कमरतोड़ महंगाई, आय के असमान वितरण तथा गिरती विकास दर
ने देश के लगभग बीस करोड़ मध्यवर्ग को हिलाकर रख दिया है। बदहाल आर्थिक स्थिति के
कारण इस तबके के मन में यह डर गहराता जा रहा है कि उसे देश के संपन्न तीन फीसदी
लोग गरीबों की जमात में धकेलने पर आमादा हैं। शिक्षा और संपन्नता का स्वाद चख चुका
महत्वाकांक्षी मध्यवर्ग इसी कारण बेचैन है। स्थापित राजनीतिक दलों और मौजूदा
व्यवस्था से उसका भरोसा उठता जा रहा है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी का उदय इसी
आक्रोश का परिणाम है। ताकत बढ़ाने के लिए यह वर्ग अपने साथ बहुसंख्यक गरीब तबके को
जोडऩे की रणनीति बना रहा है। देश की आर्थिक परिस्थिति से नये राजनीतिक समीकरण उभर
रहे हैं। सयाने लोग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कांग्रेस और मोदी को राहुल
गांधी का विकल्प मानने को राजी नहीं हैं। केंद्र में सत्ता का सपना देख रही भाजपा
से कांग्रेस की आर्थिक नीतियों का विकल्प पूछा जा रहा है। इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर
भाजपा या मोदी के पास नहीं है। जानकारों को पता है कि भाजपा तथा कांग्रेस की
आर्थिक नीतियों में कोई मूल भेद नहीं है। दोनों पार्टियां आर्थिक उदारीकरण और
बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की पैरोकार हैं। उनमें लड़ाई कुर्सी पर कब्जे के लिए है, नीतियां बदलने के लिए नहीं।
बात आगे बढ़ाने से पहले देश की मौजूदा
आर्थिक स्थिति का जायजा लिया जाना जरूरी है। योजना आयोग का दावा है कि पिछले सात
साल में देश की 15.3 प्रतिशत आबादी को गरीबी और गुरबत से बाहर निकाला जा चुका है।
सरकार दावा कर रही है कि आज देश में केवल 21.9 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे
हैं। सरकारी मापदंड के अनुसार एक महीने में गांव में रहने वाले आदमी की आय यदि 816
रुपये और शहर में निवास करने वाले की एक हजार रुपये है तो वह संपन्न है। इस सरकारी
झूठ की काट के लिए कुछ और आंकड़े देना जरूरी है। भारत सरकार के नेशनल फैमिली हेल्थ
सर्वे-3 (2005-06) के अनुसार देश में छह से 35 माह आयु वर्ग के 78.9 प्रतिशत बच्चे
और 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 56.2 फीसदी विवाहित महिलाएं एनीमिक (खून की कमी) से
पीडि़त हैं। ताजा जनगणना (वर्ष 2011) के आंकड़े बताते हैं कि भारत के 53.1 प्रतिशत
घरों में शौचालय नहीं है और जहां हैं वहां 47 फीसदी में पानी का कोई बंदोबस्त नहीं
है। 71 प्रतिशत घरों की छतें कंक्रीट नहीं, मिट्टी-घास या टायल से बनी हैं। 52.5 प्रतिशत घरों की दीवारें ईंट
नहीं, पत्थर-मिट्टी या घास से बनी हैं तथा
37.1 फीसदी घर केवल एक कमरे के हैं। आजादी के 67 साल बाद भी 70 प्रतिशत से ज्यादा
घरों का चूल्हा लकड़ी, गोबर
के उपलों या मिट्टी के तेल से जलता है। देश की आधी से ज्यादा आबादी आज भी खुले में
नहाने को मजबूर है। ये सारे आंकड़े सरकार के कंगाली कम करने के दावे की पोल खोलते
हैं। मामूली समझ रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि यदि कोई संपन्न होगा तो वह खुले
में शौच नहीं जाएगा, आसमान
के नीचे नहीं नहायेगा, कच्चे
घर में नहीं रहेगा तथा खाना बनाने के लिए गैस के बजाय उपले या लकड़ी का इस्तेमाल
नहीं करेगा। अपने बच्चों और बीवी की खून की कमी या कुपोषण जैसी जानलेवा कमजोरी तो
कतई बर्दाश्त नहीं करेगा।
बाजार के इशारों पर नाच रही हमारी
अर्थव्यवस्था की प्राथमिकता जलकल्याण नहीं, मुनाफा है। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए राशन, बिजली, खाद,
पानी, रोजगार आदि से जुड़ी जनकल्याणकारी
योजनाओं में दी जा रही सबसिडी घटाने का सरकार पर भारी दबाव है। सीधे-सीधे सबसिडी
कम करने से जन-आक्रोश पनपेगा, इसलिए आंकड़ों की बाजीगिरी कर गरीब आबादी को कम दिखाने की साजिश रजी
जा रही है। गणित सीधा-सीधा है—जितने कम गरीब होंगे, सबसिडी का बोझ उतना ही कम हो जायेगा और सबसिडी जितनी कम होगी, राजकोषीय घाटा उतना ही घट जायेगा।
यह तो था आर्थिक मोर्चे का कड़वा सच।
अब जरा न्याय व्यवस्था और उससे गरीब व मध्य वर्ग पर पड़ रही चोट का खाता खोला जाए।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार पिछले चालीस साल में भारतीय दंड
संहिता (आईपीसी) के तहत दर्ज अपराधों में सजा मिलने की दर घटकर लगभग आधी रह गई है।
ऐसे मामलों में 1972 में सजा मिलने का प्रतिशत 62.7 था जो सन् 2012 आते-आते गिरकर
38.8 फीसदी रह गया। हत्या, बलात्कार और डकैती जैसे जघन्य अपराधों के आरोपियों को सजा मिलने का
औसत तो और भी कम है। हत्या के 35.6 फीसदी, डकैती के 28.5 फीसदी और बलात्कार के महज 24.5 फीसदी आरोपियों को
अदालत दंड देती है। 1972 में थानों में दर्ज 30.9 प्रतिशत मामलों की जांच पूरी कर
पुलिस ने अदालत में चार्जशीट दाखिल की, जबकि चार दशक बाद यह आंकड़ा गिरकर मात्र 13.4 प्रतिशत रह गया। अगर
अदालत में किसी तरह मुकदमा शुरू हो जाये, तब भी फैसला आने में अकसर एक दशक लग जाता है। यदि निचली अदालत के
निर्णय में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय तक जाने और वहां फैसला आने के समय को
जोड़ दिया जाये तो कई बार न्याय मिलने से पहले ही फरियादी की मौत हो जाती है। हम
मामूली अपराध के आरोपियों को मिलने वाले दंड का जिक्र नहीं कर रहे हैं क्योंकि ऐसे
केस तो आज पुलिस की जांच प्रक्रिया की प्राथमिकता में बहुत पिछड़ चुके हैं। न्याय
प्रक्रिया में व्याप्त भ्रष्टाचार, वहां होने वाले भारी खर्चे और दशकों की देरी का हिसाब लगाएं तो यही
लगता है कि कानून का दरवाजा खटखटाना अब गरीब और मध्य वर्ग के बूते से बाहर हो चुका
है।
खस्ताहाल गरीब व मध्य वर्ग तथा न्याय
प्रणाली की कछुआ चाल जानकर यही कहा जाएगा कि देश की मौजूदा परिस्थितियां विस्फोटक
हैं। आम आदमी बेताबी से विकल्प खोज रहा है। बदलाव के लिए बड़े कदम उठाए जाने जरूरी
हैं। पिछले दो दशकों में खुली अर्थव्यवस्था की डगर पर चलने के बाद गरीब और अमीर के
बीच की खाई और चौड़ी हो गई है। चमचमाते हवाई अड्डे, लग्जरी मोटर गाडिय़ों, विशाल अट्टालिकाओं और मुठ्ठीभर अरबपतियों को देखकर देश की असलियत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।
गरीब और मध्य वर्ग के आक्रोश व पीड़ा का निदान शीघ्र खोजा जाना जरूरी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें