मंगलवार, 28 जनवरी 2014

भारत में न केवल कामगार, मालिक भी गरीब

इंडियन इंस्टीटयूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट तथा इंडियन सोसाइटी ऑफ लेबर इकानोमिक्स नई दिल्ली द्वारा हाल में ही प्रकाशित श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 में भारत में वैश्विीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने के बाद बीस साल में हुए श्रम एवं रोजगार बाजार की स्थिति में हुए बदलाव पर विस्तार से प्रकाश डाला गया हैं। इस श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 के प्रधान लेखक एवं सम्पादक डॉ. अलख एन. शर्मा हैं, जो वर्तमान में इंडियन इंस्टीटयूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट के निदेशक एवं इंडियन जर्नल ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स के सम्पादक हैं। नेशनल सेम्पल सर्वे के बीस साल के आंकडों को विश्लेषण करके रिपोर्ट बनाई गई है। रिपोर्ट में आर्थिक विकास एवं रोजगार कार्य निष्पादन, उभरती हुई चुनौतियां, मजदूरी, आमदनी एवं असमानता, कामगारों की सामाजिक सुरक्षा से संबंधित मुद्दे, रोजगार की रणनीति, नीतियां एवं कार्यक्रम तथा श्रम एवं रोजगार का आज का एजेंडा आदि के शीर्ष के अंतर्गत श्रम एवं रोजगार की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 के अनुसार भारत में तेन्दुलकर फार्मूले पर आधारित गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले व्यक्तियों में बेरोजगारों की तुलना में रोजगारप्राप्त व्यक्तियों की संख्या एवं प्रतिशत दोनों ही अधिक हैं। 2011-12 मे लगभग एक चौथाई परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे थे, इनमें से 90 प्रतिशत परिवारों के व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के रोजगार प्राप्त थे। 1993-94 में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 49 प्रतिशत थी, 2011-12 में घटकर 25 प्रतिशत रह गई। इस प्रकार भूमंडलीकरण के 20 साल के इस अवधि में रोजगार प्राप्त गरीबों की संख्या में कमी आई है। गरीबी में रहनेवाले अधिकांश लोग गैर-संगठित गैर-अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत थे। इस क्षेत्र के रोजगार प्राप्त श्रमिकों की आमदनी इतनी कम थी कि वे गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने को मजबूर थे। गरीबी रेखा से नीचे कुल परिवारों में 24.6 प्रतिशत स्वरोजगारी थे। इनमें से उन लोगों की भी बड़ी संख्या थी, जिन्होंने सरकारी योजनाओं के तहत बैंक कर्ज से स्वरोजगार प्रारम्भ किया था।

तेन्दुलकर गरीबी रेखा को सवा डॉलर पीपीपी दैनिक आमदनी की अंतरराष्ट्रीय अत्याधिक गरीबी रेखा के समकक्ष माना जा सकता है। इस गरीबी रेखा को अंत्योदय गरीबी रेखा भी कहा जा सकता है। 2 डालर पीपीपी दैनिक आमदनी की सामान्य अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा के आधार पर 2011-12 में भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 27.6 करोड़ हो जाती है, अर्थात 58 प्रतिशत परिवार गरीबी में गुजर-बसर कर रहे थे। इसको अर्ध्द-बेरोजगारी की स्थिति कहा जा सकता है। चूंकि बेरोजगारी को गरीबी का प्रमुख कारण माना जाता रहा है, यही कारण है कि सरकार का पूरा जोर रोजगार के अवसर सृजन करने पर केन्द्रित था एवं इसीलिए समय-समय पर अनेक रोजगार एवं स्वरोजगार योजनाएं प्रारम्भ की गईं। यहां यह बात स्पष्ट हो गई है कि मात्र रोजगार उपलब्ध करवा देने से गरीबी दूर नहीं हो जाती।

भारत में तेन्दुलकर गरीबी से नीचे रहनेवाले लोगों में दो करोड़ ऐसे लोग थे, जो नियोक्ता की श्रेणी में आते हैं, जो कुल बेरोजगारों के 4.4 प्रतिशत थे। इस नियोक्ता वर्ग परम्परागत ग्रामीण कारीगरों की बड़ी संख्या है। इनके अलावा उद्यम व्यवसाय से जुडे अन्य लोग भी अपने व्यवसाय धंधे में मदद के लिए आकस्मिक एवं नियमित कामगारों की सेवाएं लेते हैं किन्तु इनकी आमदनी इतनी कम होती है कि ये परिवार की न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाते। इस प्रकार कामगार ही नहीं, बल्कि मालिक भी बड़ी तादाद में गरीबी रेखा से नीचे हैं। दो डॉलर दैनिक आमदनी की अंतरराष्ट्रीय सामान्य गरीबी रेखा के आधार पर गरीब नियोक्ताओं की संख्या बढ़कर लगभग 4.25 करोड़ हो जाती है। अब जिस देश में मालिक ही गरीब हो तो उस मालिक पर आश्रित रहने वाले नौकर कैसे सम्पन्न हो सकते हैं। नौकर तो महागरीब की श्रेणी में आएगा। कहने का मतलब है कि भारत में केवल आय एवं सम्पत्ति में ही विषमता नहीं है, बल्कि गरीबी की गहनता में भी काफी विषमता है। न्यूनतम मजदूरी की दरें दुगुनी करके मजदूरों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है। खाद्यान्न का समर्थन क्रम मूल्य बढ़ा कर छोटे किसान की आमदनी बढाई जा सकती है। किन्तु सबसे बडा सवाल दर्जनों विविध प्रकार उद्यम एवं व्यवसाय करनेवाले गरीब नियोक्ताओं की गरीबी दूर करने का है उनकी आमदनी में किस प्रकार वृध्दि की जाय कि वह गरीबी से उबर सके इस पर विचार की आवश्यकता है।

इस रिपोर्ट से यह भी खुलासा हुआ है कि बेरोजगारों में अशिक्षित व्यक्तियों की तुलना में शिक्षित व्यक्तियों की संख्या अधिक है। अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या एक प्रतिशत से भी कम है, जबकि डिप्लोमा व प्रमाणपत्रधारी बेरोजगारों की संख्या कुल बेरोजगारों का 10 प्रतिशत तथा स्नातक व स्नाकोत्तर डिग्रीधारकों की संख्या 8 प्रतिशत है। अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या कम होने का एक बड़ा कारण यह है कि उन्हें जो भी काम मिलता है व जिस पारिश्रमिक पर का मिलता है वे कर लेते हैं जबकि उच्च शिक्षित बेरोजगार व्यक्ति पहले अपनी योग्यता के अनुसार अच्छे वेतन का काम ढूंढता है एवं उसके इंतजार में कुछ सालों तक बेराजगार बना रहता है।


श्रम रोजगार रिपोर्ट में पहली बार रोजगार स्थिति सूचकांक विकसित करके 2011-12 के लिए भारत के 21 बडे रायों का रोजगार स्थिति सूचकांक बनाया गया है। रोजगार व आमदनी की स्थिति के विभिन्न मानदंडों के आधार पर हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब व कर्नाटक को उत्तर राय की श्रेणी में रखा गया है, जबकि बिहार, ओडीशा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ को निकृष्ट राय की श्रेणी में रखा गया है। कहने का आशय है कि पिछड़े प्रान्त न केवल जीडीपी व मानव विकास सूचकांक बल्कि रोजगार व कर्मी को भुगतान किए जानेवाले पारिश्रमिक के आधार पर भी पिछडे हुए हैं। इन पिछडे रायों में लाभप्रद रोजगार के अवसर विकसित करने पर ही राय विकास की ओर अग्रसर हो सकेंगे।

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