चीन की सरकार द्वारा कर्मियों के लिए
रिटायरमेंट एज बढ़ाने पर विचार किया जा रहा है। वर्तमान में सामान्य महिला कर्मी 50
वर्ष की आयु पर,
महिला
सिविल सर्वेन्ट 55 वर्ष पर तथा पुरुष 60 वर्ष की आयु पर रिटायर करते हैं। प्रस्ताव
है कि श्रमिकों की रिटायरमेंट एज बढ़ाकर 65 वर्ष कर दिया जाए।
चीन ने सत्तर के दशक में एक संतान की
पालिसी अपनाई थी। एक से अधिक संतान उत्पन्न करने पर भारी फाइन लगाया जाता था और
फाइन न देने की स्थिति में जबरन गर्भपात करा दिया जाता था। एक संतान पालिसी का चीन
को लाभ मिला है। 1950 से 1980 के बीच चीन के लोगों ने अधिक संख्या में संतान
उत्पन्न की थी। माओ जेडांग ने लोगों को अधिक संख्या में संतान पैदा करने को
प्रेरित किया था। 1990 के लगभग ये संतान कार्य करने लायक हो गई। परन्तु ये लोग कम
संख्या मे संतान उत्पन्न कर रहे थे चूंकि एक संतान की पालिसी लागू कर दी गई थी।
इनकी ऊर्जा संतानोत्पत्ति के स्थान पर धनोपार्जन करने में लग गई। इस कारण 1990 से
2010 के बीच चीन को आर्थिक विकास दर 10 प्रतिशत की अप्रत्याशित दर पर रही।
2010 के बाद परिस्थिति ने पलटा खाया।
1950 से 1980 के बीच भारी संख्या में जो संतान उत्पन्न हुई थी, वे अब वृध्दि होने लगीं। परन्तु 1980
के बाद संतान कम उत्पन्न होने के कारण 2010 के बाद कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने
वाले वयस्कों की संख्या घटने लगी। उत्पादन में पूर्व में हो रही वृध्दि में ठहराव
आ गया चूंकि उत्पादन करने वाले लोगों की संख्या घटने लगी। साथ-साथ वृध्दों की
सम्हाल का बोझ बढ़ता गया जबकि उस बोझ को वहन करने वाले लोगों की संख्या घटने लगी।
वर्तमान में चीन मे वृध्दों की संख्या की तुलना में पांच गुणा कार्यरत वयस्क है।
अनुमान है कि इस दशक के अंत तक कार्यरत वयस्कों की संख्या केवल दो गुणा रह जाएगी।
कई ऐसे परिवार होंगे जिसमें एक कार्यरत व्यक्ति को दो पेरेंट्स और चार
ग्रेन्डपेरेन्ट्स की सम्हाल करनी होगी। देश के नागरिकों की ऊर्जा उत्पादन के स्थान
पर वृध्दों की देखभाल में लगने लगी। कई विश्लेषकों का आकलन है कि 2010 के बाद चीन
की विकास दर में आ रही गिरावट का कारण कार्यरत वयस्कों की यह घटती जनसंख्या है।
अनुमान है कि वर्किंग एडल्ट्स की संख्या वर्तमान में 98 करोड़ से घटकर 2050 में 71
करोड़ रह जायेगी। इसमें प्रतिवर्ष लगभग लगभग 4 करोड़ की कमी होगी। श्रमिकों की
संख्या कम होने से वेतन बढ़ेंगे, उत्पादन लागत बढ़ेगी और चीन वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे पड़ेगा।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि
जनसंख्या नियंत्रण का लाभ अल्पकालिक होता है। संतान कम उत्पन्न होने पर कुछ दशक तक
संतानोत्पत्ति का बोझ घटता है और विकास दर बढ़ती है। परन्तु कुछ समय बाद कार्यरत
श्रमिकों की संख्या में गिरावट आती है और उत्पादन घटता है। साथ-साथ वृध्दों का बोझ
बढ़ता है और आर्थिक विकास दर घटती है।
ऐसा ही परिणाम दूसरे देशों के अनुभव से
सत्यापित होता है। यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलेंड के प्रोफेसर जुलियन साइमन बताते हैं कि
हांगकांग, सिंगापुर, हालैंड एवं जापान जैसे जनसंख्या-सघन देशों
की आर्थिक विकास दर अधिक है जबकि जनसंख्या न्यून अफ्रीका में विकास दर धीमी है।
सिंगापुर के प्रधानमंत्री के अनुसार देश की जनता को अधिक संख्या में संतान उत्पन्न
करने को प्रेरित करना देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। इस आशय से उनकी सरकार ने
फर्टिलिटी ट्रीटमेंट, हाउजिंग
अलाउन्स तथा मैटर्निटी लीव में सुविधाएं बढ़ाई हैं। दक्षिणी कोरिया ने दूसरे देशों
से इमिग्रेशन को प्रोत्साहन दिया है। इमिग्रेन्ट्स की संख्या वर्तमान में आबादी का
2.8 प्रतिशत से बढ़ कर 2030 तक 6 प्रतिशत हो जाने का अनुमान है। इंग्लैड के सांसद
केविन रुड ने कहा है कि द्वितीय विश्व युध्द के बाद यदि इमिग्रेशन को प्रोत्साहन
दिया होता तो इंग्लैड की विकास दर न्यून रहती।
उपरोक्त तर्क के विरुध्द संयुक्त
राष्ट्र पापुलेशन फंड का कहना है कि जनसंख्या अधिक होने से बच्चों को शिक्षा
उपलब्ध नहीं हो पाती है और उनकी उत्पादन करने की क्षमता का विकास नहीं होता है।
मेरी समझ से यह तर्क सही नहीं है। शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए जनसंख्या घटाने के
स्थान पर दूसरी अनावश्यक खपत पर नियंत्रण किया जा सकता है। जैसे राजा साहब के महल
में स्कूल चलाया जा सकता है। यह भी याद रखना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में शिक्षित
लोगों की संख्या की जरूरत तकनीकों द्वारा निर्धारित हो जाती है। टै्रक्टर चलाने के
लिए पांच ड्राइवर नहीं चाहिये होते हैं। ड्राइवर का एमए होना जरूरी नहीं होता है।
देश में शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा मात्र
से उत्पादन में वृध्दि नहीं होती है। संयुक्त राष्ट्र का दूसरा तर्क है कि बढ़ती
जनसंख्या से जीवन स्तर गिरता है। मैं इससे सहमत नही हूं। बढ़ती जनसंख्या यदि
उत्पादन में रत रहे तो जीवन स्तर में सुधार होता है। अत: समस्या लोगों को रोजगार
दिलाने की है न कि जनसंख्या की अधिकता की।
जनसंख्या के आर्थिक विकास पर उपरोक्त
सकारात्मक प्रभाव को देखते हुए चीन की सरकार दो कदमों पर विचार कर रही है। पहला
प्रस्ताव है कि श्रमिकों की रिटायरमेंट एज बढ़ाकर 65 वर्ष कर दिया जाये। इससे
जनसंख्या कम होते हुये भी कार्यरत श्रमिकों की संख्या के गिरावट में कुछ ठहराव
आयेगा। दूसरा प्रस्ताव है कि एक संतान पालिसी में कुछ ढील दी जाए। इस प्रस्ताव को
कार्यान्वित किया जा चुका है। अब तक केवल वे दम्पति दूसरी संतान उत्पन्न कर सकते
थे जिनमें पति और पत्नि दोनों ही अपने पेरेन्ट्स के अकेली संतान थे। अब इसमें छूट
दी गई है। वे दम्पति भी दूसरी संतान पैदा कर सकेंगे जिनमें पति अथवा पत्नि में कोई
एक अपने पेरेन्ट्स की अकेली संतान थी। यह सही दिशा में कदम है। लेकिन बहुत आगे
जाने की जरूरत है। चीन समेत भारत को समझना चाहिए कि जनसंख्या सीमित करने से आर्थिक
विकास मंद पड़ेगा। जरूरत ऐसी आर्थिक नीतियों को लागू करने की है जिससे लोगों को
रोजगार मिले और वे उत्पादन कर सकें।
जनसंख्या सीमित करने के पक्ष में एक
तर्क पर्यावरण का है। बिजली, पानी, अनाज
आदि को मुहैया कराने की धरती की सीमा है। इस समस्या का दो समाधान हो सकता है। एक
यह कि जनसंख्या सीमित कर दी जाए। यह उपाय कारगर नहीं होगा चूंकि वर्तमान जनसंख्या
की बढ़ती खपत का बोझ बढ़ता जायेगा। दूसरा उपाय है कि हम कम खपत में उन्नत जीवन
स्थापित करने का प्रयास करें जैसे तुलसीदास और सूफी संतों ने बिना एयरकंडीशनर के
उत्कृष्ट रचनाएं रची थीं। मनुष्य का अंतिम मूल्यांकन खपत के स्थान पर चेतना के
विकास से करें तो समस्या का समाधान हो सकता है। तब जनसंख्या अधिक, खपत कम और चेतना उन्नत का टिकाऊ संयोग
स्थापित हो सकता है। पर्यावरण पर बढ़ते बोझ को सादा जीवन अपना कर मैनेज करना चाहिए
न कि जनसंख्या में कटौती करके। अपने देश के अनेक विद्वान बढ़ती जनसंख्या को अभिशाप
मानते हैं। चीन के अनुभव को देखते हुए हमें पुनर्विचार करना चाहिए।
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