बीते
साल में दिल्ली
में क्राइम में
बेहिसाब वृध्दि हुई है।
पुलिस के अनुसार
रेप की 680 वारदातों
की तुलना में
2013 में 1559 वारदातें हुई हैं। चैन
खींचना और चोरी
की वारदातें भी
लगभग दूनी हो
गई हैं। रेप
के संदर्भ में
कहा जा सकता
था कि निर्भया
काण्ड के बाद
देश में चेतनता
बढ़ी है और
पूर्व में जो
दर्ज नहीं कराई
जाती थीं वे
अब दर्ज कराई
जाने लगी हैं।
लेकिन चेन स्नैचिंग
जैसे अपराधों में
वृध्दि से संकेत
मिलता है कि
क्राइम चौतरफा बढ़ा है।
बढ़ते क्राइम का
एक प्रमुख कारण
शहरों पर जनसंख्या
का बढ़ता दबाव
है। अनुमान है
कि 2025 तक दिल्ली
विश्व का दूसरा
सबसे बड़ा शहर
हो जायेगा जहां
तीन करोड़ से
अधिक लोग रहेंगे।
गांव खाली हो
रहे हैं। लोग
शहरों की ओर
पलायन कर रहे
हैं। कारण यह
कि कृषि से
आय की सीमा
है और गांव
में रहकर जीवनस्तर
में सुधार हासिल
करना कठिन हो
रहा है।
दस
एकड़ जमीन में
एक टै्रक्टर और
एक टयूबवेल से
यादा निवेश नहीं
हो सकता है।
फ्लोरीकल्चर जैसे छिटपुट
क्षेत्रों को छोड़
दें तो एक
सीमा के बाद
इसमें निवेश नहीं
हो सकता है।
पूंजी के न्यून
उपयोग के कारण
आय में वृध्दि
भी नहीं हो
सकती है। 100 गज
भूमि पर बने
दफ्तर में 50 इंजीनियर
करोड़ों रुपये के साफ्टवेयर
बना सकते हैं।
परन्तु 100 गज खेत
से टिशूकल्चर से
भी एक लाख
रुपया कमा पाना
कठिन होगा। यही
कारण है कि
लोग शहर की
ओर पलायन कर
रहे हैं। यह
विकास की स्वाभाविक
चाल है। अमेरिका
में एक प्रतिशत
से भी कम
लोग कृषि में
कार्यरत हैं फिर
भी वह देश
खाद्यान्नों का भारी
मात्रा में निर्यात
कर रहा है।
हम भी उसी
दिशा में चल
रहे हैं।
शहरों
में पानी, बिजली,
सड़क, स्कूल और
थियेटर जैसी सुविधाओं
को उपलब्ध कराना
सस्ता पड़ता है।
कुछ वर्ष पहले
मैंने राजस्थान की
जल नीति का
अध्ययन किया था।
पाया कि शहर
की तुलना में
गांव में पेयजल
पहुंचाने का खर्च
लगभग दस गुना
अधिक पड़ता है।
छोटे-छोटे कस्बे
दूर बसे होते
हैं। लम्बी पाइप
लाइन बिछानी होती
है। टूट-फूट
यादा होती है।
यही हाल बिजली
और सड़कों का
है। गांव में
अच्छे स्कूल स्थापित
नहीं हो पाते
चूंकि अच्छे टीचरों
को आकर्षित करने
के लिये संख्या
में छात्र उपलब्ध
नहीं होते हैं।
सिनेमा, थियेटर और बस
सेवा भी कम
ही मिलती है
चूंकि क्रय शक्ति
का अभाव होता
है।
गांव
में उद्योग लगाने
के अनेक प्रयास
किये गये परन्तु
ये सफल नहीं
हुए। विषय ढुलाई
के खर्च से
जुड़ा हुआ है।
गन्ने की ढुलाई
में खर्च यादा
आता है। इससे
केवल 10 प्रतिशत चीनी बनती
है। चीनी की
ढुलाई कम पड़ती
है। शहर में
चीनी मिल लगाई
जाए तो 100 किलो
गन्ना ढोकर लाना
होगा। इसके विपरीत
यदि गांव में
ही चीनी मिल
लगा दी जाए
तो केवल 10 किलो
चीनी की ढुलाई
करनी होगी। तुलना
में आटा मिल
शहर में लगाना
माफिक पड़ता है।
100 किलो गेहूं से लगभग
90 किलो आटे का
उत्पादन होता है।
दोनों की ढुलाई
लगभग बराबर पड़ती
है। शहर में
बिजली की सप्लाई,
मशीन की रिपेयरिंग,
कारीगर की उपलब्धि,
बाजार से सम्पर्क
आदि भी आसान
होता है। यही
कारण है कि
पिछले 60 वर्षों में सरकार
के तमाम प्रयासों
के बावजूद गांवों
में उद्योग नहीं
लग पाए हैं।
शहरों
के विकास के
पीछे सरकार के
द्वारा दी जा
रही आर्थिक मदद
भी है। सीमांध्रा
के लोग इसलिये
उत्तेजित हैं कि
लम्बे समय से
उनकी गाढ़ी कमाई
का निवेश हैदराबाद
में किया गया
है। हैदराबाद की
सड़कें चकाचक हो
गईं जबकि सीमांध्रा
की टूटी-फूटी
रहीं। हैदराबाद के
तेलंगाना को दिए
जाने की स्थिति
में इस निवेश
का लाभ उठाने
से वे वंचित
हो जायेंगे। यदि
आंध्र की सरकार
ने हैदराबाद के
साथ-साथ दूसरे
शहरों में
भी निवेश किया
होता तो ऐसा
असंतुलन पैदा नहीं
होता।
इन
सभी कारणों से
शहरों का विस्तार
अनिवार्य है। लेकिन
मुम्बई तथा दिल्ली
जैसे मेगा सिटी
में क्राउडिंग के
कारण अनेक समस्याएं
पैदा हो रही
हैं। लोग झोपड़पट्टियों
में रहने को
मजबूर हैं। वहां
सफाई की कमी
के कारण मलेरिया
और डेंगू जैसे
रोग उत्पन्न हो
रहे हैं जो
अमीरों की कालोनियों
में भी अपना
प्रकोप दिखा रहे
हैं। यहां क्राइम
यादा है और
इसमें निरंतर वृध्दि
हो रही है
जैसा कि ऊपर
बताया गया है।
टेरी यूनिवर्सिटी के
एक अध्ययन में
पाया गया है
कि रात में
नजदीकी क्षेत्रों की तुलना
में दिल्ली का
तापमान 5 से 7 डिग्री
अधिक रहता है।
इस कारण पंखे
और एयर कंडीशनर
का उपयोग यादा
होता है। बिजली
की खपत से
पुन: गर्मी उत्पन्न
होती है जो
शहर को एक
भट्टी के समान
बना देती है।
शहरों में पार्र्क आदि
खुले स्थानों का
भी अभाव होता
जा रहा है।
न्यूयार्र्क के
आयोना कालेज के
प्रोफेसर लियोन के अनुसार
मुम्बई में प्रति
व्यक्ति केवल एक
वर्ग मीटर पार्क
उपलब्ध है जबकि
न्यूयार्र्क में
26 वर्ग मीटर और
लंदन में 31 वर्ग
मीटर। दिल्ली में
यमुना के तट
एवं अरावली के
रिज पर कंस्ट्रक्शन
चालू है और
हम भी मुम्बई
की राह पर
चल रहे हैं।
हमें
दो समस्याओं के
बीच रास्ता निकालना
है। एक तरफ
गांवों का संकुचन
और शहरों का
विस्तार अवश्यम्भावी है। दूसरी
तरफ मेगा सिटी
में स्वास्थ्य, क्राइम
एवं गर्मी जैसी
समस्याएं पैदा हो
रही हैं। इन
दोनों समस्याओं का
हल छोटे शहरों
के विकास से
निकल सकता है। मेरठ,
बुलन्दशहर, पानीपत, रोहतक और
भरतपुर जैसे छोटे
शहरों में सड़क
आदि सुविधाओं में
निवेश करने से
अनेक उद्योग दिल्ली
के स्थान पर
इन शहरों में
स्थापित हो सकते
हैं। यहां जमीन
सस्ती है और
श्रमिकों की सप्लाई
भी है। इन
शहरों के विकास
से पिरामिड जैसा
शहरीकरण होगा न
कि वर्तमान में
चल रहे खम्भे
जैसा। मैकिन्सी ग्लोबल
इंस्टीटयूट द्वारा किये गये
अध्ययन में सुझाव
दिया गया है
कि टियर 3 और
4 के शहरों को
1000 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति
वर्ष का अतिरिक्त
अनुदान दिया जाना
चाहिए। छोटे शहरों
के विकास से
ही दिल्ली जैसे
मेगा सिटी पर
दबाव कम होगा
और क्राइम आदि
समस्याओं पर काबू
पाया जा सकेगा।
मेगा सिटी के
बाशिंदों को समझना
चाहिए कि
उनके द्वारा देश
के सभी संसाधनों
पर कब्जा करना
उनके लिये घातक
होगा। नदी की
बाढ़ को छोटे
नालों को डाइवर्ट
करके ही रोका
जा सकता है।
बाढ़ आने के
बाद उसपर काबू
पाना कठिन होता
है। अत: समय
रहते छोटे शहरों
के विकास के
लिये ठोस प्रोग्राम
बनाना चाहिये। इनकी
बुनियादी सुविधाओं में सुधार
का व्यापक प्रोग्राम
बनाना चाहिये। सांस्कृतिक
और खेलकूद आदि
को प्रोत्साहन देने
के लिए थियेटर
और स्टेडियम बनाने
के लिए बिजली
की सप्लाई सुनिश्चित
करनी चाहिए। इन
कदमों को नहीं
उठाया गया तो
बड़े शहरों पर
दबाव बढ़ेगा और
परिस्थिति पर नियंत्रण
करना कठिन हो
जायेगा। मेगासिटी के हित
में है कि
छोटे शहरों का
सुधार किया जाए।
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