बुधवार, 15 जनवरी 2014

ताकि न्याय व्यवस्था में लौटे विश्वास...

हम अपनी जिस जनतांत्रिक, लोक कल्याणकारी व्यवस्था के गुण गाते नहीं थकते, वह एक आम नागरिक को इंसाफ दिलाने की गारंटी अब भी नहीं दे सकी है। बात सुनने में अजीब लगती है, लेकिन न्याय मिलने की गुंजाइश दिन पर दिन कम होती जा रही है। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो आईपीसी के तहत आने वाले गंभीर अपराधों के मामलों में आरोपियों के सजा पाने की दर पिछले 40 सालों में कम होते-होते लगभग आधी हो गई है।

1972 में यह 62.7 फीसदी थी, जबकि 2012 में घटकर 38.5 प्रतिशत हो गई। कई मामलों में तो ट्रायल ही नहीं शुरू हो पाता। 1972 में दर्ज होने वाले कुल मामलों के 30.9 प्रतिशत में कार्यवाही शुरू हुई जबकि 2012 में ट्रायल सिर्फ 13.4 प्रतिशत मामलों में ही शुरू हो सका। मुकदमों का अदालत तक न पहुंचना और वहां पहुंचने के बाद खिंचते चले जाना हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी कमजोरी है।

पिछले कुछ समय में न्यायपालिका ने कुछ हाई प्रोफाइल केसों को समय रहते निपटाकर वाहवाही जरूर बटोरी है पर साधारण लोगों के मामलों में वह वैसी तत्परता नहीं दिखती। इसलिए आज आम आदमी के भीतर यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि त्वरित न्याय रसूख वालों को ही मिलता है, जबकि आम आदमी का मामला लटकता चला जाता है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर चिंता जताई थी और निचली अदालतों को मुकदमों की सुनवाई में तेजी लाने के निर्देश दिए थे।
मुकदमे उलझने की अनेक वजहें हैं। देश में ट्रायल जजों की संख्या इतनी नहीं है कि किसी केस की त्वरित और लगातार सुनवाई हो सके, इसलिए कोई नया केस के आते ही उसे कतार में लगा दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले साल ट्रायल कोर्टों में 2.68 करोड़ केस पेंडिंग पड़े थे। कई मामलों में कोई पार्टी जानबूझकर भी केस को टालती रहती है ताकि मामला कमजोर पड़ जाए। उसके वकील तरह-तरह का बहाना बनाकर केस खिसकाते रहते हैं। कहीं-कहीं इसके लिए रिश्वत देने की बात भी सामने आई है, लेकिन कई केस सिर्फ पुलिस की ढिलाई की वजह से पेंडिंग पड़े रहते हैं। वह इतनी सुस्त गति से जांच करती है कि केस को आगे बढ़ाना पड़ता है। कई बार आदतन और कई बार निहित स्वार्थों के दबाव में वह लचर सबूत पेश करती है जिससे मामला भटक जाता है।


अभी आलम यह है कि एक औसत सिविल केस में फैसला आने में 15 साल और क्रिमिनल केस में 5 से 7 साल लग जाते हैं। दरअसल आज पूरे न्यायिक तंत्र की ओवरहॉलिंग की जरूरत है। ऊपर से नीचे तक सभी एजेंसियों को चुस्त-दुरुस्त बनाना होगा और बड़ी संख्या में जजों की नियुक्ति करनी होगी। विभिन्न ट्रायल कोर्टों में खाली जजों के 3732 पद तत्काल भरने की जरूरत है। निचली अदालतों का इन्फ्रास्ट्रक्चर भी सुधारना जरूरी है। न्यायपालिका और कार्यपालिका को मिलकर इस दिशा में काम करना होगा ताकि आम आदमी में व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा हो सके।

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