सभ्यता के सोपान पर निरंतर बढ़ते जा रहे
विश्व में क्या मृत्युदंड जैसी व्यवस्था के लिए कोई स्थान होना चाहिए, यह प्रश्न लंबे समय से विभिन्न देशों, समाजों व संस्कृतियों के लिए चिंतन का
विषय रहा है। जब आप किसी को जीवन दे नहींसकते, तो उसे छीनने का भी अधिकार आपको नहीं है, एक बार किसी के प्राण ले लिए जाएं तो फिर उसे
लौटाया नहींजा सकता, मौत
की सजा मध्ययुगीन बर्बरता का परिचायक है, ऐसी धारणाएं मृत्युदंड की मुखालफत करती हैं और मानवाधिकार इनके
केंद्र में होता है। मानवाधिकार के इसी तकाजे को ध्यान में रखते हुए विश्व के सौ
देशों ने मृत्युदंड को पूरी तरह खत्म कर दिया है, 48 देशों में इसका प्रावधान होते हुए भी पिछले 10 सालों में कोई सजा
नहींदी गई है, 7 देशों में इसे दुर्लभतम परिस्थितियों
में हुए अपराधों के लिए ही तय किया गया है, जबकि 40 देशों में यह अब भी जारी है। भारत में मृत्युदंड की व्यवस्था
है और पिछले कुछ वर्षों में धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब, अफजल
गुरु को फांसी की सजा हुई भी है, फिर भी इस बात पर देश में एक राय नहींहै कि मौत की सजा भारत में जारी
रहना चाहिए या समाप्त कर देना चाहिए। मानवाधिकार संगठन हमेशा ही मृत्युदंड का
विरोध करते रहे हैं, आम
जनता का एक बड़ा हिस्सा भी ऐसी ही राय रखता है। हां, अगर निर्भया जैसा कोई मामला सामने आता है, या अजमल कसाब जैसा आतंकी रंगे हाथों
पकड़ाता है, तब जनता आक्रोशित होकर फांसी की मांग
करती है। पर यहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसी मांग नाराजगी से उपजती है और
उसमें तर्क पर भावनाएं हावी होती हैं। जबकि न्याय व्यवस्था हमेशा तर्कों से
संचालित होती है,
वह
बदला लेने की भावना की जगह न्याय प्रदान करने के लिए बनायी गई है। इसलिए चाहे कसाब
हो या निर्भया के दोषी, उन्हें
अपना पक्ष रखने का भी अवसर भारत की न्याय व्यवस्था में दिया जाता है। निचली अदालत
से लेकर सर्वोच्च अदालत तक अगर किसी की फांसी सजा बरकरार है, तो उसे राष्ट्रपति के पास दया याचिका
भेजने का अधिकार होता है और अगर वह याचिका रद्द हो गई तो उसे फांसी दी जाती है, जैसा कसाब और अफजल गुरु मामले में देखा
गया और अगर याचिका स्वीकृत हो गई तो फांसी की सजा नहींहोती। लेकिन याचिका पर फैसला
लंबे समय तक न हो,
उस
स्थिति में क्या हो? क्योंकि
राष्ट्रपति के लिए याचिका पर निर्णय लेने की कोई समय सीमा निर्धारित नहींकी गई है।
इस स्थिति में मृत्युदंड पाए अपराधी और उसके परिजनों के लिए हर दिन मौत की
प्रतीक्षा करते बीतता है, जो मानसिक तौर पर किसी सजा से कम नहीं है।
भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश पी.सदाशिवम
की अध्यक्षता वाली बेंच द्वारा 15 लोगों के मृत्युदंड को उम्रकैद में बदलने का
फैसला इसी दृष्टिकोण से समझने की जरूरत है। यह एक ऐतिहासिक फैसला है और
मानवाधिकारों की बड़ी जीत है। अपना पदभार संभालने के वक्त न्यायमूर्ति पी.सदाशिवम
ने कहा था कि फांसी की सजा को लेकर स्पष्ट नियम बनाए जाने जरूरी हैं ताकि इस पर
मौजूद असमंजस खत्म हो सके। अब उनके इस फैसले से कुछ बातें तय हो गई हैं। उदाहरण के
लिए दया याचिका पर निर्णय लेने में लंबी देरी अपराधी को राहत देने का पर्याप्त
आधार बन सकती है। इसी तरह मानसिक रोग से ग्रसित होने और दोषी को जेल में एकांत में
रखने को भी राहत का आधार माना गया है। अगर मौत की सजा सुनाए गए कैदी की दया याचिका
राष्ट्रपति खारिज करते हैं तो उसके परिजनों को इसकी जानकारी देना अनिवार्य होगा और
14 दिनों के भीतर फांसी की सजा देना भी जरूरी होगा। अदालत ने यह भी कहा है कि जिस
भी व्यक्ति को मौत की सजा सुनाई जाती है, उसे सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना मामला लाने का अधिकार होगा। कई
हत्याओं के दोषी या फिर आतंकवाद संबंधी मामलों के दोषियों को भी यह अधिकार होगा।
सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले से 15 लोगों की फांसी उम्रकैद में बदल गई, जिसमें कुख्यात तस्कर वीरप्पन के 4
साथियों से लेकर अपने ही परिजनों को मौत के घाट उतारने वाले दंपती भी शामिल हैं।
यह फैसला उन कैदिय और परिजनों के लिए भी थोड़ी राहत लेकर
आया है, जो कई सालों से जिंदगी और मौत के बीच
झूल रहे हैं। फांसी देने से समाज में अपराध खत्म नहींहोते, यह साबित हो चुका है। लेकिन समाज में
विभिन्न कारणों से बढ़ रहे अपराधों पर अंकुश लगे, अपराधियों में कानून का डर कायम हो और पीड़ितों को न्याय प्राप्त करने
में देर न हो, ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था बनाने की उम्मीद
न्यायपालिका से जनता करती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें