मंगलवार, 7 जनवरी 2014

भारत में जैविक खेती की संभावनाएं

भारत के अर्थशास्त्रियों  की अग्रणी संस्था इंडियन इकोनामिक एसोसिएशन का 96वां वार्षिक सम्मेलन 27 से 29 दिसम्बर को तमिलनाडु में मीनाक्षी विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुआ। वैसे तो सम्मेलन में 12वीं पंचवर्षीय योजना एवं उसके बाद विकास संभावनाएं, भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित गैर-कृषि क्षेत्र, क्षेत्रीय कृषि विकास तथा डॉ. भीमराव अंबेडकर के आर्थिक विचारो पर चर्चा की गईकिन्तु सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. एल.के. मोहनराव ने अपना अध्यक्षीय उद्बोधन जैविक खेती पर दिया। चूंकि जैविक खेती कृषि विज्ञान का विषय हैइसलिए परम्परागत आर्थिक सम्मेलनों एवं सेमीनारों में जैविक खेती सरीखे विषय चर्चा नहीं की जाती है। इस प्रकार  डॉ. एल.के. मोहनराव का अध्यक्षीय उद्बोधन लीक से हटकर था। उन्होंने बताया कि भारत सहित विश्व के अन्य देशों में प्रयोगों एवं खेती करनेवाले किसानों के अनुभव से सिध्द हो चुका है कि जैविक खाद के उपयोग से भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है तथा मिट्टी की उर्वरकता बढ़ती है, इससे फसलों की उत्पादकता बढ़ती है तथा किसानों को उत्पादन लागत कम आती है तथा आमदनी बढ़ती है।  पर्यावरण की दृष्टि से भी जैविक खेती बहुत उपयोगी है। डॉ. मोहनराव राव ने समय की मांग को देखते हुए राष्ट्र के व्यापक हित में जैविक खेती को बढ़ावा देने का सुझाव दिया। 

डॉ. एल.के. मोहनराव ने  अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में जैविक खेती से संबंधित अनेक पहलुओं को विस्तार से छूने का प्रयास किया किन्तु उनके उद्बोधन से अनेक बातों का खुलासा नहीं हो सका। चूंकि अध्यक्षीय उद्बोधन सम्मेलन के उद्धाटन सत्र में होता है, इसलिए उस पर चर्चा एवं सवाल-जवाब नहीं हो पाता है।  इस कारण जैविक खेती से संबंधित अनेक सवाल अनुत्तरित ही रहे तथा जिज्ञासाओं का समाधान नहीं हो पाया। लाख टके का एक सवाल तो यही है कि  सरकार की वर्तमान जैविक खेती को  बढ़ावा देनेवाली नीति तथा इसके फायदों के  प्रचार प्रसार के बावजूद भारत के कुल फसली क्षेत्रफल के मात्र  8  प्रतिशत क्षेत्रफल पर ही जैविक खेती क्यों कर सिमटी हुई है।  भारत में जैविक खेती का क्षेत्रफल न केवल आस्ट्रेलिया व अर्जेटीना, बल्कि सयुंक्त राय अमरीका से भी पीछे है। यहां पर भारत में जैविक खेती लोकप्रिय न हो पाने के प्रमुख कारणों एवं आगे की संभावनाओं पर चर्चा करेंगे। 
    
सामान्यतया जैविक खाद के प्रयोग से की जानेवाली खेती को जैविक खेती कहा जाता है । वृहत् अर्थों में जैविक खेतीखेती की वह  विधि है जो जैविक खाद, फसल चक्र परिवर्तन तथा उन गैर-रासायनिक उपायों पर आधारित है, जो भूमि की उर्वरा  शक्ति को बनाए रखने के साथ ही पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करती है।  इस प्रकार जैविक खेती के अंतर्गत एग्रो-इकोसिस्टम का प्रबंधन शामिल होता है । भारत में पुरातनकाल से जैविक  खेती की जाती रही है, किन्तु विश्व के अन्य देशों में पिछले 20 सालों से इसका प्रचलन बढ़ा है। पश्चिमी देशों में किसानों से अधिक वहां के उपभोक्ताओं का जैविक खेती की उपज से लगाव है। वहां के लोग  जैविक खेती द्वारा पैदा किए गए खाद्यान्न, सब्जी एवं फल का इतना अधिक क्रेज है  कि वे अधिक कीमत देकर उसको खरीदना व उपभोग करना चाहते हैं। 

भारत में जैविक खेती अपनानेवालों में व्यापार व उद्योग में सफलता प्राप्त करके खेती करनेवाले व्यवसायी अग्रणी हैं। इनके अलावा जैविक खेती अपनानेवालों में आदिवासी किसानों की तादाद भी बहुत बड़ी है। किन्तु 1960 के दशक से संश्लेषित  उर्वरकों का उच्च मात्रा में उपयोग करके उच्च पैदावार लेनेवाले किसान जैविक खेती अपनाने में फिसड्डी साबित  हुए  हैं।  दरअसल यह उनकी गलती नहीं है। भारत में 60 के दशक में हुई हरित क्रान्ति में  उच्च पैदावार वाले बीजों के साथ रासायनिक उर्वरकों का उच्च मात्रा में उपयोग का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। उन दिनों रासायनिक उर्वरकों का इतना अधिक प्रचार हुआ कि भारत के परम्परागत किसान भी  रासायनिक उर्वरकों का एन 60:पी30: के 10 की मानक मात्रा में उपयोग करके  प्रगतिशील किसान कहलाने लगे थे।  पिछले 20 साल में सरकार की नीति में बदलाव आया है। अब जैविक खेती करने वाले किसानों को प्रगतिशील किसान माना जाता है, किन्तु रासायनिक खेती के आदी हो चुके किसानों के लिए उसको छोड़कर जैविक खेती अपनाना कठिन हो रहा है। यह बात लगभग वैसी ही है जैसे कि मांसाहारी भोजन  के  फायदों का प्रचार प्रसार करके लोगों को मांसाहारी भोजन का आदी बनाया जाय तथा 30 साल बाद कहा जाय कि शाकाहारी भोजन सेहत व पर्यावरण के लिए फायदेमन्द है।  मांसाहारी भोजन का स्वाद चख लेने वालों के लिए उसका छोड़ना कठिन होता है, यही बात रासायनिक खेती से जैविक खेती के संबंध में लागू होती है।

भारत एवं विश्व के अन्य देशों के किसानों के अनुभव रहे हैं कि रासायनिक खेती को तत्काल छोड़कर जैविक खेती अपनाने वाले किसानों को पहले तीन साल तक आर्थिक रूप से घाटा हुआ था, चौथे साल ब्रेक-ईवन  बिन्दु आता है तथा पांचवें साल से लाभ मिलना प्रारम्भ होता है । व्यवहार में बहुत से किसान पहले साल ही घाटा झेलने के बाद पुन: रासायनिक खेती प्रारम्भ कर देते हैं। भारत में 70 प्रतिशत छोटी जोत वाले सीमित साधन वाले किसान हैं। अब तो इन किसानों के पास पशुओं की संख्या भी तेजी से कम होती जा रही है। जैविक खेती के लिए उन्हें जैविक खाद खरीदना होना होता  है। वैसे तो  जैविक खाद निर्माताओं की संख्या की दृष्टि से देखें तो भारत में साढ़े पांच लाख जैविक खाद निर्माता हैं, जो विश्व के जैविक खाद निर्माताओं के एक तिहाई हैं।  किन्तु भारत के  99 प्रतिशत खाद उत्पादक असंगठित लघु क्षेत्र के हैं तथा इनमें से अधिकांश  बिना प्रमाणीकरण करवाए  जैविक खाद की आपूर्ति करते हैं। जैविक खेती अपनाने वाले किसानों की शिकायत रहती है कि उन्हें उक्त  खाद से दावा की हुई उपज की आधा उपज भी प्राप्त नहीं होती तथा  भारी घाटा होता है।  रासायनिक खेती छोड़कर बाजार से जैविक खाद खरीदकर जैविक खेती अपनाने वाले इन छोटे किसानों के कटु अनुभव को देखकर आसपास के ग्रामों के अन्य किसान जैविक खेती करने का इरादा त्याग देते हैं। जैविक खेती न अपनाए जाने का यह एक बड़ा कारण है।


भारत में जैविक खेती की संभावनाएं तभी उजवल हो सकती हैं जब सरकार जैविक खेती करने वालों को प्रमाणीकृत खाद स्वयं के  संस्थानों से सब्सिडी पर उपलब्ध करवाए तथा चार साल के लिए आमदनी की गारंटी का बीमा की व्यवस्था करके  प्रारम्भिक सालों में होनेवाले घाटे की क्षतिपूर्ति करे। सरकार को पशुपालन को बढ़ावा देना चाहिए जिससे किसान जैविक खाद के लिए पूरी तरह बाजार पर आश्रित न रहे।

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