पिछले तीन वर्षों से हमारी अर्थव्यवस्था संकट में है। विकास
दर लगातार गिर रही है, महंगाई
बढ़ती जा रही है और रुपया टूट रहा है। इन सभी समस्याओं की जड़ में कुशासन ही दिखाई
देता है। महंगाई बढ़ने का कारण है सरकार द्वारा अपने राजस्व का लीकेज किया जाना।
जैसे सरकार का राजस्व एक करोड़ रुपया हो और उसमें 20 लाख रुपये का रिसाव करके अफसरों और
नेताओं ने सोना खरीद लिया हो। अब सरकार के पास वेतन आदि देने के लिए रकम नहीं बची।
ये खर्चे पूरे करने के लिए सरकार ने बाजार से कर्ज लिए।
कर्ज
लेना आसान बनाने के लिए रिजर्व बैंक ने नोट छापे ताकि मुद्रा बाजार में रकम की
उपलब्धता बढ़ जाए और सरकार आसानी से कर्ज उठा सके। एक करोड़ के नोट पहले ही प्रचलन
में थे, अब 20 लाख के नोट और चक्कर काटने लगे।
नए छापे गए नोटों की भूमिका खरीददार जैसी होती है। लिहाजा आलू, सीमेंट, कपड़ा आदि सभी वस्तुओं के दाम
बढ़ने लगे, जैसे
मंडी में आलू की सप्लाई पूर्ववत हो और खरीददार ज्यादा आ जाएं तो दाम बढ़ जाते हैं।
इस प्रकार लीकेज के कारण ज्यादा नोट छापने पड़े और महंगाई बढ़ती गई।
कुशासन के मायने
ग्रोथ
रेट गिरने का कारण भी रिसाव है। ग्रोथ रेट बढ़ाने के लिए व्यक्ति को खपत कम और
निवेश ज्यादा करना पड़ता है। जैसे दुकानदार 2000 रुपया कमाए और 1000 निवेश करे तो ग्रो करता है।
इसके विपरीत वह इतनी ही कमाई पर 3000 रुपया कर्ज लेकर उसे खर्च कर डाले तो फिसलने लगता है। पिछले
दशक में सरकार ने कर्ज माफी, मनरेगा
और राइट टु फूड के माध्यम से ऐसे ही खर्चों को पोषित किया है, जबकि हाईवे और रिसर्च में निवेश
घटाया है। इससे गरीब को राहत मिली है लेकिन ग्रोथ दबाव में आ गई है और बेरोजगारी
बढ़ी है। लोगों को रोजगार देने के बजाय अनाज बांट कर उनका वोट खरीदना कुशासन ही
है।
रुपये के
टूटने का कारण भी कुशासन है। हमारे उद्यमियों को भारी मात्रा में घूस देनी पड़ती
है, अतः माल
महंगा हो जाता है। वे माल का निर्यात नहीं कर पाते हैं, जबकि दूसरे देशों में लागत कम
आती है और उनका माल सस्ता पड़ता है। निर्यात कम होने के कारण हमें डॉलर कम मात्रा
में मिलते हैं। आयात ज्यादा होने के कारण डॉलर की डिमांड ज्यादा होती है। सप्लाई
और डिमांड के असन्तुलन के कारण डॉलर महंगा और रुपया सस्ता हो जाता है। इस प्रकार
हमारी सभी समस्याओं की जड़ में भ्रष्टाचार और कुशासन ही नजर आता है।
गवर्नेंस
का ग्लोबलाइजेशन हो चुका है। पहले हम भ्रष्टाचार को अपनी सरहद के अंदर पाल-पोस
लेते थे। भ्रष्टाचार के कारण भारत में मोबाइल फोन 5,000 रुपये में मिले जबकि दूसरे
देशों में वह 4,000 रुपये में मिले तो व्यवस्था गड़बड़ाती नहीं थी। लेकिन अभी दूसरे
सुशासित देशों में बना सस्ता माल हमारे घरेलू बाजार में हमारे ही माल को चलन से
बाहर कर रहा है और हमारी अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है।
ग्लोबलाइजेशन
के इस दौर में जो देश सुशासित होगा वही जीतेगा। ऐसे में हमारे पास अपनी शासन प्रणाली
को ग्लोबल स्टैंडर्ड पर सुधारने के अलावा कोई चारा नहीं है। जैसे स्विमिंग पूल में
ढकेल दिए जाने के बाद तैरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता, उसी प्रकार ग्लोबलाइजेशन में
ढकेले जाने के बाद सुशासन का कोई विकल्प नहीं बचा है। इस परिप्रेक्ष्य में हाल के
चुनावों में नरेंद्र मोदी और 'आप' की सफलता
से आशा बंधती है। अतः मैं 2014 को लेकर
आशान्वित हूं। इन दोनों में से एक की सरकार बनने से रिसाव कम होगा और अर्थव्यवस्था
चल निकलेगी।
वैश्विक
परिस्थितियों का भी 2014 पर
प्रभाव पड़ेगा। मुद्दा अमेरिका की चाल का है। हमारी तरह अमेरिकी सरकार के भी खर्च
ज्यादा और रेवेन्यू कम है। सरकार द्वारा ऋण लेकर दिए जा रहे स्टिम्युलस के बल पर
अमेरिकी अर्थव्यवस्था में ग्रोथ दिख रही है, जैसे बीमार को ग्लूकोज चढ़ाने पर कुछ
समय के लिए वह उठ खड़ा होता है। लेकिन इस तरह मरीज को ज्यादा दिन स्वस्थ नहीं रखा
जा सकता।
बढ़ते
कर्ज के दूरगामी दुष्प्रभाव को देखते हुये अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने स्टिम्युलस
की मात्रा घटाने का निर्णय लिया है। प्रश्न है कि इस झटके को अमेरिकी अर्थव्यवस्था
झेल पाएगी या नहीं? कई
विश्लेषक मौजूदा ग्रोथ को टिकाऊ मान रहे हैं। ऐसा हुआ तो हमारे माल की मांग बढ़ेगी
और हमारे निर्यात सुदृढ़ होंगे। परंतु स्टिम्युलस घटाने का हमारे लिए दुष्प्रभाव
यह होगा कि अमेरिका में ब्याज दर बढ़ेगी और निवेशक भारत से पैसा निकालकर अमेरिका
में निवेश करना चाहेंगे।
अमेरिका
से क्या डरना दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिका में स्टिम्युलस कम होने से हमारे
निर्यात बढ़ेंगे लेकिन विदेशी निवेश घटेगा। इसका उलटा, यानी निर्यात का घटना और निवेश
का बढ़ना हम 2009 के बाद
से देखते आ रहे हैं। अतः मेरे आकलन में स्टिम्युलस की टेपरिंग हमारे लिए
अप्रासंगिक है। निष्कर्ष यह कि 2014 की एक मात्र चुनौती सुशासन की है। सुशासन स्थापित होगा तो
हमारी अर्थव्यवस्था स्वतः चल निकलेगी। अन्यथा हम इसी तरह अपनी घरेलू नाकामी का
ठीकरा वैश्विक कारणों पर फोड़ते रहेंगे।
- भरत झुनझुनवाला
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