यूपीए सरकार का विदेशी निवेश का मोह
टूट नहीं रहा है। देश की अर्थव्यवस्था
ठंडी पड़ी हुई है। पहला कारण भ्रष्टाचार है। इससे उद्यमियों की लागत यादा आती है और
सस्ते आयातित माल के आगे वे टिक नहीं पाते हैं।
दूसरा कारण बुनियादी संरचना में निवेश का अभाव है। सरकारी राजस्व का उपयोग
मनरेगा और खाद्य सुरक्षा के माध्यम से गरीब को राहत पहुंचाने के लिए किया जा रहा
है। हाईवे, भूमिगत जल के भरण तथा बिजली के
ट्रांसफार्मरों में निवेश में कटौती की गई है। तीसरा कारण ऊंची ब्याज दर है। खर्चों को पोषित करने के लिए सरकार भारी मात्रा
में बाजार से ऋण ले रही है जिसके कारण ब्याज दर ऊंची है।
इन समस्याओं को हल करने पर ध्यान नहीं
दिया जा रहा है। बल्कि इन्हें पर्दे के पीछे छुपाकर विदेशी निवेश हासिल करके ग्रोथ
हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है जैसे ऊबड़-खाबड़ मैदान क्रिकेट न खेल सकने का
हल नया बैट खरीद कर खोजा जाय। इस दिशा में वाणिय मंत्री आनन्द शर्मा ने हाल में
कहा ''सरकार द्वारा एफडीआई पॉलिसी को सरल
बनाकर प्रयास किया जा रहा है कि भारत विदेशी निवेश आकर्षित करने का शीर्ष केन्द्र
बना रहे।'' सरकार ने खुदरा में टेस्का के निवेश
प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। ल्ेकिन दूसरी तरफ स्टील बनाने वाली पोस्को तथा
आरसेलर मित्तल कम्पनियों ने भारत में निवेश करने के अपने प्लान रद्द कर दिए हैं।
इसके बाद तेल उत्पादन करने वाली बीएचपी बिल्लीटन ने तेल की खोज करने के अपने प्लान
रद्द कर दिए हैं। रिटेल कम्पनी वालमार्ट भी भारत में निवेश करने को हिचकिचा रही
है।
समय बतायेगा कि सरकार के विदेशी निवेश
आकर्षित करने के ये प्रयास सफल होंगे या नहीं। लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की इस
हिचकिचाहट से भयभीत होने की जरूरत नहीं है। संभव है कि यह हमारे लिए लाभप्रद हो।
एनआइटी रूड़केला के प्रो. नारायण सेठी
ने पाया है कि विदेशी निवेश का भारत के आर्थिक विकास पर प्रभाव नकारात्मक है जबकि
बंगलादेश में सकारात्मक है यद्यपि दोनों ही प्रभाव गहरे नहीं हैं। कोलकाता
यूनिवर्सिटी की सर्वप्रिया राय ने पाया कि भारत में विदेशी निवेश और आर्थिक विकास
दर साथ-साथ चलते हैं। परन्तु उन्होंने यह भी पाया कि आर्थिक विकास तीव्र होने से
विदेशी निवेश यादा मात्रा में आता है। यानि आर्थिक विकास का लाभ उठाने के लिए
विदेशी कम्पनियां प्रवेश करती हैं। विदेशी कम्पनियों के आने से आर्थिक विकास दर
नहीं बढ़ती है। कारक घरेलू आर्थिक विकास है। विदेशी निवेश उसका परिणाम है। दूसरे
देशों में भी विदेशी निवेश और आर्थिक विकास का परस्पर एक- दूसरे के सम्बन्ध के ठोस
परिणाम नहीं मिलते हैं।
विदेशी निवेश के दूसरे कथित सुप्रभावों
के विषय में भी मैं आश्वस्त नहीं हूं। पहला सुप्रभाव तकनीक का बताया जाता है।
नि:सन्देह विदेशी कम्पनियों के आने से भारतीय माल की क्वालिटी में इम्प्रूव्हमेंट
हुआ है जैसे मारुति कार के आने से कारों की गुणवत्ता सुधरी है। परन्तु ऐसा सुधार
घरेलू प्रतिस्पर्धा से भी आ सकता था। ज्ञात हो कि सरकार ने कई दशक तक टाटा को कार
उत्पादन का लाइसेंस नहीं दिया था। दूसरे उद्यमियों को कार उत्पादन का लाइसेंस दे
देते तो प्रतिस्पर्धा गरमाती और गुणवत्ता में सुधार हो जाता। अत: तकनीकी सुधार
विदेशी निवेश के कारण ही हो रहा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है।
विदेशी निवेश का पूंजी पर प्रभाव भी संदिग्ध है। जानकार बताते हैं कि भारत
में आ रहे विदेशी निवेश का एक बड़ा हिस्सा घरेलू पूंजी के राउंड-ट्रिपिंग के कारण
है। देश से काला धन बाहर भेजकर उसे विदेशी निवेश के रूप में देश में वापस लाया जा
रहा है। स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि के विशाल होने के संकेत उपलब्ध
हैं। जितनी मात्रा में हमें विदेशी पूंजी मिल रही है उससे यादा मात्रा में हमारी
पूंजी बाहर जा रही है। अत: अपनी पूंजी की जरूरत को घरेलू पूंजी के पलायन को रोककर
एवं स्विस बैंकों से पूंजी को वापस लाकर पूरा किया जा सकता है। हमारी अर्थव्यवस्था
फूटे घड़े की तरह है। इसमें भारी मात्रा में पानी रिस रहा है। तुलना में कम पानी
भरा जा रहा है। फिर भी हमारा ध्यान विदेशी निवेश के माध्यम से आ रहे इस थोड़े से
पानी की ओर है। इन सभी कारणों से मैं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पलायन को अच्छा
मानता हूं और आशा करता हूं कि भारत सरकार का ध्यान घरेलू पूंजी की ओर मुड़ेगा।
पास्को, आरसेलर, मित्तल
तथा वालमार्ट का पलायन घरेलू जनता के विरोध के कारण हुआ है। इन बड़ी कम्पनियों
द्वारा लागू किये जाने वाला पूंजी-सघन उत्पादन देश की जरूरतों के अनुरूप नहीं है।
अमीर देशों में पूंजी अधिक और श्रमिकों की संख्या कम है। उनके लिए वालमार्ट की
कम्प्यूटरीकृत वितरण प्रणाली सुलभ है। भारत में परिस्थिति बिल्कुल भिन्न है। हमारे
नागरिकों के लिए खेती और नुक्कड़ की किराने की दुकानें जीवनदायिनी हैं। बड़ी
कम्पनियों के प्रवेश से बेदखल हुए लोगों के पास जीविकोपार्जन का दूसरा विकल्प नहीं
रहता है। वालमार्ट के द्वारा 30 प्रतिशत माल की खरीद देश में करने को स्वीकार नहीं
करना बताता है कि इस कम्पनी का घरेलू उद्यमों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अत:
विदेशी निवेश केवल उन्हीं चुनिन्दा क्षेत्रों में आकर्षित करना चाहिए जिन
क्षेत्रों में विदेशी कम्पनियां विशेष तकनीकें लेकर आती हैं। विदेशी निवेश के
प्रस्तावों को तकनीकों के आडिट के बाद ही स्वीकृति देनी चाहिए।
बात बचती है चीन की। सही है कि चीन ने
विदेशी निवेश को बड़े पैमाने पर आकर्षित किया है। विकास दर भी हमसे यादा है। परन्तु
चीन में उद्यमिता की परम्परा कम्युनिस्ट शासन के दौरान कम हो चुकी थी। उनके लिए
विदेशी निवेश को आमंत्रित करना जरूरी था। दूसरे, चीन की तीव्र विकास दर का मूल कारण ऊंची घरेलू बचत दर है। भारत की
तरह चीन में विदेशी निवेश का प्रभाव वास्तव में नकारात्मक हो सकता है। परन्तु ऊंची
घरेलू बचत दर के साये में यह नकारात्मक प्रभाव छिप जा रहा है।
भ्रष्टाचार, बुनियादी संरचना की खस्ताहाल हालत तथा
ऊंचे ब्याज दरों की समस्याओं का सामना करने के स्थान पर विदेशी निवेश के माध्यम से
सरकार इस कुशासन पर पर्दा डालने का प्रयास कर रही है। अपने घर को ठीक करने के
अलावा विकास का दूसरा कोई उपाय नहीं है। कई अध्ययनों के संकेत मिलते हैं कि जिन
देशों में घरेलू देशों की गवर्नेन्स की संस्थायें पुख्ता हैं उन देशों में विदेशी
निवेशों का सुप्रभाव देखा जाता है। इससे पुष्टि होती है कि विदेशी निवेश अनावश्यक
है। यदि हमारी गवर्नेन्स सुचारू है तो हम अपनी पूंजी का उपयोग करके अपने बलबूते पर
आर्थिक विकास हासिल कर सकते हैं। तब हमें विदेशी निवेश की जरूरत नहीं है। इसके
विपरीत यदि घरेलू गवर्नेन्स कमजोर है तो विदेशी निवेश का प्रभाव नकारात्मक हो जाता
है। ऐसे में भी हमें विदेशी निवेश की जरूरत नहीं है। अत: बहुराष्ट्रीय कम्पनियों
के पलायन से सबक लेते हुए हमें घरेलू समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। टेस्को जैसे
विदेशी निवेश की दो चार स्वीकृतियों को देने से संतोष नहीं करना चाहिए।
डॉ.
भरत झुनझुनवाला
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