण कंधे से कंधा मिला कर मौलवियों के साथ जुलूस निकाल रहे हैं ... और 'हिन्दू-मुस्लिम एकता की जय' कहते हुए नारे लगा रहे हैं। यह देखना काफी सुखद था। मगर यह सब किसके लिए था?... पता चला कि यह दोनों धर्मों के रूढ़िवादियों का साझा विरोध प्रदर्शन है शारदा एक्ट का विरोध करने के लिए।
वह आगे लिखते हैं, हमें देख कर जुलूस में शामिल कईयों ने आपत्तिजनक नारे लगाए।...उसी वक्त, जुलूस टाउन हॉल पहुंचा और किसी वजह से पथराव शुरू हुआ। एक तेजतर्रार युवा ने कुछ पटाखे निकाले और फोड़े, जिनका रूढ़िवादियों की कतारों पर जबरदस्त असर हुआ। यह सोचते हुए कि पुलिस और सेना ने गोलीबारी शुरू की है, वह तुरन्त बिखर गए और तेजी से वहां से निकल गए। चन्द पटाखे उस पूरे जुलूस को बिखेरने के लिए काफी थे।...' (सोशल एण्ड रिलीजियस रिफार्म, अमिया पी सेन, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पेज 118)

नेहरू आगे बताते हैं कि किस तरह ब्रिटिश सरकार इस मुद्दे पर पीछे हटी और किस तरह छिटपुट नारेबाजी इस बिल को समाप्त करने और शारदा एक्ट को दफनाने के लिए काफी साबित हुई और किस तरह 'बाल विवाह वैसे ही जारी रहे और एक तरफ जब शारदा एक्ट को तार-तार किया जा रहा था तब किस तरह सरकार एवं मैजिस्टे्रटों ने अपना मुंह मोड़ लिया।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि समय अब बदला है। अंग्रेजों की यहां से विदाई हो चुकी है और साठ साल पहले हम गणतंत्र में प्रवेश कर चुके हैं। लेकिन लगता है कि उसी किस्म की घड़ी हमारा इन्तजार कर रही है।

साठ साल का वक्त गुजर गया जब हम लोगों ने यह संकल्प लिया कि लिंग, जाति, नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता आदि किसी भी श्रेणी के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। मगर अब धीरे-धीरे हमें एहसास हो रहा है कि हमारी उदात्त इच्छाओं और जमीनी हकीकत में गहरा अन्तराल है। अगर कल या उसके पहले या उसके पहले के पहले  दलित, स्त्रियां, धार्मिक अल्पसंख्यक निशाने पर थे, आज लगता है कि निशाने पर यौन अल्पसंख्यक हैं। क्या हम लोकतंत्र की उस विडम्बना को लांघ सकेंगे जिसमें हर किस्म के अल्पसंख्यक बहुसंख्यकवाद के संजाल में उलझे दिखते हैं, आज हमारे सामने सबसे अहम् सवाल यही दिखता है।

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