शनिवार, 11 जनवरी 2014

सार्वजनिक संसाधनों की निजी लूट

लोकपाल विधेयक के अंतिम रूप से स्वीकार किए जाने से पहले राज्यसभा में हुई बहस में सीपीआई (एम) की ओर से, प्रस्तावित विधेयक में एक ठोस संशोधन पेश किया गया था। संशोधन का आशय यह था कि ऐसी निजी कंपनियों को तथा खासतौर पर ऐसी निजी-सार्वजनिक साझेदारी (पीपीपी) परियोजनाओं लोकपाल द्वारा छानबीन के दायरे में लाया जाए, जो सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग करती हैं या सरकार से जिनका वित्तीय लेन-देन का रिश्ता बनता है। हालांकि, प्रस्ताव पर मतदान के समय पर राज्यसभा में वामपंथी पार्टियों के कुल 11 सदस्य उपस्थित थे, उक्त संशोधन प्रस्ताव के पक्ष में 19 वोट पड़े थे। दूसरे शब्दों में वामपंथी सांसदों के अलावा कुछ अन्य सदाकांक्षी सांसदों ने भी, इस संशोधन का समर्थन किया था। बहरहाल, कांग्रेस-नीत यूपीए और भाजपा-नीत एनडीए ने मिलकर इसके खिलाफ वोट डाला और प्रचंड बहुमत से यह संशोधन प्रस्ताव गिर गया। आखिर, ये दोनों ही कतारबंदियां ऐसी निजी कंपनियों पर अंकुश लगाने के खिलाफ हैं, जिनके सार्वजनिक संसाधनों या ऐसे राजस्व के दुरुपयोग या उसमें गड़बड़ी करने के मौके हो सकते हैं, जो राजस्व वैध तरीके से सरकारी खजाने में जाना चाहिए।

इस संदर्भ में दिल्ली हाईकोर्ट का हाल का फैसला, जो निजी दूरसंचार कंपनियों को नियंत्रक तथा लेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा ऑडिट के दायरे में लाता है, वाकई बहुत ही महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट के फैसले में 2-जी स्पैक्ट्रम के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला दिया गया है और इस पर चर्चा की गई है कि किसी भी निजी सत्ता द्वारा सार्वजनिक संसाधनों के उपयोग पर नियंत्रण रखा जाना जरूरी है। न्यायमूर्ति नंदरजोग तथा वीके राव की दिल्ली हाईकोर्ट की पीठ ने इस निर्णय के लिए 'रेस काम्यूनेस' की अवधारणा का सहारा लिया है, जो यह कहती है कि प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण, एक न्यासी के रूप में शासन के हाथों में रहता है और शासन की यह जिम्मेदारी बनती है कि अगर ये संसाधन निजी हाथों में दिए जाते हैं, तो इन पर समुचित नियमन सुनिश्चित करें। इसलिए, दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि सीएजी अपना ऑडिट, पांच निजी दूरसंचार कंपनियों की राजस्व प्राप्तियों के ऑडिट तक सीमित रखेगी, जिनका सरकार के साथ राजस्व साझीदारी समझौता है। इस समझौते के तहत ये कंपनियां, सरकारी खजाने को सालाना 20,000 करोड़ रुपए से ज्यादा देती हैं। सीएजी का ऑडिट इसकी जांच करेगा कि क्या मौजूदा समझौते के तहत सरकार का राजस्व हिस्सा उतना ही बनता है, जितना उक्त निजी दूरसंचार कंपनियां दर्शा रही हैं।

जाहिर है कि ऐसा लेखा परीक्षण पूरी तरह से जायज है। सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल करने वाली निजी फर्मों का ऑडिट करने का सीएजी का अधिकार, जैसा कि सीपीआई (एम) ने लोकपाल विधेयक पर चर्चा के क्रम में संसद में रेखांकित भी किया था, किसी भी तरह से न तो किसी निजी फर्म के काम-काज में हस्तक्षेप माना जा सकता है और न संविधान की धारा-149 का उल्लंघन, जो सीएजी द्वारा निजी फर्मों के ऑडिट को रोकता हो। इसकी सीधी सी वजह यह है कि निजी दूरसंचार कंपनियां, सालाना लाइसेंस फीस के अलावा स्पैक्ट्रम उपयोग शुल्क के रूप में 1 से 8 फीसद तक सरकारी खजाने में देती हैं। ऐसे में इस तरह का ऑडिट यह तो सुनिश्चित करेगा ही कि सरकार को निजी दूरसंचार कंपनियों से अपने हिस्से का पूरा राजस्व मिले, इसके अलावा सरकार को तथा जनता को यह भी जानने को मौका मिलेगा कि कहीं दूरसंचार कंपनियां अपनी राजस्व-प्राप्ति ही तो घटाकर नहीं दिखा रही हैं, जिससे इसमें से सरकारी खजाने में जाने वाला हिस्सा भी घट जाएगा।

इस संदर्भ में हाईकोर्ट ने खेद के साथ यह दर्ज किया है कि किस तरह ''बड़ी कार्पोरेशनें'' बच निकलने की लड़ाई लड़ती हैं। अदालत ने दर्ज किया है कि, ''नियमन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में, नियामकों और नियमितों के बीच, जो परिपालन से पूरी तरह से बच निकलने या सिर्फ 'रचनाशील' परिपालन करके दिखाने पर आमादा रहते हैं, लगातार शह और मात की लड़ाई लड़ी जा रही होती है।'' हाई कोर्ट का फैसला आगे कहता है कि, ''हमारी तो यही कामना है कि बड़ी कार्पोरेट सत्ताएं इस बात को समझें कि शह-मात की यह लड़ाई, विकारग्रस्तता ही पैदा करती हैभांति-भांति के अयाचित परिणाम पैदा करती है, जो खुद नियमन के लक्ष्य को ही विफल कर देते हैं।''

हाईकोर्ट के इस निर्णय का एक और पक्ष, जो निजी कंपनियों से संबंध रखता है, ''हरेक कांट्रैक्ट के अधिशेष (फिडूशियरी) सिद्धांत पर, उसके जोर का है। हाईकोर्ट ने याद दिलाया है कि किसी भी कांट्रैक्ट में, ''निहितार्थत: सद्भावना तथा ईमानदारी की शर्त लगी होती है क्याकि हरेक कांट्रैक्ट में सभी पक्ष, एक-दूसरे पर भरोसा जताते हैं, कि उनमें से हरेक पक्ष ऐसा कुछ भी करने से बचेगा जिससे, किसी दूसरे पक्ष के उस कांट्रैक्ट के फल हासिल करने के अधिकार पर चोट पहुंचती है या वह नष्ट होता हो।''

सहज ज्ञान तो यही कहता है कि इस तर्क पर, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है, किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसके बावजूद, दूरसंचार उद्योग के निकायों ने सीएजी के प्रस्तावित ऑडिट पर आपत्तियां दर्ज कराई थीं, जिन्हें मान्य न्यायालय ने बलपूर्वक ठुकरा दिया है। मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार, अदालत के उक्त निर्णय के बाद भी फिक्की के अध्यक्ष ने यही दावा किया है कि, ''निजी कंपनियों के खातों में सीएजी के दखलंदाजी करने की कोई गुंजाइश नहीं है।''

इसी प्रकार की आपत्तियां दिल्ली हाईकोर्ट के उस निर्णय पर आई हैं, जिसमें देश की राजधानी में बिजली की तीन निजी वितरण कंपनियों के ऑडिट का आदेश दिया गया है। इनमें से दो कंपनियों, बीएसईएस राजधानी और बीएसईएस यमुना में, जो राजधानी की 75 फीसद आबादी को बिजली की आपूर्ति करती हैं, रिलायंस इन्फ्रास्ट्रक्चर की 51 फीसद हिस्सा पूंजी है। इसी प्रकार, शेष राजधानीवासियों के लिए बिजली की आपूर्ति करने वाली टाटा पावर डल्ही डिस्ट्रीब्यूशन लि. में, टाटा पॉवर का 51 फीसद हिस्सा है। इन तीनों बिजली आपूर्ति कंपनियों में से हरेक में शेष 49 फीसद हिस्सा पूंजी, अपनी होल्डिंग फर्म डल्ही पॉवर कंपनी लि. के जरिए, दिल्ली सरकार के हाथ में है।

सीएजी से इन तीनों बिजली आपूत कंपनियों का ऑडिट कराए जाने की पुकार तीन साल पुरानी है। 2011 की फरवरी में इसके लिए एक याचिका दायर की गई थी। बहरहाल, इस याचिका में सीएजी से ऑडिट की मांग तो की ही गई थी, इसके साथ ही यह मांग भी की गई थी निजी बिजली आपूर्ति कंपनियों द्वारा रिकार्डों की हेरा-फेरी तथा फर्जीवाड़े के आरोपों की भी सीबीआई से या ऐसी ही किसी अन्य एजेंसी से जांच कराई जाए। इसके बाद, 2012 के मार्च के महीने में तत्कालीन दिल्ली सरकार ने बीएसईएस ग्रुप की कंपनियों का सीएजी से ऑडिट कराने का अनुमोदन भी कर दिया था। बहरहाल, दिल्ली की नयी सरकार ने अब तीनों बिजली वितरण कंपनियों के सीएजी ऑडिट के आदेश दे दिए हैं। उधर, 2011 की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट में अंतिम जिरह 22 जनवरी को होने जा रही है।

चूंकि इन कंपनियों में 49 फीसद हिस्सा दिल्ली सरकार का है या सार्वजनिक खजाने का है, यह पूरी तरह से उपयुक्त ही है कि इन कंपनियों के खातों की लेखा जांच सीएजी द्वारा की जाए। इसके बावजूद, इसका जोर-शोर से विरोध किया जा रहा है। वास्तव में कार्पोरेट जगत के कुछ प्रवक्ताओं ने तो इस आशय की धमकियां भी दी हैं कि देश में पहले ही आम आर्थिक मंदी के हालात हैं और ऐसे में निजी कंपनियों के खातों के सीएजी द्वारा ऑडिट जैसे कदम अर्थव्यवस्था को और नीचे धंसा देंगे!


यह प्रकारांतर इसी बात की मांग करना है कि हमारी अर्थव्यवस्था में दरबारी पूंजीवाद का जो बोलबाला चल रहा है, जो अवैध तरीकों से भी मुनाफे अधिकतम करने की इजाजत देता है, उस पर किसी भी तरह का अंकुश ही नहीं लगाया जाना चाहिए। जरा 2008 के विश्व वित्तीय संकट के फूटने के फौरन बाद की मीडिया की रिपोर्टों को याद करें, जब इसके खूब चर्चे हुए थे कि किस तरह अमेरिका की भीमकाय ऑटोमोबाइल कंपनियों के मुखिया, अमेरिकी राष्ट्रपति से बेल आउट पैकेज की मांग करने के लिए, निजी जैटों में सवार होकर वाशिंगटन पहुंचे थे! आज भारत में, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का लाखों करोड़ रुपया बट्टे-खाते में डाला जा रहा है, फिर भी कार्पोरेट खिलाड़ी निजी जैट विमानों में दुनिया भर में सैर-सपाटे करते फिरते हैं। कब तक हमारा देश इस दरबारी पूंजीवाद को बर्दाश्त करेगा, जो सार्वजनिक हित की कीमत पर, निजी कमाइयों की इजाजत देता है? हम तो यही उम्मीद करते हैं कि हाल के महत्वपूर्ण घटनाक्रम के बाद, ज्यादा समझ-बूझ से काम लिया जाएगा और कांग्रेस तथा भाजपा, दोनों को संसद में इसके लिए मजबूर किया जा सकेगा कि इस तरह के दरबारी पूंजीवाद को संरक्षण देना बंद करें और देश व जनता दोनों के हित में, लोकपाल कानून में सीपीआई (एम) द्वारा रखे गए संशोधन को मंजूर करें। इस रास्ते पर चलकर ही यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि सार्वजनिक संसाधनों का हमारी जनता की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए उपयोग हो न कि उन्हें निजी लूट के लिए खुला छोड़ दिया जाए।

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