सोमवार, 27 जनवरी 2014

भारतीय गणतंत्र का विकास : कुछ प्रश्न, कुछ चुनौतियां

भारतीय गणतंत्र का विकास संदेश जहां विश्व के आर्थिक तंत्र को एक नया रूप देने का है वहीं उसका संकल्प विश्व शांति, सहयोग और युध्दहीन विश्व समाज का है। इसके लिए भारतीय मानस अपनी आजादी की लड़ाई के दौरान ही तैयार हो चुका था और आज वह परिपक्वता की स्थिति में आ गया है। इस परिपक्वता की स्थिति में अब उसे कुछ नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक साम्रायवाद के कुचक्र से बचने की है। समाजवादी अर्थतंत्र की व्यवस्थाएं सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खोटी साबित घोषित की जा चुकी है। उनकी खोट का प्रचार पूंजीवादी व्यवस्था की ओर से चकाचौंध कर देने वाला है। इस क्षण में भारत के सामने चुनौती है कि क्या वह स्वीकार कर ले कि समाजवादी अर्थतंत्र एकदम मिथ्या है और उसको दफन किया जाना चाहिए अथवा उसके भीतर जो श्रेयस्कर हैं उसको अंगीकार किया जाना चाहिये और पूंजीवादी गुलामी की व्यवस्था को सीमित किया जाना चाहिये।

भारतीय गणतंत्र का नाम लेते ही एक ऐसे देश का चित्र सामने आता है जिसका इतिहास कितने ही युगों की स्मितों को तोड़ता हुआ मनुष्य की आदिम सभ्यता तक पहुंचता है और जिसका आकार और विस्तार ऐसा है जिसे दुनिया का कोई देश नकार कर नहीं चल सकता है। यहां की धरती और आसमान के बीच मौसम की वे छबियां उभरती हैं जो धरती को अपनी अलग पहिचान सौर मंडल में स्थापित करती है। जलवायु और प्रकृति की विविधता का जो आलम है वही आलम है यहां की वनस्पति और खनिज संपदा का जिसमें नागफनी और दुर्वादल से लेकर चीड़ और बरगद के विशालकाय वृक्षों के समूह उपस्थित हैं और इसी प्रकार उपस्थित है इस गणतंत्र की धरती में हीरा जवाहरात से लेकर कोयला और अनमोल मिट्टी तक। पर्वतों और सरिताओं की छटा तो ऐसी हैं कि क्षण भर में ही जड़ और चेतन की बोधगम्यता को एक सहज दर्शन की संज्ञा दे देती है। ज्ञान और उसकी मीमांसा की जो उड़ानें अब तक मानव की मेधा ने भरी हैं उन सबका आदि अंत यहीं देखने को मिलता है। इस विचित्र और विविध रूपधारी गणतंत्र का समाज भी उसके अनुरूप ही है। यहां का समाज बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुकर्मी और बहु आयामी है। पं. नेहरू ने ''भारत की खोज'' नामक पुस्तक में इस भारत का जो वर्णन किया है वह अविस्मरणीय है। उन्होंने इसके विभिन्न रूपों और उसके विभिन्न ''मूडो'' को जो भाषा दी है उसको आत्मसात तो अवश्य ही किया जाना चाहिये। उन्होंने इस महान देश के उत्थान-पतन, आशा-निराशा, आक्रोश और उन्मेष के क्षणों की तस्वीर खींचते हुए उसमें एक स्थायी रंग की उस आभा को भी प्रगट किया है जो आभा उसके शांत और स्थिर मानव की अतल गहराई से उठती हुई आज उसकी विस्तृत सतह पर वैसे ही थिर है जैसे हिमालय की श्रृंखलाओं पर धवल हिमखंड और फेनिल सागर में लहरों की थिरकन।

शांत और स्थिर मानसिकता इस गणराय की अपनी धरोहर और निजी पहिचान है। इस कारण इसके भीतर होने वाली उथल-पुथल अथवा विवाद बहुलता इसके छंद को विद्रुप नहीं करती है और इसकी समरसता को भी रसहीन नहीं बना पाती है। विविधता में एकता का स्वर इसमें सर्वोपरि है। यही कारण है कि इकबाल जैसे महाकवि के मुख से एकाएक निकल पड़ता है- ''कि कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी'' यह हस्ती तब भी नहीं मिटती है जब सदियों से दुश्मन इसे मिटाने पर तुले हैं। यह है इस देश की धरती की ताकत- तो क्या आश्चर्य है कि इस देश का राजनैतिक तंत्र जो गणतंत्र के रूप में आजादी के बाद उभरा उसमें भी वही ताकत हो जो इस देश के इतिहास और उसकी परंपरा में है, जो इस देश की मिट्टी और जलवायु में है। हमारे इस गणतंत्र की शक्ति का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि द्वितीय विश्वयुध्द के बाद जितने देशों को औपनिवेशिक गुलामी के बाद आजादी मिली उनमें भारत एकमात्र देश है जिसकी राजनैतिक व्यवस्था में कभी भी कोई व्यतिक्रम नहीं आया। भारत के समान ही स्वाधीनता पाने वाले लगभग सौ देश आज हैं जिन्हें द्वितीय विश्व युध्द के बाद आजाद होने का अवसर मिला पर उनमें से कितने ही राष्ट्र तो आज तक यह फैसला नहीं कर सके हैं कि उनकी आजाद सत्ता का स्वरूप क्या होगा? कितने ही देशों ने आजाद संविधान अंगीकार करने का प्रयास भी किया तो वह प्रयास ही असफल हो गया। स्वयं हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यामार और श्रीलंका अभी तक अपने लिये स्थायी या दीर्घायु संविधान नहीं दे सके। और कितने ही देश लहु-लुहान क्षेत्रों में भटकते हुए आज भी आशंकाओं के घेरे में चल रहे हैं।

यह सब क्यों हुआ? हमारे गणतंत्र से कई गुने छोटे ये देश अपने बीच वह शांत और स्थिर मानसिकता क्यों नहीं पैदा कर सके? क्यों कभी हमारे ही भूभाग के भावात्मक अंग होते हुए भी आज बिखराव के मार्ग पर भटक रहे हैं? क्यों इनकी राजनीति में मौसमी तूफान जब तब आकर इनके तंत्र को उजाड़ देते हैं? निस्संदेह ही ये अपने भीतर के बहुयामी व्यक्तित्व को पहिचानने में असफल हुए हैं। निस्संदेह ही ये अपने इतिहास की धरोहर को भूल बैठे हैं। और भूल बैठे हैं परंपरा और परिवर्तन की उस समरसता को जो भारतीय गणतंत्र की अपनी विशेषता है, उसकी अपनी पहिचान है। इस पहिचान और विशेषता को यदि इन देशों ने स्वीकारा होता तो संभवत: इनकी यह गति आज न होती। हमारे इस गणराय की विशेषता को हमारे ही समान बहुभाषी और बहुजातीय एक राष्ट्र जिसका सोवियत संघ था उसने जब पहिचाना तब बहुत देर हो चुकी थी। उसने हमारे गणतंत्र के आदर्शों को अंगीकार करने की बात की तब तक सोवियत संघ में बिखराव आ चुका था और वह टूट गया। पर, उसे देश के अंतिम राष्ट्रपति गोर्बाच्योव को भुलाया नहीं जा सकता है जिसने विश्व के सम्मुख इस बात को स्वीकार किया था कि सोवियत संघ की एकता और विकास के लिये भारतीय गणतंत्र एकमात्र उदाहरण है जिसका अनुकरण किया जाना चाहिए। आज भी गोर्बाच्योव के विचारों में भारत एकमात्र गणतंत्र है जो उन तमाम देशों के लिये एक अनुकरणीय उदाहरण है जिन देशों में धर्म, भाषा और जातियों की विविधता है। और ऐसी विविधता कहां नहीं है? कहां नहीं है भाषा और क्षेत्रीयता की अपनी विविधताएं? कहां नहीं धर्म और उसकी परंपराओं और रूढ़ियों की विविधताएं और कहां नहीें मानवी स्वार्थों और संकल्पों की सीमाओं के विभाजन? ऐसी सभी स्थितियों का हल यदि कहीं है तो वह है भारतीय गणतंत्र में।

भारतीय गणतंत्र का सबसे बड़ा आग्रह है ''विविधता में एकता'' - विविधता को मिटाने की जिन देशों ने चेष्टा की उनकी एकता भंग हो गई और जिन्होंने एकत्व की स्थापना के लिये विविधता को गौण स्थान दिया, ये भी मिट गए। विविधता और एकता दोनों ही अपनी सार्वभौम सत्ता के स्वामी बनकर जब चलते हैं और समान अधिकार संपन्न होकर मिलते हैं तो उनके बीच टूटने की स्थिति नहीं आती है। यह स्थिति है केवल हमारे गणतंत्र में, उसके संविधान में और उनमें जिन्होंने इस संविधान को निर्मित कर अपने आपको अर्पित किया है। भारतीय गणतंत्र के नागरिक अपने संविधान को एक धर्म पुस्तक की तरह लेकर चलते हैं और उसके अधीन अपने को रखकर समानता, स्वाधीनता, सहअस्तित्व और शांति का अनुभव करते हैं। उनकी आकांक्षाओं और व्याख्याओं में युध्दहीन विश्व, शोषणहीन समाज और जीवन व्यापार में सहयोग- यह सहयोग आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर बिना किसी भेदभाव के स्वीकारा जाना चाहिये।

जिस गणतंत्र के निवासियों की ऐसी धारणाएं उनकी आत्मा और भौतिक अस्तित्व के अंग बन गई हों उसे गणतंत्र की ओर से यदि पहिली विश्व घोषणा विश्व शांति और गुट निरपेक्षता, धर्म निरपेक्षता और समान आर्थिक अवसरों के संबंध में की जाती है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारतीय गणतंत्र की पहिली धारणा थी कि जब तक विश्व में स्थायी शांति नहीं कायम होती है तब तक विकास की कोई संभावनाएं नहीं हैं इस कारण भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत अपनी विदेश नीति में उसे गुटीय नीति से दूर रहेगा तो दुनिया को दो खेमों में बांटकर शीत युध्द को बढ़ावा दे रहे हैं। हमारी नीति तटस्थता की है पर युध्द और शांति के बीच हम तटस्थ नहीं हैं। हम निस्संदेह ही शांति के पक्षधर और युध्द के विरोधी हैं। इसी प्रकार से आर्थिक और सामाजिक विकास की प्रक्रिया में हम उनके सहयोगी हैं जो अपनी आर्थिक अवस्था  को सुधारने के लिये प्रयत्नशील हैं और जो किसी का शोषण कर अपना घर नहीं भरना चाहते हैं। भारत ने जब  तीसरी दुनियां की अर्थव्यवस्था को विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था की संज्ञा दी और विकसित राष्ट्रों से सहयोग मांगा तो विकसित राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था दो प्रकार की थी एक पूंजीवादी और दूसरी समाजवादी। पं. नेहरू ने तब इन दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं से सहयोग पाने के लिये निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाओं को संगठित करने की बात की और जहां इन दोनों से ही सहयोग प्राप्त हो तो वहां पर मिश्रित अर्थव्यवस्था को भी स्थान देने की बात कही। स्वाधीनता के आदर्शों को कायम रखते हुए विकास का यही मार्ग संभव था। इससे इतर जिन्होंने मार्ग अपनाया वे राष्ट्र या तो अमरीकी पूंजीवाद के समर्थक बनने को बाध्य हुए अथवा फिर वे सोवियत रूस के समर्थक बन गए। भारत किसी का पिछलग्गू नहीं बना यह भारतीय गणतंत्र की सूझ-बूझ और उसकी भक्ति का परिचायक है।

भारतीय गणतंत्र का विकास संदेश जहां विश्व के आर्थिक तंत्र को एक नया रूप देने का है वहीं उसका संकल्प विश्व शांति, सहयोग और युध्दहीन विश्व समाज का है। इसके लिए भारतीय मानस अपनी आजादी की लड़ाई के दौरान ही तैयार हो चुका था और आज वह परिपक्वता की स्थिति में आ गया है। इस परिपक्वता की स्थिति में अब उसे कुछ नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक साम्रायवाद के कुचक्र से बचने की है। समाजवादी अर्थतंत्र की व्यवस्थाएं सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खोटी साबित घोषित की जा चुकी है। उनकी खोट का प्रचार पूंजीवादी व्यवस्था की ओर से चकाचौंध कर देने वाला है। इस क्षण में भारत के सामने चुनौती है कि क्या वह स्वीकार कर ले कि समाजवादी अर्थतंत्र एकदम मिथ्या है और उसको दफन किया जाना चाहिए अथवा उसके भीतर जो श्रेयस्कर हैं उसको अंगीकार किया जाना चाहिये और पूंजीवादी गुलामी की व्यवस्था को सीमित किया जाना चाहिये।

दूसरी चुनौती देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखने की है। यों हमारे संविधान में लोकतंत्र सुरक्षित है किंतु समय-समय पर धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर उठने वाले विवाद देश की स्वस्थ मानसिकता को प्रदूषित करने में सहायक होते हैं। इस प्रकार के प्रदूषण का देश के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न हो, यह हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। सामाजिक सद्भाव तथा सर्वधर्म सम्भाव हर नागरिक की प्राथमिकता होनी चाहिये।

एक और चुनौती है देश की अखंडता के लिये। यह खतरा न केवल देश के भीतर से उभरता है वरन पड़ोसी राष्ट्रों द्वारा भी प्रोत्साहित किया जाता है। इस ओर भी सावधान रहना आवश्यक है।

विकासशील दुनिया के बीच भारत का संदेश सबसे महत्वपूर्ण है और इस दिशा में हमारे गणतंत्र को अपना दायित्व समझना चाहिए।

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