जब दुनिया पूरी तरह से पूंजीवाद की
उंगली पकड़कर बाजार की गलियों में चलने के लिए तैयार हुई थी तो यह उम्मीद जगाई गई
थी कि दुनिया से धर्म, नस्ल या संस्कृति के पारम्परिक
सरोकारों का स्थान पूंजीवादी उदारवाद ग्रहण कर लेगा और फिर वह उन रिक्तियों को
भरने का कार्य करेगा जो इनके मध्य टकरावों का निर्माण करती हैं। महत्वपूर्ण बात तो
यह है कि पूंजीवाद ने तो अपना प्रभाव पूरी तरह से जमा लिया और बाजार कुछ इतनी खुली गलियाें का निर्माण कर
लिया जिनके किनारों का तलाशना मुश्किल है। खास बात यह है कि बहुत हद तक धर्म भी
बाजार के रंग में रंगा लेकिन उसकी परम्परागत प्रकृति बदलाव और कट्टरपंथी उभारों
में कमी नहीं आई परिणाम यह हुआ कि दुनिया
आगे बढ़ने के क्रम में टकराव की ओर बढ़ती चली गई। सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? बाजार स्वातंत्र्य तथा विज्ञान और
तकनीक के इस आधुनिक युग में धर्म के नाम मानवता की हत्या में वृध्दि क्यों? क्या यह सभ्यताओं या फिर संस्कृतियों
का टकराव है अथवा आधुनिक युग की विकृत होती मानसिकता का पर्याय? या फिर यह मान लें कि बाजारवाद
पूंजीवाद के आगमन के बाद धार्मिक कट्टरपंथ उसके द्वारा आच्छादित नहीं हुआ, बल्कि उससे प्रेरित और उत्तेजित हुआ? लेकिन क्यों?
पिछले दिनों अमेरिका की एक रिसर्च
इंस्टीटयूट पिउ रिसर्च सेंटर ने दुनिया के 198 देशों को अपनी एक स्टडी के माध्यम
से बताया है कि उन देशों की संख्या, जिनमें
धर्म की वजह से उच्च या अति उच्च लेवल का सामाजिक टकराव बढ़ा है, पिछले छह वर्षों (वर्ष 2007 से 2012)
में शिखर पर पहुंच गई है। उल्लेखनीय है दुनिया में धार्मिक टकराव को लेकर पिउ
रिसर्च सेंटर द्वारा जारी यह पांचवीं स्टडी रिपोर्ट हैं जिसमें उसने कुछ प्रमुख
इंडेक्सेज को लेकर ये निष्कर्ष निकाले हैं।
इनमें एक है जीआरआई (गवर्नमेंट रिस्ट्रिक्शन इंडेक्स) और दूसरा है एसएचआई (सोशल होस्टैलिटीज इंडेक्स)। इन स्केल्स के अनुसार
दुनिया के 198 देशों में से 33 प्रतिशत देश और टेरिटोरीज वर्ष 2012 में उच्च स्तर
के धार्मिक टकराव में शामिल थीं, जिनकी
संख्या वर्ष 2011 में 29 प्रतिशत और मध्य 2007 में 20 प्रतिशत थी। विशेष बात तो यह
है कि रिसर्च के अनुसार अमेरिका को छोड़कर दुनिया के प्रत्येक प्रमुख क्षेत्र में
धार्मिक टकराव बढ़ा है। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में इस तरह के टकराव में सबसे
तेजी से वृध्दि हुई है जिसका कारण सम्भवत: वर्ष 2010-11 का अरब स्प्रिंग नाम का वह
राजनीतिक विद्रोह है जिसने सत्ता परिवर्तन के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया। लेकिन
एशिया-पेसिफिक क्षेत्र का धार्मिक टकराव का बढ़ना और विशेषकर चीन का इस मामले में
पहली बार 'हाई कैटेगरी' के स्तर पर पहुंचना, ध्यान देने योग्य बात है।
रिसर्च पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि
दुनिया भर में धार्मिक शत्रुता के एक जैसे उदाहरण सामने नहीं आए हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है।
कहीं पर धार्मिक शत्रुता माइनारिटीज और मैजारिटीज के बीच टकराव के रूप में सामने
आई है तो कहीं पर माइनारिटीज के साथ दर्ुव्यवहार के रूप में। कहीं पर यह अपने ही
धर्म के अनुयाईयों के खिलाफ कोड ऑफ कंडक्ट का पालन कराने के लिए हमलावर होती दिखी
है तो कहीं पर महिलाओं की यूनिफार्म को लेकर। कहीं पर यह शत्रुता एक धर्म द्वारा
दूसरे धर्म के लोगों या उनकी संस्थाओं पर हमले के रूप में दिखी है तो कहीं पर
साम्प्रदायिक दंगों के रूप में। इनसे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण उदाहरणों के रूप में
लीबिया और सीरिया में कॉप्टिक आर्थोडॉक्स ईसाईयों पर हमला; सोमालिया में कट्टरपंथी आतंकी संगठन
अल-शबाब द्वारा अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों के लोगों को धार्मिक नियमों का पालने
कराने (यह संगठन सिनेमा, संगीत, स्मोकिंग, दाढ़ी बनाने आदि को गैर-इस्लामी मानता
है) के लिए हमला, अमेरिका में सिख गुरुद्वारे पर ईसाईयों
का हमला; चीन में झिनझियांग में हान चीनियों
द्वारा उइगर मुसलमानों पर हमला; तिब्बत
में बौध्दों द्वारा 'हुइ मुसलामनों' पर हमला, म्यांमार में राखिन प्रांत में बौध्दों का रोहिंग्या मुसलमानों का
हमला, पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हमला... आदि
को देखा जा सकता है। इस प्रकार के धार्मिक टकरावों में मैजारिटीज द्वारा
माइनारिटीज के साथ किए गए दर्ुव्यवहारों में सबसे यादा वृध्दि हुई है ( 2011 के 38
प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 47 प्रतिशत), दूसरे
स्थान पर कोड ऑफ कंडक्ट का पालन कराने के लिए प्रयुक्त हिंसा है (2011 के 33
प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 39 प्रतिशत) जबकि तीसरे स्थान पर महिलाओं के धार्मिक
यूनिफार्म को लेकर (2011 के 25 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 32 प्रतिशत जबकि 2007
में यह संख्या 7 प्रतिशत थी) हुए हमले हैं। धार्मिक नियमों का पालन न करने पर
डराना या हिंसा करने के मामले में भारत को भी इस रिपोर्ट में शामिल किया गया है।
हालांकि रिसर्च स्टडी में बंगलादेश का नाम नहीं है, लेकिन इस समय बंगलादेश में भी हिंदुओं की स्थिति बेहद तकलीफदेह है।
बीते 5 जनवरी को बंगलादेश में हुए जनरल इलेक्शन का बीएनपी और जमाते इस्लामी द्वारा
किए बायकॉट आह्वान के बाद भी हिन्दुओं ने इलेक्शन में भाग लिया जिसकी भारी कीमत
उन्हें चुकानी पड़ी। खुद बंगलादेश के अखबारों ने लिखा है कि ठाकुरगांव, दिनाजपुर, रंगपुर, बोगरा, लालमोनिरहाट, गायबंधा, राजशाही, चटगांव और जेसोर जिलों में जितने बड़े
पैमाने पर तथा जिस बेरहमी के साथ हिंदू परिवारों, उनके घर और ठिकानों पर हमले हुए हैं, उससे 1971 में पाकिस्तान समर्थक समूहों द्वारा दिखाई गई बर्बरता की
यादें ताजा हो गई हैं। वास्तव में इस संदर्भ में पाकिस्तान से आने वाली खबरों को
भी जोड़ कर देखें तो देश के बंटवारे के 66 वर्ष बाद पाकिस्तान और बंगलादेश में
अल्पसंख्यकों की हालत को लेकर लाचारी का आलम नजर आता है। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल
नामक संस्था की रिपोटर्ें बताती हैं कि वहां हिंदू लड़कियों के अपहरण और जबरन विवाह
तथा हिंदुओं के अंत्येष्टि स्थलों पर कब्जे की घटनाएं बेलगाम जारी हैं।
बहरहाल हमलों की प्रकृति को देखने से
एक बात साफ पता चलती है कि यूरोप, अमेरिका
और कुछ हद तक श्रीलंका में हमलों का स्वरूप संस्थागत अधिक रहा इसलिए वहां इस टकराव
का कारण या तो आर्थिक है अथवा राजनीतिक। पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा और
म्यांमार में रोहिंग्याओं के खिलाफ हिंसा का कारण धार्मिक विद्वेष अधिक रहा जिसके
लिए वहां के कट्टरपंथी समूहों के साथ-साथ राजनीतिक सरकारें कहीं अधिक दोषी हैं।
इराक में शिया-सुन्नी टकराव और अल्जीरिया में मुस्लिम-ईसाई टकराव का पक्ष दूसरा है
और वहां पर पूरी तरह से नवउपनिवेशवाद और
बहुत हद तक अमेरिकी हस्तक्षेप इसका इस धार्मिक टकराव का कारण है। लेकिन सोमालिया
आदि में जो धार्मिक उत्पीड़न हो रहा है वहां पर दबे-कुचले और जीवन के मूलभूत
संसाधनों से वंचित लोग इसका शिकार हो रहे हैं, जिसका
मूल कारण देश में अक्षम गवर्नेंस की उपस्थिति या गवर्नेंस की अनुपस्थिति, पश्चिमी हस्तक्षेप, कट्टरपंथी समूहों का ताकतवर होना है।
कुल मिलाकर भले ही हम यह कह लें कि हम
एक उदार दुनिया का निर्माण करने की ओर बढ़ रहे हैं, हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं या हम सभ्यता की एक घनी चादर का
निर्माण करने में सफल हैं अथवा हमने उदार लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण करने
में सफलता अर्जित की है जो धर्म के द्वारा नहीं बल्कि धर्म को नियंत्रित कर आधुनिक
कानूनों द्वारा चलती हैं,
लेकिन यह स्टडी इन दावों को पूरी तरह
से खारिज करती दिख रही है। पूरी दुनिया में धार्मिक उन्माद या धर्म अथवा नस्लवादी
हिंसा की लगातार होती वृध्दि के बावजूद क्या यह मान लिया जाए कि हम वास्तव में
आधुनिक युग का एक हिस्सा हैं? सामान्य
अवधारणाएं चाहे जिस रूप में व्यक्त हों लेकिन इसका एक पक्ष यह है कि जैसे-जैसे
दुनिया असमान विकास की तरफ खिसकती जाएगी, वैसे-वैसे
आर्थिक अक्षमता के उप-उत्पादों के रूप में धार्मिक, सांस्कृतिक अथवा नस्लीय टकरावों की संख्या बढ़ेगी। तब क्या यह कहा जा
सकता है कि बाजारवादी पूंजीवाद जैसे-जैसे परिपक्व
होगा, वैसे-वैसे मध्यकालीन या औपनिवेशिककालीन
प्रत्ययों की भूमिका नये किस्म के टकरावों में बढ़ती जाएगी
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