बंगलादेश में आम चुनाव हो गए, लेकिन चुनाव नतीजों पर भारी सवाल खड़े
हो गए हैं। 5 जनवरी को हुए चुनाव की वैधता
पर मुख्य विपक्षी पार्टी बंगलादेश नेशनल
पार्टी (बीएनपी) के बहिष्कार ने सवालिया निशान लगा दिया है। सत्ताधारी पार्टी, अवामी लीग में नतीजे आने के बाद जश्न
का माहौल है। अवामी लीग के नेता और प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा है कि विपक्ष की मांगें नाजायज् ा थीं और
तथाकथित मांगों के बहाने संविधान के हिसाब से चुनाव करवाने की सरकार की कोशिश में
डाला गया अड़ंगा बेमतलब है। बहरहाल सत्ताधारी पार्टी, अवामी लीग ने जातीय संसद
(कौमी असेम्बली ) की 300 में से 232 सीटें
जीत ली हैं और अब शेख हसीना के पास भारी बहुमत है, लेकिन विपक्ष की नेता खालिदा जिया इस जीत को मान्यता देने को तैयार
नहीं हैं। इस बीच अमरीका ने भी सुझाव दे दिया है कि दोबारा चुनाव कराया जाना
चाहिए। दक्षिण एशिया में अमेरिका की ताकत को देखते हुए यह माना जा सकता है कि
प्रधानमंत्री शेख हसीना को दोबारा चुनाव करवाना पड़ सकता है। बंगलादेश के चुनाव आयोग के शुरुआती आंकड़ों के
अनुसार 5 जनवरी को हुए मतदान में करीब 40 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला है। जाहिर है
कि चुनाव के बहिष्कार की खालिदा जिया की
लाइन का खासा असर पड़ा है। खालिदा जिया को
शेख हसीना का विरोध करने के लिए जमाते इस्लामी का सहयोग मिल रहा है।
शेख हसीना भी बंगलादेश नेशनल पार्टी और
उसकी नेता खालिदा जिया को कोई रियायत देने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने चुनाव के अगले दिन बिलकुल साफकर दिया
कि मुख्य विपक्षी पार्टी जमाते इस्लामी के हाथों खेल रही है। जब उनसे पूछा गया कि
क्या वे मौजूदा राजनीतिक हालात में विपक्ष से बातचीत करने के बारे में सोच रही हैं
तो उन्होंने साफ कह दिया कि जब तक विपक्ष हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ देता तब तक
किसी तरह की बात नहीं की जायेगी। उन्होंने
कहा कि आज लोकतंत्र के दामन पर बेगुनाह
लोगों के खून के दाग लगा दिए गए हैं। हमारे लोकतंत्र पर उन लोगों के आंसू का कर्ज
है जिन्होंने 2013 में राजनीतिक हिंसा का सामना किया और अपनी जान गंवाई। आज
राष्ट्र की चेतना पर राजनीतिक लाभ के लिए
हिंसा का सहारा लेने वालों ने भारी
हमला किया है और उनको बातचीत का मौका तब
तक नहीं दिया जाएगा जब तक वे हिंसा का रास्ता छोड़ न दें। शेख हसीना ने पत्रकारों को बताया कि उन्होंने
सेना को हुक्म दे दिया है कि चुनाव के बाद
भी जो आतंकवादी हिंसा जारी है उसको ठीक करने के लिए सख्ती का
तरीका भी अपनाया जा सकता है।
विपक्ष की नेता खालिदा जिया भी शुरू
में अपने रुख में किसी तरह का बदलाव करने
को तैयार नहीं थीं। उन्होंने कहा था कि यह
चुनाव पूरी तरह से फर्जी है, उनके आह्वान पर पूरे देश ने चुनाव का बहिष्कार किया है और मतदान का
प्रतिशत किसी भी हालत में 10 प्रतिशत से यादा नहीं है। उन्होंने कहा कि सरकार की तरफ से जो 40 प्रतिशत
मतदान की बात की जा रही है, वह भी फर्जी है। लेकिन शेख
हसीना की सरकार की तरफ से मिल रहे सख्ती के संकेतों के बाद बीएनपी की नेता खालिदा
जिया का रवैया भी बदला है। हालांकि वे
चुनाव को अभी भी फर्जी बता रही हैं और सरकार पर हर तरह की बेईमानी करने के आरोप
लगा रही हैं लेकिन अब उनकी बोली बदली हुई
है और कह रही हैं कि वे सरकार से बातचीत
करने के सुझाव पर विचार कर सकती हैं लेकिन उनकी शर्त है कि
उनकी पार्टी के उन नेताओं को रिहा कर दिया जाए जिनको राजनीतिक कारणों से जेलों में
बंद कर दिया गया है। देश में 5 जनवरी को हुए
आम चुनाव के पहले बड़े पैमाने पर
राजनीतिक नेताओं की धरपकड़ हुई थी। खालिदा
जिया का कहना है कि अगर सरकार बातचीत करना चाहती है तो उन नेताओं को छोड़ना पडेग़ा।
उन्होंने कहा कि जो नेता अभी जेलों में बंद नहीं हैं, वे भी डर के मारे कहीं छिपे हुए हैं।
जाहिर है कि बातचीत करने के लिए सरकार को बातचीत का माहौल बनाना पडेग़ा। खालिदा जिया को चुनाव के एक हफ्ते पहले
से ही उनके घर में नजरबंद कर दिया गया था और किसी को भी उनसे मिलने की अनुमति नहीं
दी गई थी, लेकिन चुनाव के बाद अमेरिकी अखबार 'न्यूयार्क टाइम्स' के संवाददाता को मिलने दिया गया। उसके साथ हुई बातचीत में खालिदा जिया ने कहा कि
वे जमाते इस्लामी से भी दोस्ताना सम्बन्ध खत्म करने पर विचार कर सकती हैं।
उन्होंने संवाददाता को बताया कि जमात के
साथ उनका कोई परमानेंट सम्बन्ध नहीं है। उनसे पूछा गया कि क्या जरूरत पड़ने पर वे
जमाते इस्लामी के साथ संबंधों को खत्म भी कर सकती हैं तो बीएनपी की अध्यक्ष ने कहा कि अभी तुरंत तो
खत्म नहीं कर सकती, लेकिन
जब वक्त आयेगा तो विचार किया जा सकता है। यानी राजनीतिक सुविधा अगर आकर्षक लगी तो
खालिदा जिया जमाते इस्लामी वालों को औकात बता सकती हैं।
उधर अमेरिका और ब्रिटेन ने चुनाव
नतीजों को नाकाफी बताकर माहौल में असमंजस की स्थिति पैदा कर दिया है। 1996 का
उदाहरण दिया जा रहा है जब सत्ताधारी
पार्टी बंगलादेश नेशनल पार्टी थी और खालिदा जिया प्रधानमंत्री थीं। शेख हसीना की अवामी लीग ने चुनाव के बहिष्कार
का आह्वान किया था। बहुत कम लोग वोट डालने
आये थे। लेकिन दुनिया भर के नेताओं के दबाव के बाद खालिदा जिया ने चार महीने बाद
ही दोबारा चुनाव करवा दिया था। अमेरिका, ब्रिटेन और खालिदा जिया इस बार भी वही उम्मीद
कर रहे हैं कि शायद 1996 की तरह इस बार भी
शेख हसीना पर दबाव डालकर दोबारा चुनाव करवाया जा सकता है। लगता है कि शेख हसीना भी इस संभावना पर विचार कर रही हैं क्योंकि
उन्होंने भी मीडिया के जरिए मुख्य विपक्षी
पार्टी को सुझाव दे दिया है कि बातचीत के
बिना कोई रास्ता नहीं निकाला जा सकता। उधर खालिदा जिया और उनके साथी यह कहकर चुनाव
का बहिष्कार कर रहे हैं कि अवामी लीग सरकार को इस्तीफा देकर कार्यवाहक सरकार की
निगरानी में चुनाव कराने चाहिए था। सत्ताधारी पार्टी विपक्ष की इस मांग को ये कहते
हुए सिरे से खारिज कर चुकी हैं कि चुनाव एक संवैधानिक जरूरत है और समय से चुनाव
होना जरूरी है क्योंकि जब 24 जनवरी को
संसद का कार्यकाल खत्म हो रहा है तो उसके 90 दिन के पहले चुनाव की प्रक्रिया शुरु
की जा सकती है। लेकिन सत्ता की उम्मीद
लगाए बैठी बंगलादेश नेशनल पार्टी की अध्यक्ष खालिदा जिया कुछ भी स्वीकार करने को
तैयार नहीं हैं। वे एक तरह से जमाते इस्लामी की आवाज में बात कर रही है। सबको मालूम है कि 1971 में जमाते इस्लामी की भूमिका बंगलादेश की स्थापना के विरोध में थी। सबको यह भी मालूम है कि जब जनरल याहया खान ने
1971 में बंगलादेश के मुक्ति संग्राम को
कुचल देने के लिए ढाका में जनरल टिक्का खान को तैनात किया था तो बलात्कार की सारी घटनाएं इसी जमाते इस्लामी के
रजाकारों की मिलीभगत से हुई थीं। इसलिए
जमाते इस्लामी की ख्याति एक खूंखार आतंकी संगठन के रूप में बंगलादेश में मानी जाती
है और इसी कारण से सरकार ने उस पर पाबंदी लगा रखी है, लेकिन खालिदा जिया, पता नहीं किस मजबूरी के चलते जमात का
साथ पकडे हुए हैं। इसी जमाते इस्लामी की मदद से उन्होंने 2013 में कई बार हड़ताल
करवाई, हिंसा हुई और 85 दिन तक बंद रखवाया।
खालिदा जिया के उत्साह का कारण शायद यह है कि कुछ नगरों में हुए मेयर पद के चुनाव
में खालिदा जिया की पार्टी ने सत्ताधारी पार्टी को बुरी तरह से हरा दिया था।
इसीलिए वे चुनाव के पहले एक ऐसी सरकार के अधीन चुनाव संपन्न करवाना चाहती थीं जो
शुध्द रूप से टेक्नोक्रेट लोगों की सरकार हो उसमें कोई राजनीतिक व्यक्ति न हो, लेकिन शेखहसीना ने इस बात को यह कह कर
खारिज कर दिया कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। लेकिन खालिदा जिया एक
नहीं मानीं। 29 दिसंबर, 2013 को उन्होंने एक जुलूस निकाला और
उसे मार्च आफ डेमोक्रेसी नाम दिया। उस दौरान बहुत हिंसा हुई। चुनाव के ऐन पहले 4
जनवरी के दिन कई बूथों में आग लगा दी गई।
सड़कों पर ब्लाकेड लगा दिए गए। और
ऐसे हालात पैदा कर दिए गए कि सरकार को बहुत सारे
राजनीतिक नेताओं को जेल में डालना पड़ा।
अब तो
खालिदा जिया बातचीत के लिए तैयार नजर आती हैं लेकिन हड़ताल और आन्दोलन के
दौरान वे विजेता की तरह चलती थीं।
बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम में भारत के योगदान से कोई नहीं इंकार करता, लेकिन बेगम खालिदा जिया भारतीय नेताओं
की कोई बात सुनने को तैयार नहीं थीं।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब बंगलादेश की यात्रा पर गए थे और खालिदा जिया
से मुलाकात का कार्यक्रम बन चुका था। उसके
बावजूद उन्होंने मना कर दिया। जमाते इस्लामी वाले प्रधानमंत्री शेख हसीना
को भारत की कठपुतली साबित करने पर आमादा रहते हैं और उनको सिक्किम के पूर्व
मुख्यमंत्री काजी लेंदुप दोरजी की तरह का बताते हैं। आन्दोलन के दौर में खालिदा
जिया ने भी कई बार शेख हसीना को काजी लेंदुप दोरजी जैसा कहा जबकि उनको मालूम है कि
ऐसा नहीं है। लेकिन अब लगता है कि उनको अहसास हो गया है कि यादा बढ़-चढ़ कर बात करने
से कुछ नहीं होने वाला था और शायद इसीलिये न्यूयार्क टाइम्स को दिए गए इंटरव्यू
में उन्होंने स्वीकार किया कि जमाते इस्लामी से रिश्ता स्थायी नहीं है और दोबारा
चुनाव पर भी बात हो सकती है। जहां तक शेख
हसीना की बात है वे तो बातचीत का आमंत्रण पहले ही दे चुकी हैं। बस उनकी एक शर्त है
कि हिंसा का रास्ता छोड़ना पडेग़ा।
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