शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

महिला आर्थिक उन्नयन में जरूरी है परिवार की भागीदारी

जीवन में आर्थिक पहलू की कोई सामान्य व्यक्ति अवहेलना नहीं कर सकता। सम्मानपूर्वक समाज में रहने और जीवनयापन करने के लिए कदम-कदम पर पैसे की जरूरत पड़ती है।आज सामान्य युवक चाहते हैं कि उनकी पत्नी भी यदि अर्थोपार्जन करके परिवार के जीवन स्तर में कुछ वृध्दि कर सकती है तो जरूर करे। किन्तु जाहिर है कि यदि वह स्त्री पैसा कमाने की ओर ध्यान देगी, तो घर के रखरखाव और बेड़ों  तथा बच्चों की परवरिश पर उतना ध्यान नहीं दे पायेगी, जितने की अपेक्षा, सामान्यत: परिवार के लोग उससे करते हैं। दिन के घंटे तो उतने ही सीमित हैं जितने पहले थे। घर अस्त-व्यस्त हो, बच्चे बार-बार सर्दी, गर्मी, या अनियमित जीवन की वजह से बीमार पडें, उन्हें ठीक खान-पान मिले, इससे घर के सभी सदस्यों में असंतोष फैलेगा। तब फिर इस समस्या का क्या हल है?

यह नहीं हो सकता कि घर के अन्य सदस्यों की जीवन पध्दति में कोई परिवर्तन ही आए, और घर की बहू नौकरी पर जाती रहे, या कोई व्यवसाय शुरू करें। देश की 60 करोड़ महिलाओं में से शायद एक या 2 करोड़ को छोड़कर, शेष को तो कुछ कुछ करना ही पड़ता है। चाहे यह अर्थोपार्जन घर की आधारभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए हो, चाहें उन्हें अपनी प्रतिभा को निखारने का अवसर देने के लिए हो।

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अलग-अलग अवसर : देखा जाता है कि शहरी क्षेत्रों में व्यवस्थाएं इस विषय के संबंध में बेहतर हैं। शहरों में पढ़ने- पढ़ाने, कौशल हासिल करने और तकनीकी, प्रबंधकीय लेखा, सचिवीय, होटल प्रबंधन, सत्कार घरेलू परिचारिका आदि अनेक प्रकार के ऐसे अवसर हैं, जो गाँवों में स्त्रियों को उपलब्ध नहीं होते। किन्तु आज भी भारत की 80 प्रतिशत जनता गाँवों में ही रहती है। यहां उनके रहते हुए यदि कोई समाजसेवी संस्था उनकी सहायता आर्थिक उपार्जन के लिए कर देती है, तब तो उनको काम मिल जाता है, अन्यथा उन्हें भयंकर गरीबी झेलनी पड़ती है। हमारे लिए अनाज, सब्जी, फल उगाने वाले दुधारू पशुआें को पालने वाले ये लोग खुद बहुत ही कम पैसे में गुजर करते हैं। इसका असर यह होता है कि स्त्रियों में रक्त का अभाव होता है, हड्डियों में कमजोरी, और पूरे बदन में गिरावट का असर दिखाई देता है। भावी संतानों का जन्म भी ऐसे में कुपोषित ही बच्चों को दुनिया में लाता है। पुरुषों का वजन भी औसत से कम होता है। छत्तीसगढ़ में तो यह बात खूब देखने में आती है। समय पर छोटी बीमारी का इलाज होने के कारण आगे वह बढ़कर विकराल बन जाती है और असमय मृत्यु का कारण भी बनती है।

ग्रामीण क्षेत्र में स्त्रियों की व्यस्तता कृषि कार्यों से जुड़ी रहती है।  खरीफ का मौसम जून-जुलाई से लेकर दिसम्बर-जनवरी तक उन्हें व्यस्त रखता है, और रबी का मौसम अक्टूबर-नवम्बर से मार्च तक व्यस्तता बनाये रखता है। परन्तु अप्रैल से जून तक ये लोग खाली रहती हैं। जहां एक फसली इलाका होता है वह जुलाई, अगस्त, सितम्बर से दिसम्बर के अलावा उनके पास काम नहीं होता। ही जेब में पैसा। भारत की 60-65 प्रतिशत जनता अथवा 40-50 करोड़ ग्रामीण स्त्रियों की आयु 35 वर्ष से कम है। प्रतिदिन वे 4-5 घंटे आर्थिक लाभ के लिए कुछ कुछ कार्य कर सकती हैं, बशर्ते उनके पास कार्य करने का हुनर हो, और उन तक हुनर की प्रारंभिक व्यवस्था तथा उस हुनर को काम लाने वाली कोई संस्था हो।

लखनऊ की 'सेवा' संस्था इन्हीं परिस्थितियों में महिलाओं की मदद करती थी।  पहले उन महिलाओं को चिकन की कढ़ाई सिखलाई जाती थी। उसके बाद संस्था कोरे कपड़े पर कढ़ाई का डिजाईन छाप कर कपड़ा धागा उन्हें सौंप देती थी और एक निश्चित अन्तराल पर कसीदाकारी किया हुआ माल, उन्हें उनका मेहनताना देकर ले जाती थी। इसी प्रकार कहीं-कहीं चिन्दी साड़ियों से बनी दरियां, पहनने के वस्त्रों की सिलाई (जिनमें स्कूलों की यूनिफार्म भी शामिल है) करके भी महिला समूह अपना लाभ कमाती हैं। इस प्रकिया में 200-300 रुपए रोज की कमाई वे कर लेती हैं।

अभी एक-दो नई सरकारी योजनायें भी इसी दिशा में कार्य बढ़ाने के लिये प्रारंभ की गई हैं। इनसे लड़कियों के हुनर में दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगति रही है। यहां तक, कि दंतेवाड़ा जैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में भी दर्जनों लड़कियां होटल में सत्कार कार्य (रेस्तोरां की सजावट), कम्प्यूटर, सिलाई आदि सीखती दृष्टिगत हुईं। कई लड़कियां काम सीखने के बाद तमिलनाडु के तिरुप्पुर क्षेत्र में नौकरी पाकर चली गईं। भारत में तिरुप्पुर सबसे यादा रेडीमेड वस्त्रों का विदेश को निर्यात करता है।

कार्य के कुछ नये क्षेत्र: कल तक जहां सौंदर्य प्रसाधनों का सही उपयोग सौंदर्यवर्धन के लिए करने की बात गांव के लोग जानते तक नहीं थे, आज वहीं इस दिशा में काम सीखने के लिए अनगिनत लड़कियां उत्सुक हैं। दिक्कत यही है कि उनके लिए शिक्षिका गांव में कहां से आए? शिक्षिका का आना-जाना और लड़कियों का उससे सब काम सीखकर उसकी परीक्षा पास कर पाना कितने घंटों में हो पायेगा? कोई काम 60 घंटों में तो कोई 20 घंटों में ही सीखा जा सकता है। ब्यूटी केयर के अन्तर्गत मालिश जैसी सामान्य सेवा भी मौजूद है। यह एकदम साधारण सेवा भी दिल्ली शहर में एक घंटे में एक महिला को 250 रुपए की आमदनी मिल सकती है। गांवों में शायद 200 रुपए प्रतिदिन कमा लेना कठिन नहीं होगा। यह हुनर सीख लें तो गरीबी उन्मूलन हो। किसी आय वर्धन के काम के लिए परिश्रम और हुनर दोनों उपलब्ध हों, तो अनावश्यक हिचक छोड़ने को तैयार रहना चाहिए। महिलाएं ये सेवायें प्रदान करने की एजेंसी भी चला सकती हैं।


दक्षिण भारत अग्रणी: महिला उद्यमिता के क्षेत्र में दक्षिण भारत के मद्रास और मदुराई शहरों ने काफी प्रगति दर्शाई थी। धीरे-धीरे स्थिति यह बनी है कि वर्ष 2003 तक मदुरै जिले के कुल 294 उद्योगों को जो कि कुल का 4.53 होता है महिलाएं चलाती हैं। उद्योग महिलाएं चलाती हैं। मद्रास में 1176 महिलाएं उद्योग चलाती हैं, जो कुल का 18.13 प्रतिशत होता है।  इनमें सर्वाधिक उद्योग रेडीमेड वस्त्र बनाने तथा खिलौना बनाने, कम्प्यूटर कार्य, ब्यूटीशियन तथा केटरिंग से संबंध रखते हैं। यह एक तथ्य है कि मदुरै जिले में 'असेफा' नामक संस्था तथा धान फाउंडेशन जैसी प्रसिध्द समाजसेवी संस्थाएं सक्रिय हैं, जिन्होंने हजारों महिला समूहों का गठन कराया है। यही नहीं, इन्होंने विकास खण्ड स्तर पर उन समूहों के संघ स्थापित करके उनकी कुल बचत को महिला उद्योगों को स्थापित करने या उनके व्यापार को बढ़ाने के लिए ऋण के रूप में दिया है। यहां गांव के घरों में स्त्रियां ही नहीं, पुरुष भी स्वयं सहायता समूहों में अत्यधिक रुचि लेते हैं। सम्पूर्ण परिवार के सहयोग से महिला कृषि, दुधारू पशु पालन, वस्त्र उद्योग, सभी में महती सफलता प्राप्त कर रही हैं। इस तरह से ये छोटे-छोटे कदम वहां महिला उन्नयन के लिये एक मिसाल बन गए हैं।

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