गुरुवार, 16 जनवरी 2014

सब्सिडी का दुष्चक्र

एलपीजी के कई मायने निकलते हैं। यह लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस भी हो सकता है और लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन एवं ग्लोबलाइजेशन (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) भी, जिसकी अक्सर वाम झुकाव वाले आलोचना करते हैं। इसका एक मतलब सरकार द्वारा आम लोगों की जिंदगी पर डाले गए डाके (लाइफ प्लंडर्ड बाइ गवर्नमेंट) से भी है, जो सरकारी हस्तक्षेप विरोधी भावनाओं से जुड़ा हुआ है। यह एहसास तथाकथित मध्यवर्ग में लगातार बढ़ रहा है। इसकी वजह पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती कीमतें व इनमें और वृद्धि का प्रस्ताव है।

असल में, पेट्रो उत्पादों में मूल्यवृद्धि जरूरी हो गई थी, क्योंकि वित्तीय सब्सिडी का बोझ बर्दाश्त से बाहर जाने लगा था। इसे सरकार तेल मार्केटिंग कंपनियों के घाटे की भरपाई के लिए दे रही थी, जो रुपये में कमजोरी के कारण और बढ़ गया। लेकिन यह कुतर्क है। दरअसल, अगर इसकी तुलना उस सार्वजनिक खर्च से की जाए, जिसे सरकार बेहिसाब लुटाती है, तो ये सब्सिडी ऊंट के मुंह में जीरे सी दिखेगी। इसे इस क्षेत्र में रोके गए निवेश का खास कारण नहीं माना जा सकता। ये निवेश कई अन्य वजहों से अटका है।

प्रशासनिक मूल्य प्रणाली (एपीएम) पहेली का महज एक सिरा है। अगर हमने एपीएम में लगातार सुधार किया होता, जैसा कि वर्ष 2002 में पेट्रोल व डीजल को लेकर सोचा गया था। इस सूरत में इनके दामों में काफी कम इजाफा करना पड़ता। नतीजतन महंगाई पर भी इसका असर मामूली रह जाता। ऐसा न करने से ही ज्यादा कीमतें बढ़ाने का दबाव बना है। जब महंगाई की दर नीचे थी, अगर तभी तेल कीमतें बढ़ाई जातीं तो सरकार को जनता के गुस्से का सामना नहीं करना पड़ता।

सवाल कई उठते हैं। तेल में ऐसा क्या है? क्यूं शराब और तंबाकू के साथ पेट्रोलियम उत्पादों को भी अप्रत्यक्ष कर सुधार पर बनी हर समिति कर एकीकरण के दायरे से बाहर रखती है? आयात या व्यापार समता कीमतें कैसे निकाली जाती हैं, इसको लेकर क्यों इतनी अपारदर्शिता है? कच्चे तेल के आयात से लेकर खुदरा कीमतों के निर्धारण की पूरी प्रक्रिया क्यों अंधेरे में रखी जाती है? खैर, ईंधन कीमतों में वृद्धि अपेक्षित थी। हालांकि, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हम इस क्षेत्र में सुधार के लिए तैयार हैं। अब तथाकथित मध्यवर्ग और अमीर-गरीब की बहस पर आते हैं।

लंबे और छोटे की तरह अमीर व गरीब भी निरपेक्ष नहीं, बल्कि सापेक्ष शब्द हैं। दुर्भाग्यवश, लोग औसत की अवधारणा ही नहीं समझते। यह मायने नहीं रखता कि हमारे दिमाग में औसत, माध्यिका और बहुलक की बात रहती है या नहीं। औसत भारतीय का एक निश्चित आइक्यू (बुद्धिलब्धि) स्तर है। चलो, इसका इस्तेमाल चतुराई और बेवकूफी को मापने के लिए करते हैं। अगर आप कहते हैं कि आधे भारतीय बेवकूफ हैं तो आप निंदा के पात्र बन जाएंगे। इसके उलट अगर आप यह कहते हैं कि आधे भारतीय चतुर हैं, तो आपकी प्रशंसा होगी। यही बात अमीर-गरीब के मामले में भी सच है।

भारत की औसत प्रति व्यक्ति आय करीब 5,000 रुपये महीना बैठती है। यानी इससे ज्यादा कमाने वाले व्यक्ति को अमीर कहा जा सकता है। हालांकि, अगर आपने ऐसा कहा तो समझ लीजिए आपकी खैर नहीं। इसके उलट यदि आप यह कहें कि 5,000 रुपये से कम आय वाले गरीब हैं तो यही मध्यवर्ग आप पर फिदा हो जाएगा।

कीमतों के जरिए सब्सिडी देने का विचार वाहियात है। खाद्यान्न और केरोसीन को ही ले लीजिए, जिसका एक बड़ा हिस्सा बीच में ही गायब हो जाता है, कुछ तो नेपाल व बांग्लादेश पहुंच जाता है। इस तरह से तो हम पड़ोसी देशों को सब्सिडी दे रहे हैं। सस्ते केरोसीन का इस्तेमाल मिलावट और सब्सिडी वाली रसोई गैस का प्रयोग ढाबों-होटलों से लेकर कारों के ईंधन तक होता है। सब्सिडी वाली एलपीजी का कोटा और बिना सब्सिडी वाली कोटामुक्त रसोई गैस का विचार भी वाहियात है। इसे लागू नहीं किया जा सकता।

इसकी वजह से मुझे सार्वजनिक वस्तुओं को लेकर ताज्जुब होता है। अर्थशास्त्रियों के पास तो इसकी तकनीकी परिभाषा है। लेकिन जब अधिकतर अर्थशास्त्री सार्वजनिक वस्तु शब्द का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, तो यह परिभाषा उनके दिमाग से गायब रहती है। उनके दिमाग में यही विचार रह जाता है कि ऐसी वस्तुएं हर हाल में सब्सिडी वाली या मुफ्त होनी चाहिए। इसलिए ये अर्थशास्त्री उम्मीद करते हैं कि देश में सार्वजनिक शौचालय मुफ्त होने चाहिए, लेकिन वही विकसित देशों में जाने पर इनके लिए शुल्क अदा करते हैं। इसी तरह उन्हें देश में हवाई अड्डों पर मुफ्त ट्रॉली चाहिए, जबकि विकसित मुल्कों में वे खुशी से कीमत चुकाते हैं।

होटलों में भी चेकआउट के बाद वे चाहते हैं कि मुफ्त में उनका सामान रखा जाए, लेकिन विदेश में वे इसके लिए पैसा देने को तैयार रहते हैं। ये सार्वजनिक वस्तुएं कतई नहीं हैं। यदि इन्हें निशुल्क उपलब्ध कराया जा रहा है तो कोई न कोई इसकी कीमत चुका रहा है। अगर तथाकथित मध्यवर्ग नहीं, तो असल गरीब इसका बोझ ढो रहे हैं। कम वित्तीय और प्रशासनिक क्षमता वाले भारत जैसे विकासशील देशों में हमें विकसित मुल्कों की तुलना में कम से कम सब्सिडी वाली या मुफ्त वस्तुओं व सेवाओं की उम्मीद करनी चाहिए। लेकिन हो रहा है इसके उलट। तर्क दिए जा रहे हैं कि देश काफी गरीब है और यहां के बाजार अविकसित। इतिहास गवाह है कि भारतीयों ने सरकार से कभी भी ऐसी खैरात की उम्मीद नहीं रखी। कानून-व्यवस्था और कौशल समेत तमाम सेवाएं समुदायों या समूहों द्वारा मुहैया कराई जाती थीं। कीमतों के जरिए किसी को सब्सिडी देने की जरूरत नहीं है। ऐसे हस्तक्षेप संसाधनों के आवंटन में गड़बड़ी पैदा करते हैं। इससे बेहतर है कि सीधे आय हस्तांतरित की जाए, न कि सशर्त नकदी हस्तांरण, जिसकी चर्चा चल रही है। लेकिन हम बार-बार तमाम तरह से बीपीएल (गरीबी की रेखा के नीचे) को चिन्हित करने में लगे हैं, ये और बात है कि वास्तव में हो उलटा रहा है। सशर्त नकदी हस्तांरण अगर कभी क्रियान्वित हुआ तो इसे अंधाधुंध तरीके से लागू किया जाएगा। वृद्धों और विकलांगों के अलावा किसी को भी सब्सिडी देने की जरूरत नहीं दिखती।

इसके अलावा जो अन्य गरीब हैं, उनके लिए भौतिक और सामाजिक मूलभूत ढांचे, वित्तीय उत्पादों, कानून-व्यवस्था, तकनीकी, सूचना आदि में हस्तक्षेपों की जरूरत है। हालांकि, ये हस्तक्षेप सब्सिडी के रूप में नहीं होने चाहिए। समर्थों को सब्सिडी देकर हमने उन्हें स्थायी रूप से विकलांग ही नहीं बनाया है, बल्कि हम मुफ्तखोरी की एक संस्कृति पैदा कर रहे हैं। किसी भी तरह से अगर एक बार कोई सब्सिडी दे दी जाती है तो उसे खत्म करना लगभग नामुमकिन होता है। यह खुद को बनाए रखती है। भौतिकशास्त्रियों ने ऐसी ही अविरत मशीनों के अस्तित्व की चर्चा की है, जो अपनी गति खुद बनाए रखती हैं। इसके उलट भारत ने अविरत गतिहीन मशीनरी बनाने की कला में महारत हासिल कर ली है।


                                                                                  

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