उच्चतम न्यायालय की सुविचारित व्यवस्था
ने विरलतम अपराध के लिये मौत की सजा पाने वाले मुजरिमों की दया याचिकाओं के
निबटारे में अत्यधिक विलंब को लेकर लंबे समय से उठ रहे विवाद पर अब विराम लगा दिया
है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि दया याचिका के निबटारे में अत्यधिक विलंब
होने या किसी मुजरिम के मानसिक रोगी होने की स्थिति मौत की सजा को उम्र कैद में
तब्दील करने का आधार हो सकता है।
देश की शीर्ष अदालत के अनुसार यह
सुविचारित व्यवस्था है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने का अधिकार इस
तरह के फैसले के साथ ही खत्म नहीं होता है और मौत की सजा पर अमल को लंबे समय तक
टाल कर रखने से ऐसे कैदियों पर अमानवीय प्रभाव पडता है। ऐसी स्थिति में मौत की सजा
पर अमल में कैदी के नियंत्रण से बाहर का किसी भी प्रकार का विलंब उसे इस सजा को
उम्र कैद में तब्दील कराने का हकदार बनाता है।
न्यायालय की इस व्यवस्था के तुरंत बाद
ही भारतीय युवक कांग्रेस के मुख्यालय पर हुये आतंकी हमले के दोषी देवेन्द्रपाल
सिंह भुल्लर की पत्नी ने अपने पति की मानसिक स्थिति का हवाला देते हुये सुधारात्मक
याचिका दायर करके राहत पाने का प्रयास किया है।
जघन्यतम अपराधों में मौत की सजा पाने
वाले मुजरिमों की दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब के कारण उठे विवाद पर
प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने पूर्ण विराम
लगाने का प्रयास किया है।
न्यायालय ने इस प्रकरण पर विचार के
दौरान पाया कि 1980 तक दया याचिकाओं के निबटारे में 15 दिन से 11 महीने तक का ही
समय लगता था। धीरे धीरे दया याचिकाओं के निबटारे की प्रक्रिया लंबी होती गयी और 1980
से 1988 के दौरान इसमें औसतन चार साल लगने लगे।
इसके बाद तो ऐसी याचिकाओं के निबटारे
के लिये मुजरिमों को 12-12 साल इंतजार करना पड़ा। इस दौरान मौत की सज़ा पाने वाले
कैदियों को एकांत में, जिसे
काल कोठरी भी कहा जाता है, रखा गया। लेकिन अब उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि दया
याचिका लंबित होने के दौरान ऐसे मुजरिमों को एकांत में रखना असंवैधानिक है।
संविधान के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद
161 के तहत राष्ट्पति और राज्यपाल दोषी को क्षमा दान दे सकते हैं या सज़ा कम कर
सकते हैं और ऐसा सिर्फ सरकार की सलाह से ही किया जा सकता है। ऐसे मामलों के
निबटारे के लिये हालांकि कानून में कोई समय सीमा नहीं है।
शायद इसी वजह से पिछले कुछ सालों से
मुजरिमों की दया याचिकाओं के निबटारे में हो रहा अत्यधिक विलंब विवाद का विषय बना
हुआ है। पहले भी यह मसला समय समय पर देश की शीर्ष अदालत पहुंचा और न्यायालय ने
तथ्यों तथा परिस्थितियों के आधार पर अपनी सुविचारित व्यवस्थायें भी दीं। लेकिन
उच्चतम न्यायालय की नयी व्यवस्था के बाद ऐसे मामलों को लेकर व्याप्त तमाम
भ्रांतियां अब पूरी तरह खत्म हो गयी हैं।
लेकिन उच्चतम न्यायालय का मानना है कि
कानून में प्रतिपादित प्रक्रिया का सही तरीके से पालन किया जाये, तो दया याचिकाओं का निबटारा कहीं अधिक
तत्परता से किया जा सकता है।
गृह मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति
ने भी दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब पर चिंता व्यक्त करते हुये ऐसे
मामलों का तीन महीने के भीतर निबटारा करने की सिफारिश की थी।
सारे तथ्यों के मद्देनजर अब उच्चतम
न्यायालय ने दया याचिकाओं के शीघ्र निबटारे के लिये 12 सूत्री दिशानिर्देश
प्रतिपादित किये हैं। इन दिशानिर्देशों में कैदी की दया याचिका राष्ट्पति के समक्ष
पेश किये जाने के समय अपनायी जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित की गई है जिसमें कहा
गया है कि संबंधित कैदी का सारा रिकार्ड और आवश्यक दस्तावेज़ एक ही बार में गृह
मंत्रालय के पास भेजा जाना चाहिए।
न्यायालय ने कहा है कि कैदी से संबंधित
सारा विवरण मिलने के बाद गृह मंत्रालय को एक उचित समय के भीतर ही अपनी सिफारिश
राष्ट्रपति के पास भेजनी चाहिए और वहां से कोई जवाब नहीं मिलने पर समय समय पर इस
ओर राष्ट्रपति का ध्यान आकर्षित करना चाहिए।
अधिकतर जेल मैनुअल में कैदी की दया
याचिका खारिज होने की स्थिति में उसे और उसके परिजनों को सूचित करने का प्रावधान
है लेकिन न्यायालय ने पाया कि कैदी और उसके परिजनों को लिखित में इसकी सूचना नहीं
दी जाती है।
दूसरी ओर, राज्यपाल द्वारा दया याचिका खारिज होने
की स्थिति में कैदी और उसके परिजनों को इसकी सूचना देने के बारे में जेल मैनुअल में
कोई प्रावधान नहीं है।
इस तथ्य के मद्देनजर न्यायालय ने कहा
है कि ऐसे कैदियों को अधिकार है कि राज्यपाल द्वारा दया याचिका खारिज करने के
निर्णय के बारे में उन्हें लिखित में इसकी जानकारी दी जाये। इसलिए न्यायालय ने ऐसे
कैदियों को दया याचिका खारिज होने पर इस फैसले की लिखित में जानकारी देना अनिवार्य
कर दिया है।
यही नहीं, न्यायालय ने दया याचिका खारिज होने के
बाद ऐसे कैदी को फांसी देने की प्रक्रिया शुरू करने से पहले उसके परिजनों को इसकी
सूचना देने के बारे में भी समय सीमा निर्धारित की है।
न्यायालय ने कहा है कि दया याचिका
खारिज होने और कैदी को फांसी देने के बीच कम से कम 14 दिन का अंतर रखा जाये और इस
दौरान कैदी को खुद को मानसिक रूप से तैयार करने तथा अपने परिजनों से अंतिम बार
मुलाकात का अवसर मिल सकेगा।
कई जेल मैनुअल में मौत की सज़ा पाने
वाले कैदी को फांसी देने के बाद उसका पोस्टमार्टम कराने का प्रावधान नहीं है। इस
तथ्य के मद्देनजर न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि किसी कैदी को फांसी देने के
बाद उसके शव का पोस्टमार्टम भी अनिवार्य रूप से कराया जाये।
दया याचिकाओं के निबटारे में छह साल से
लेकर 12 साल तक की अवधि के विलंब को देखते हुये उच्चतम न्यायालय ने हालांकि 15
कैदियों की मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील कर दिया है। लेकिन न्यायालय को
विश्वास है कि भविष्य में ऐसे कैदियों की दया याचिकाओं का तेज़ी से निबटारा किया
जायेगा।
उम्मीद की जानी चाहिए कि उच्चतम
न्यायालय की इस सुविचारित व्यवस्था के बाद मौत की सज़ा पाने वाले कैदियों की दया
याचिकाओं के निबटारे की प्रक्रिया को गति प्रदान की जायेगी ताकि जघन्य अपराधों के
लिये मौत की सज़ा पाने वाला कोई भी कैदी दया याचिका के निबटारे में अत्यधिक विलंब
के आधार पर इस सज़ा को उम्र कैद में तब्दील कराने का दावा पेश नहीं कर सके।
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