माइक्रोसॉफ्ट के नए चीफ एग्जीक्यूटिव
के पद पर सत्या नडेला की नियुक्ति से टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी भारतीय नेतृत्व
और आंत्रप्रेनरशिप की क्षमता सिद्ध होती है। इसके साथ ही यह भारत की शिक्षा और
आर्थिक व्यवस्था पर विचार करने पर बाध्य करती है।
नडेला शीर्ष पर मौजूद अकेले भारतीय
नहीं हैं। बैंकिंग व फाइनेंस से लेकर कम्प्यूटर व आईटी और हार्ड तथा सॉफ्ट
ड्रिंक्स बनाने के क्षेत्र तक दुनिया की बड़ी कंपनियों के शीर्ष पर भारतीय काम कर
रहे हैं। शीर्ष 10 भारतीय सीईओ ऐसी कंपनियां चला रहे हैं जिनकी सालाना बिक्री 400
अरब डॉलर के आसपास है, जो
भारत के कुल निर्यात से ज्यादा है।
इनमें 66 अरब डॉलर की सालाना आमदनी
वाली पेप्सीको की इंदिरा नूयी शामिल हैं, जो 78 अरब डॉलर की माइक्रोसॉफ्ट से बहुत ज्यादा पीछे नहीं है। फिर
पुणे में जन्मे इवान मेनएजिस पिछले ही साल दुनिया की सबसे बड़ी शराब निर्माता
कंपनी डाजियो के सीईओ बने। बैकिंग और फाइनेंस तो हमेशा ऐसे क्षेत्र रहे हैं जहां
भारतीय मूल के लोगों ने अपनी श्रेष्ठता साबित की है।
विक्टर मेनएजिस ने शीर्ष पर पहुंचने
में विफल रहने के पूर्व सिटी बैंक में शानदार कॅरिअर बनाया। विक्रम पंडित सिटी
बैंक में शीर्ष पर तो पहुंचे, लेकिन वे वहां कभी सहज नहीं हो पाए। विश्व बैंक, आईएमएफ और संयुक्त राष्ट्र तो हमेशा
प्रतिभाशाली भारतीयों के लिए अच्छी जगह साबित हुए हैं। आज अंशु जैन डॉयचै बैंक के
को-सीईओ, अजय बंगा मास्टर कार्ड के हैड हैं और
पीयूष गुप्ता डीबीएस ग्रुप होल्डिंग्स को चला रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
शीर्ष पर मौजूद लोगों में रेकीट बेनकीजर के राकेश कपूर, ग्लोबल फाउंड्रिज के संजय झा और एडोब
के शांतनू नारायण भी शामिल हैं।
रजत गुप्ता बहुत ही शानदार ढंग से मैकिंजी
के एमडी बने और दो बार फिर चुने गए। वे और अनिल कुमार (आईआईटी मुंबई, इम्पीरियल कॉलेज लंदन और व्हार्टन
स्कूल) मैकिंजी की शक्तिशाली जोड़ी थी। गुप्ता गोल्डमैन सैक, प्रॉक्टर एंड गैम्बल और अमेरिकन
एयरलाइंस के बोर्ड सदस्य थे। उन्हें ऐसे पहले भारतीय के रूप में देखा गया, जिसने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ
के रूप में नई जमीन तोड़ी।
इस तरह क्रिकेटप्रेमी नडेला बड़ी
बहुराष्ट्रीय कंपनी के शीर्ष पर पहुंचने वाले न तो पहले और न अंतिम भारतीय हैं।
उनकी नियुक्ति से कोई विवाद तो खड़ा नहीं हुआ, लेकिन हाई टेक्नोलॉजी की दुनिया में एक बहस जरूर छिड़ गई। यह कहा गया
कि माइक्रोसॉफ्ट रास्ता भटक गई है। पर्सनल कम्प्यूटर के क्षेत्र में तो इसका दबदबा
है पर स्मार्ट डिवाइस में इसका 15 फीसदी हिस्सा ही है, जबकि भविष्य इसी का है।
बड़ा सवाल यह है कि क्या 'टाइम' का यह दावा सही है कि 'ग्लोबल बॉसेस के लिए भारतीय उपमहाद्वीप आदर्श ट्रेनिंग ग्राउंड हो
सकता है।' इस पर विचार करना होगा। बहुराष्ट्रीय
कंपनियों के शीर्ष पर पहुंचने वाले ज्यादातर भारतीयों ने प्रारंभिक शिक्षा तो भारत
में हासिल की, लेकिन उसके बाद आगे की शिक्षा के लिए
विदेश चले गए, आमतौर पर अमेरिका।
रजत गुप्ता पहले आईआईटी दिल्ली गए और
फिर उन्होंने हार्वर्ड से एमबीए किया। नूयी मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से आईआईएम
कोलकाता गईं और फिर येल स्कूल ऑफ मैनेजमेंट पहुंचीं। यह जरूर है कि येल पहुंचने के
पहले वे भारत में काम कर चुकी थीं। डॉयचै बैंक के जैन दिल्ली के श्रीराम स्कूल ऑफ
कॉमर्स से फाइनेंस में एमबीए करने
मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी, एमहस्र्ट पहुंचे। बेंगलुरू के स्कूल से नडेला मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ
टेक्नोलॉजी पहुंचे। फिर विस्कॉन्सिन-मिलवॉकी यूनिवर्सिटी में कम्प्यूटर विज्ञान का
अध्ययन किया और बाद में शिकागो के स्कूल
ऑफ बिजनेस से एमबीए किया।
बेशक, भारत को यह श्रेय देना ही होगा कि उसने स्कूलों में ऐसे छात्र तैयार
किए, जो होनहार हैं जिनमें दुनिया का सामना
करने का माद्दा है। यह बात कम से कम अच्छे इंग्लिश स्कूलों में तालीम हासिल करने
वाले बच्चों के बारे में तो कही ही जा सकती है। यदि आप अच्छे पढ़े-लिखे भारतीय
किशोरों को देखें तो उस छात्र या छात्रा में एक आत्मविश्वास देखेंगे। उनमें सामने
वाले की प्रतिष्ठा को लेकर ज्यादा चिंता किए बिना सवाल पूछने की तैयारी निश्चित ही
नजर आती है। सवाल पूछने वाली यह युवा पीढ़ी कोई भी बात मानकर नहीं चलती। इसकी
तुलना में इसी उम्र के जापानी छात्रों को लें तो वे अपने आपमें सिमटे नजर आएंगे और
सवाल नहीं पूछेंगे।
ऐसे में कुछ लोग सवाल करते हैं कि यदि
भारतीय इतना अच्छा काम कर रहे हैं तो स्वदेश लौटकर भारतीय कॉर्पोरेट जगत का
रूपांतरण क्यों नहीं कर देते? एक सतही जवाब तो यह है कि कई पुरानी भारतीय कंपनियां परिवार चलाते
हैं और वे विदेश में एमबीए करने वालों को घुसपैठ नहीं करने देते, किंतु यदि आपको अमेरिका जाने का मौका
मिल जाए और एमबीए के जरिये (पीएचडी के नहीं, जो एक रोचक फर्क है) किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के शीर्ष पर जाने को
मिल जाए तो क्या आप भारत लौटना चाहेंगे? यही बात होनहार ब्रिटिश ग्रेजुएट्स के बारे में भी सही है।
सवाल का जवाब यह है कि भारतीय
अर्थव्यवस्था पर्याप्त रूप से खुली नहीं है और उसे ताजगी देने वाले सुधारों की
जरूरत है। मैं सिर्फ खुदरा व्यापार को खुला करके बड़े विदेशी सुपर बाजारों को
अनुमति देने की बात नहीं कर रहा हूं। यदि बाजार खोल दिए जाएं और उन्हें उचित तरीके
से रेग्यूलेट किया जाए तो भारतीय कंपनियां विदेशी घुसपैठियों को पीछे छोड़ देंगी, जैसा थाईलैंड और जापान में हुआ, जहां स्थानीय लोगों ने विदेशी कंपनियों
से सीखकर उन्हें पीछे छोड़ दिया।
किंतु भारत के सामाजिक व आर्थिक ढांचे
की सबसे बड़ी खामी यह है कि सारे बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा मुहैया नहीं है। मैं
पिछले 30 सालों से उत्तरप्रदेश के एक गांव जाता रहा हूं। वहां अब जाकर स्कूल खुला
है। जहां वे सारे बच्चे पढऩे आते हैं, जो फीस चुका सकते हैं। वहां छह साल से किशोर उम्र तक सारे आयु वर्ग
के बच्चे पढ़ते हैं। मैं जब इन बच्चों के चमकते चेहरे देखता हूं तो लगता है कि
उन्हें क्यों सीईओ या इससे भी ऊंचे पहुंचने का लक्ष नहीं रखना चाहिए। अन्य देशों
के उदाहरणों से सबक मिलता है कि जब सारे लोगों को ऊंची तालीम हासिल होती है तो
अर्थव्यवस्था फलती-फूलती है। भारत को चाहिए कि वह अपने बच्चों को अशिक्षा से
निकालने के लिए और भी कुछ करे, ताकि जब कोई सत्या नडेला विदेशी जमीन पर अपना हुनर दिखाए तो हमें कोई
आश्चर्य न हो।
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