रविवार, 16 फ़रवरी 2014

राष्ट्र से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं

हाल ही में पांच रायों में हुए चुनाव परिणामों के बाद आगामी अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। भविष्य को लेकर भी कई प्रकार की बातें भी की जा रही हैं। सत्ता की राजनीति से सदा दूर रहकर समाज का काम करने वाले एक लोकसेवक के नाते मेरे सामने आज कई चिंताजनक विषय हैं, जिन्हें मैं आप सभी के साथ साझा करना चाहता हूं।

इन दोनों चुनावों के बारे में विश्लेषक अलग-अलग अटकल लगा रहे हैं और कुछ तो भविष्यवाणी भी कर रहे हैं। इसी बीच दलों एवं राजनीतिज्ञों द्वारा अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तमाम तरीके अपनाए जा रहे हैं। इसमें सबसे यादा अशोभनीय तरीका है जनता के प्रतिनिधि बनने के दावेदार उम्मीदवारों द्वारा अपने प्रतिस्पर्धी दल के नेताओं के खिलाफ  भद्दी-भद्दी बातें करना। बरसों पहले जब आज की तुलना में चुनाव इतने स्पर्धात्मक नहीं थे, तब आचार्य विनोबा भावे ने चुनाव के सबसे विलक्षण चरिर्त की व्याख्या करते हुए कहा था कि वह आत्मप्रशंसा और परनिंदा करने वाले होते हैं। उस काल की तुलना में आज यह परिभाषा और भी यादा सही बन गई है। वर्तमान में आत्मप्रशंसा और परनिंदा के सागर में झूठे-सच्चे वायदों के बीच देश के मूलभूत सवाल कहीं खो गए हैं और उनके बजाए तात्कालिक चमक-दमक की बातों से मतदाताओं की आंखें चौंधिया रही हैं। यदि आम चुनाव में देश के मूलभूत प्रश्नों का विचार हो तो ये चुनाव लोकतंत्र को मजबूत करने तथा संविधान के मूल सिध्दांतों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ने में सहायक होते। यही नहीं, बार-बार होने वाले यह चुनाव हमारे देश की प्रगति के मील के पत्थर भी बन सकते हैं।

हमें दो मुख्य बातों का विचार करना चाहिए। सर्वप्रथम चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार के व्यक्तित्व और उसकी काबीलियत के बारे में तो सोचना ही चाहिए इसी के साथ हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि यदि उनमें से कुछ उम्मीदवारों की प्रकृति तानाशाह जैसी हो तो उसका प्रभाव देश के लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो सकता है। लेकिन व्यक्ति  के स्वभाव से यादा जरूरी  है उसकी नीतियों पर विचार करना। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि चुनाव जीतने के बाद लोग सत्ता में आए दल से उन नीतियों को लागू किए जाने की आशा भी रखेंगे। विरोधी दल भी इन्हीं नीतियों को केंद्र में रखकर सत्ताधारी दल का मूल्यांकन करेंगे। इसलिए नीतियों का  सवाल उम्मीदवार के व्यक्तित्व  जितना ही महत्वपूर्ण बन जाता है।

दूसरी विचारणीय बात है, इस साल होने वाले चुनाव किन मूलभूत सिध्दांतों को केंद्र में रखकर होंगे? यह हमारी चिंता का विषय है। जाहिर सी बात है राष्ट्रीय चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर होने चाहिए। यानि देश के यादातर लोगों के जीवन से संबंधित होने चाहिए। मूलभूत नीतियों की प्राथमिकता को देखते हुए राष्ट्रीय मुद्दे ऐसे होने चाहिए जो:
-संविधान के मूलभूत सिध्दांतों को ध्यान में रखकर खड़े किए गए हों।
- देश के यादा से यादा लोगों के जीवन को दीर्घकाल तक प्रभावित करने वाले हों।
- उन प्रश्नों को स्पर्श करने वाले हों जो विशेष रूप से समाज के दलित, वंचित तथा पिछड़ों के जीवन से संबंध रखते हों।

हमारी चिंता  का विषय यह है कि आजकल चुनाव में जिन मुद्दों पर विचार होता है वह समाज के मुखर या श्रेष्ठी वर्ग को ध्यान में रखकर उठाए जाते हैं और जो वर्ग मुखर नहीं होते उनकी आवाज चुनाव के शोर शराबे में दब जाती है। वर्तमान में देश की एक मूलभूत समस्या है रोजी रोटी की। लेकिन राजनीतिक दल प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की प्रशासनिक क्षमता या अक्षमता अथवा भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे ही उठा रहे हैं। इस शोरगुल में कहीं भी करोड़ों भूमिहीन या करोड़ों कम पढ़े-लिखे शहरी ग्रामीण युवकों के प्रश्न नहीं उठाए जाते। इसी प्रकार जल, जंगल और जमीन से जुड़े सवाल  भी देश मूलभूत प्रश्न हैं। देश के सैकड़ों इलाकों में सामान्य जनता, खास तौर से वंचित समाज, इन सवालों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन चुनाव की आंधी में इन आंदोलनों का स्वर दबाया जाता है।

भारतीय संविधान के मूलभूत सिध्दांतों द्वारा मान्य स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय की दिशा में देश कितना आगे बढ़ पाया है यही अपने देश के लोकतंत्र की सही कसौटी हो सकती है। आज तात्कालिक सवालों पर इतना शोरगुल होता है कि उसकी चकाचौंध में जनता मूलभूत सिध्दांतों तथा सवालों को भूल जाती है और इसी कारण लोकतंत्र कमजोर होता जाता है। हर चुनाव में इस बात पर विचार होना चाहिए कि सच्चे लोकतंत्र में अंतिम सत्ता किसके हाथ में हो? मतदाताओं के या उनके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में? विधायक, सांसद या प्रधानमंत्री के बारे में चर्चा करने का अपना महत्व हो सकता है, लेकिन यह एकमार्त महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है।

महत्व की बात तो यह है कि हर चुनाव के बाद आम लोग मजबूत हों और लोकतंत्र मजबूत हो, कि केवल सत्ताधारी या विपक्षी दल। यह एक चिंता का विषय है कि हम चुनाव प्रचार की अंधी दौड़ में कहीं सत्ता के असली हकदार मतदाता को गौण बनाकर, उसे बहला-फु सलाकर, ललचाकर, खरीदकर, डरा-धमकाकर और या नशे में चूर कर उसका मत हासिल कर सिर्फ  राजनीतिक दलों को ही मजबूत कर रहे हैं। कोई भी दल कभी भी राष्ट्र से यादा महत्वपूर्ण नहीं हो सकता एवं उम्मीदवार कभी भी मतदाता से महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए राष्ट्र का महत्व समझकर सभी दलों को देश के मूलभूत प्रश्नों पर अपनी नीति घोषित करनी चाहिए। चुनाव जीतकर सत्ता में जाने के बाद उस दल की सरकार इन मूलभूत सवालों को हल करने का काम कैसे कर रही है, इस बात की चौकीदारी मतदाताओं को करनी चाहिए।


तात्कालिक और दीर्घकालिक मूलभूत प्रश्नों के चयन में विवेक रखना होगा। भ्रष्टाचार नाबूद (नष्ट) होना चाहिए और इस बारे में एकमत होना चाहिए। भ्रष्टाचार में शामिल दोनों प्रकार के लोग एक तो जो घूस लेते हैं और दूसरे जो देते हैं - दोनों को रोकने के कार्यक्रम बनाने चाहिए। महंगाई पर अंकुश लगना चाहिए और इसके लिए संबंधित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कारणों पर काबू पाना चाहिए। इसी प्रकार, देश के ग्रामीण और शहरी बेरोजगार युवकों को रोजगार देना यह एक मूलभूत सवाल है। देशी या विदेशी कंपनियों को खनिज के दोहन के लिए खुली छूट देकर उस जमीन पर बसने वाले लोगों को विस्थापित करने की नीति को रद्द किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त शिक्षा के निजीकरण और व्यापारीकरण के कारण गरीब वर्ग शिक्षा से वंचित हो गया है। इस प्रकार के अनेक मूलभूत सवाल, जो चुनाव के शोरगुल में दब गए हैं, उन्हें आज उठाना निहायत जरूरी हो गया है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य