अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली
लोकपाल विधेयक, 2014 को मंजूरी देकर अपने एक और अहम
वादे की दिशा में कदम बढ़ा दिया है। पर इस कदम की राह में अनेक अड़चनें हैं। दिल्ली
को पूर्ण राज्य का दर्जा न होने के कारण किसी भी कानून के मसविदे को विधानसभा में
पेश करने से पहले केंद्र की मंजूरी लेना जरूरी होता है। जबकि दिल्ली सरकार इसे
पहले विधानसभा में पारित कराना चाहती है। उसका कहना है कि कानून में ऐसा कोई
प्रावधान नहीं है जो केंद्र या उपराज्यपाल की पूर्व अनुमति के लिए उसे बाध्य करता
हो। कई मौकों पर पूर्ववर्ती सरकारों के औपचारिकता का पालन न करने की मिसालों को भी
उसने आधार बनाया है। दरअसल, पहले विधेयक केंद्र के पास भेजने पर दिल्ली सरकार को यह अंदेशा रहा
होगा कि प्रक्रियागत खामी का हवाला देकर या तो उसे लौटा दिया जाएगा, या वह केंद्र के पास ठंडे बस्ते में
पड़ा रहेगा। केजरीवाल सरकार की योजना विधानसभा के विशेष सत्र में, हजारों लोगों की मौजूदगी के बीच, विधेयक पारित कराने की है। इस पर भी
विधायी प्रक्रिया से संबंधित सवाल उठ सकते हैं। लेकिन यह साफ है कि केजरीवाल सरकार
अपने इस कदम को जन-आकांक्षा की शक्ल देकर केंद्र पर दबाव बढ़ाना चाहती है।
बहरहाल, दिल्ली में लोकायुक्त संस्था का वजूद पहले से है, पर उसे सिर्फ कार्रवाई के लिए
राष्ट्रपति से सिफारिश करने का अधिकार है। जबकि केजरीवाल सरकार का विधेयक तमाम
लोकायुक्त कानूनों से अधिक सख्त है। इस तरह का लोकायुक्त कानून उत्तराखंड में
भुवनचंद्र खंडूड़ी की सरकार ने बनाया था, जो लागू नहीं हो सका। दिल्ली का प्रस्तावित कानून कई मामलों में उससे
भी कठोर है। मसलन,
यह
जरूरी नहीं होगा कि मुख्यमंत्री या किसी मंत्री के खिलाफ जांच दिल्ली के लोकपाल की
पूर्ण पीठ ही करे,
कोई
भी सदस्य-लोकपाल जांच कर सकेगा। सभी के खिलाफ जांच की प्रक्रिया समान होगी।
लोकपाल की जांच के दायरे में
मुख्यमंत्री और मंत्रियों के अलावा सभी अधिकारी और कर्मचारी आएंगे। अध्यक्ष सहित
दिल्ली लोकपाल में ग्यारह सदस्य होंगे। लोकपाल की चयन समिति में मुख्यमंत्री और
नेता-विपक्ष के तौर पर सिर्फ दो राजनीतिक होंगे, समिति के बाकी सदस्यों में कुछ कानून के विशेषज्ञ और कुछ सामाजिक
क्षेत्र प्रतिष्ठित नाम होंगे। लोकपाल को जांच के साथ-साथ अभियोजन और कुछ तरह की
दंडात्मक कार्रवाई का भी अधिकार होगा। जांच की प्रक्रिया छह महीने में पूरी कर ली
जाएगी, और कोशिश होगी कि अगले छह माह में
विशेष अदालत में अभियोजन की प्रक्रिया भी तर्कसंगत परिणति तक पहुंच जाए। दोषी पाए
जाने पर छह महीने से दस साल तक की सजा होगी, अत्यंत विशेष मामलों में आजीवन कारावास भी हो सकता है।
लोकपाल को किसी भी अधिकारी या कर्मचारी
को जांच के दौरान निलंबित रखने, नीचे के पद पर भेजने जैसे अधिकार होंगे। सभी अधिकारियों और
कर्मचारियों को हर साल अपनी संपत्ति की घोषणा करनी होगी। निर्धारित तारीख तक ऐसा
नहीं करने पर उनका वेतन रोका जा सकेगा। मगर उनके रिश्तेदारों पर भी संपत्ति की
घोषणा का प्रावधान न औचित्यपूर्ण मालूम पड़ता है, न व्यावहारिक। विधेयक की एक और अहम बात यह है कि विसलब्लोअर यानी
भ्रष्टाचार के मामलों में सचेतक की भूमिका निभाने वालों और गवाहों को सुरक्षा देने
का प्रावधान रखा गया है। सिटिजन चार्टर भी इस विधेयक का हिस्सा है, यानी सभी विभागों को अपनी सेवाओं की
समयबद्धता घोषित करनी होगी। यह विधेयक कानून की शक्ल ले पाए या नहीं, आम आदमी पार्टी की भ्रष्टाचार विरोधी
मुहिम का हथियार जरूर बन सकता है।
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