बुधवार, 22 जनवरी 2014

भारत का राजनीतिक परिदृश्य

भारत का राजनीतिक परिदृश्य हालांकि खंडित एवं जीर्ण-शीर्ण है, लेकिन वह एक आकार ले रहा है। स्वयंसेवी संगठनों, जिन्हें उपहास के तौर पर झोलावाला कहा जाता है, द्वारा गठित आम आदमी पार्टी (आप) ने इस परिदृश्य को बदला है। इस पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा के विकल्प की जरूरत को पूरा किया है। कांग्रेस और भाजपा तो दो अलग-अलग पुरानी बोतलों में एक ही शराब हैं।

आप के उदय से रायों में पकड़ रखने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को सबसे यादा नुकसान हुआ है। भाषा, क्षेत्र या धर्म के नाम पर उनकी अपील का असर कम हुआ है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप की जीत से चुनावों में जाति, पंथ या इनके जैसे दूसरे आधारों के नाम पर गोलबंदी करने वाली पार्टियों की ताकत कम हुई है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने स्वीकार किया है कि जिस तरह से 'आप' पार्टी आगे बढ़ी है, उससे उन्हें सीखना होगा। ऐसे में इन दोनों को खुद को बदलना चाहिए था। फिर भी वे यथास्थिति के गढ़ बने हुए हैं। आप जब तक लोगों की आकांक्षाओं के साथ तालमेल बनाए रखती है, तब तक इसका कोई मायने नहीं कि इस पार्टी में मार्क्सवादी शामिल हैं या नक्सलवादी। अंतत: अब जल्द इस बात की परीक्षा होगी कि आप किस तरह गरीबी दूर करती है, जिसने आजादी के 67 वर्षों बाद भी देश की आबादी को तबाह कर रखा है।

एक बात निश्चित है कि वाम पार्टियां निर्मोही तरीके से कुचल दी गई हैं। निस्संदेह रूप से यह एक नुकसान है लेकिन कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियां इसके लिए खुद दोषी हैं, क्योंकि जमीन से अब उनका कोई ताल्लुकात नहीं रह गया है। प्रगति और समान अवसर के सवाल को सिर्फ  नारों या नाटकों में सीमित नहीं किया जा सकता। गरीबों की भलाई के लिए 'आप' समय सीमा के अंदर पूरा करने का एजेंडा लेकर आई है। पश्चिम बंगाल में अपने 35 साल के शासन में कम्युनिस्ट जब लोगों के जीवन में सुधार नहीं ला सके तो उन्होंने साबित कर दिया कि उनका मार्क्सवाद प्रगति का परत मात्रा है। इसका परत उधेड़ने पर पता चलता है कि वह इसी व्यवस्था का ही अंश है। उन्होंने गरीबों को अपनी आवाज नहीं उठाने दी। जो काम वे दशकों के शासन में नहीं कर सके, आप ने इसे करीब 12 महीने में कर दिखाने का वादा किया है।

दोनों मुख्य पार्टियां-कांग्रेस और भाजपा मंदिरों के महंत की तरह हैं। उन्होंने कुछ सीखा नहीं है, भूले कुछ नहीं हैं। अपनी नीतियों को सुधरने के बजाय, 'आप' को वे बेतुका चीज या ऐसा गुब्बारा मान रहे हैं जो इस साल अप्रैल में होने वाले लोकसभा चुनाव तक फट जाएगा। लेकिन वे गलतफहमी में हैं, क्योंकि 'आप' ने लोगों के मन की उड़ान पर अपनी पकड़ बना ली है और यह आग की तरह फैल चुकी है। जो लाखों  लोग 'आप' में शामिल हुए हैं, वह इसे दिखा रहा है।

प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की हवा जिस तरह खत्म हो गई है वह इस बात का संकेत दे रहा है कि भीड़ पर उनकी पकड़ अब पहले जैसी नहीं रह गई है। हालांकि मीडिया अभी भी उन्हें उभारने में लगा हुआ है। यही कारण है कि आरएसएस ने भाजपा से 'आप' को रोकने को कहा है, न कि कांग्रेस को, जो वर्षों से उसकी विरोधी रही है। दिल्ली का शासन चलाने के क्रम में आप जो कुछ भी निर्णय ले रही है, उस पर नेताओं के हमले से यह बात पुष्ट होती है कि कांग्रेस खिसक कर तीसरे नंबर पर पहुंच चुकी है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि मोदी को रोकने के लिए वह गैर आधिकारिक तौर पर आप का समर्थन करेगी। इसका यह भी मायने है कि कांग्रेस महसूस कर चुकी है कि वह सत्ता में वापस नहीं आ पाएगी। वास्तव में वह केंद्र में 'आप' की सरकार बनवाने के लिए अपने समर्थन के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों का समर्थन जुटाने का प्रयास कर सकती है। मोदी को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस कोई कोशिश बाकी नहीं छोड़ेगी।

राजनीतिक परिदृश्य का सबसे परेशान करने वाला पहलू भ्रष्टाचार है। कांग्रेस एवं भाजपा, खासकर भाजपा, को दागी नेताओं का समर्थन लेने में कोई हिचक नहीं है। कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ कार्रवाई करने से इंकार कर दिया है। जबकि उन पर एक वैसे कंपनी को मदद करने का आरोप है जिसका बहुत अधिक शेयर उनके रिश्तेदारों के पास है। मोदी यूं तो सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बात कर रहे हैं लेकिन अदालत द्वारा दोषी करार दिए गए व्यक्ति को अपने मंत्रिमंडल में रखे हुए हैं। सजा मिलते ही बिहार के लालू प्रसाद और कांग्रेस के रशीद मसूद की संसद की सदस्यता खत्म हो गई। तो फिर गुजरात के मोदी सरकार में भाजपा एक सजायाफ्ता को पनाह क्यों दिए हुए है?

परेशान करने वाली दूसरी बात व्यक्तिवाद का उभार है। भारत का लोकतंत्र अध्यक्षीय प्रणाली में बदलने लगा है। इसके लिए मोदी सबसे अधिक दोषी हैं, क्योंकि उन्होंने मजबूत व्यक्तित्व और मजबूत सरकार का नारा दिया है। बारह साल पहले अपनी ही प्रजा का कत्लेआम कराने वाला शासक संविधान द्वारा प्रदत्त असहमति के अधिकार के लिए घातक होगा। यह कोई आश्चर्य वाली बात नहीं, लेकिन दुख:द है कि अहमदाबाद में पुलिस ने मोदी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर दिया। मोदी पर एक लड़की को अपनी निगरानी में रखने का जो आरोप है वह कई सवाल खड़ा करता है। सच्चाई का पता लगाने के लिए एफआईआर जरूरी होता है। केंद्र द्वारा गठित आयोग सच्चाई का पता लगा सकता है। लेकिन स्थानीय पुलिस के रवैये से पता चलता है कि राय का सरकारीतंत्र मदद करने को तैयार नहीं है।

मोदी की चाल को देखते हुए 2014 के चुनाव को कांग्रेस को व्यक्तित्व की लड़ाई नहीं, बल्कि मुद्दों की लड़ाई में तब्दील करना चाहिए था। लेकिन कांग्रेस राहुल गांधी को प्रोजेक्ट कर गलत कर रही है। ऐसा लग रहा है संघर्ष इन्हीं दोनों के बीच है। राहुल गांधी अक्सर महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों पर बोल रहे हैं और सरकारी निर्णयों को उलटवा रहे हैं। एक उदाहरण राजनीतिज्ञों को सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से बचाने के लिए अध्यादेश जारी करने का है, जिस फैसले के अनुसार सजा सुनाए जाने के बाद विधायकी या संसद सदस्यता खत्म हो जाने का फैसला दिया गया था। दूसरा उदाहरण महाराष्ट्र के आवास घोटाले का है। आदर्श हाउसिंग रिपोर्ट को महाराष्ट्र की कांग्रेसनीत सरकार खारिज कर चुकी थी, लेकिन राहुल गांधी ने इस आंशिक रूप से वापस कराया। इसके बावजूद राजनीतिज्ञ बेखौफ घूम रहे हैं। गाज सिर्फ नौकरशाहों पर गिर रही है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को समझना चाहिए कि आप सरकार उनकी कोई अपनी व्यक्तिगत मंडली नहीं है। आश्चर्य की बात है कि उन्होंने अपने पास 16 विभागों को रख लिया है। गांधीवादी जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से उपजी जनता पार्टी यादा दिनों तक नहीं चल सकी थी। लेकिन उसने एक काम जरूर किया कि अब देश में दुबारा आपातकाल नहीं थोपा जा सकता। लोकतंत्र की जड़ें काफी मजबूत हैं। अगर आप व्यवस्था को ठीक करती है और सुनिश्चत करती है कि वह इसी रास्ते पर रहेगी तो यह सरकार बहुत दिनों तक नहीं चले तो भी 'आप' का बहुत बड़ा योगदान होगा।


कुलदीप नैय्यर

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