गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

उद्योग क्षेत्र बदले तभी बदलेगी तस्वीर

देश का औद्योगिक परिदृश्य बेहद निराशाजनक है। नवंबर, 2013 के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़े 2008-09 में आई वैश्विक मंदी जैसे चिंताजनक स्तर पर पहुंच गए हैं। ऐसे में, मौजूदा वित्त वर्ष के औद्योगिक उत्पादन में बहुत मजबूती की उम्मीद नहीं की जा सकती है। पिछले छह महीनों में खासकर महंगे उपभोक्ता सामान का उत्पादन घट जाने के चलते ही ऐसी स्थिति देखने को मिली है। अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम द्वारा जारी नई विश्व कारोबारी परिदृश्य रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कारोबार शुरू करने के लिए 12 प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है, जबकि दक्षिण एशियाई देशों में सात प्रक्रियाओं से और विभिन्न विकसित देशों में केवल पांच स्तरों से गुजरने के बाद कारोबार शुरू किया जा सकता है। विदेशी निवेशक यहां निवेश के लिए उत्सुक नहीं हैं। देश के अर्थशास्त्री और योजनाकार भी जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र की घटती हिस्सेदारी को लेकर खासे चिंतित हैं।

यदि औद्योगिक उत्पादन नहीं सुधरा, तो एजेंसियां हमारी क्रेडिट रेटिंग घटा सकती हैं। महंगाई दर को काबू करने के लिए ऊंची ब्याज दरों का जारी रहना, निवेश की कमी, बाहरी पूंजी प्रवाह की घटती दर और नीतिगत फैसलों के मोर्चे पर कमी की वजह से अर्थव्यवस्था की रफ्तार में कमी आई है। उभरते बाजार वाले अधिकांश देशों ने तीन साल पहले नौ फीसदी के स्थायी विकास वाले दौर में जबर्दस्त आर्थिक तरक्की का अनुभव किया है। भारत बढ़िया विकास दर के प्रदर्शन के बाद पांच फीसदी की दर पर लौट आया है, तो यकीनन विकास की इसकी विशिष्ट छवि को नुकसान पहुंचा है। देश के छोटे-बड़े उद्योग पूंजी की कमी और महंगे कर्ज के कारण परेशान हैं।

घरेलू मांग में कमी के कारण उत्पादन कार्य कठिनाई के दौर में है। उद्योगों की लागतें बढ़ गई हैं। बीमार औद्योगिक इकाइयों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसे देखते हुए हमें निवेशकों का विश्वास प्राप्त करना होगा। इसके अतिरिक्त, हमें राजस्व में सुधार लाने की भी आवश्यकता है। हमें ईंधन और उर्वरक के क्षेत्र में सब्सिडी को तार्किक बनाना होगा। इस बात पर ध्यान देना होगा कि सस्ते कर्ज से भारत का औद्योगिक और आर्थिक विकास नई गति प्राप्त कर सकता है। जिस तरह अमेरिकी और यूरोपीय बैंक सस्ती ब्याज दरों की बौछारें कर रहे हैं, वैसी अपेक्षाएं भारत के उद्योग-कारोबार जगत द्वारा भी की जा रही हैं। रिजर्व बैंक को ब्याज दर और बढ़ाने से बचना चाहिए। उद्योग जगत में यह संकेत जाना जरूरी है कि ब्याज दरों में कमी भले न आए, इसमें और वृद्धि न होगी और निकट भविष्य में इसमें कमी आएगी।

अब भी सरकार और रिजर्व बैंक अपने प्रयासों और योजनाओं से औद्योगिक उत्पादन और जीडीपी की विकास दर संबंधी निराशाओं को आशाओं में बदल सकते हैं। यहां आर्थिक विशेषज्ञों का यह मत भी उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनाव के बाद औद्योगिक एवं आर्थिक डगर पर देश लगभग उतनी ही तेजी से आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे सकता है, जिस तरह 1991 के आर्थिक सुधारों और आम चुनावों के बाद देश औद्योगिक एवं आर्थिक डगर पर आगे बढ़ा था। 1991 की शुरुआत में चुनाव से पहले देश के औद्योगिक परिदृश्य पर जो चिंताजनक स्थिति थी, उसमें सुधार का एजेंडा बड़ा सवाल बन गया था। वैसे में चुनाव जीतकर आई नई सरकार ने औद्योगिक परिदृश्य को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए थे। वर्ष 2014 में फिर वैसी ही स्थिति है, क्योंकि नई सरकार के कदम देश के उद्योगों एवं अर्थव्यवस्था के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। लेकिन नई सरकार बनने तक 2014 की पहली छमाही बीत चुकी होगी। सरकार को विरासत में कमजोर अर्थव्यवस्था एवं चिंताजनक औद्योगिक परिदृश्य मिलेगा।


ऐसे में रणनीतिक प्रयासों से औद्योगिक उत्पादन में इजाफा करना होगा। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के विकास के लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी योजना को आगे बढ़ाना होगा। खनिज संसाधनों से जुड़े लाभ को हासिल करने के लिए समुचित नीति और नियामक ढांचा तैयार करना होगा और औद्योगिक विकास दर बढ़ाने के लिए पूरी शक्ति लगानी होगी। यदि नई सरकार ऐसा कर पाई, तो नए वर्ष में देश की औद्योगिक एवं आर्थिक तस्वीर बेहतर रहेगी।

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