बच्चों का शारीरिक व मानसिक शोषण हर
समाज की सबसे पहली चिंता होना चाहिए। बच्चे यूं ही किसी देश का भविष्य नहींकहे
जाते। वे अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था में जिस तरह की परिस्थितियों से गुजरते
हैं, उसी से उनके भावी जिंदगी की रूपरेखा तय
होती है। संवेदनशील माहौल में पला-बढ़ा बच्चा बड़ा होकर अपने आसपास की दुनिया के
प्रति संवेदनशील रहेगा, और
जो बच्चा क्रूर,
निर्मम, हिंसक, आपराधिक माहौल का सामना करेगा, उससे भविष्य में एक सभ्य, जिम्मेदार, संवेदनशील
नागरिक बनने की उम्मीद नहींकी जा सकती। संयुक्त राष्ट्र संघ में बच्चों के कल्याण
व उनके अधिकारों की रक्षा की विस्तृत व्यवस्था है, दुनिया के लगभग सभी देशों में बाल अधिकारों के लिए नियम-कानून बनाए
गए हैं और जिन देशों में गृहयुध्द, बाहरी हमलों, आतंकवाद, प्राकृतिक
आपदाओं के कारण बच्चे विपरीत परिस्थितियों में जीवन बिताने को मजबूर हैं, और सरकार उसका संज्ञान नहींलेती है, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसकी आलोचना
करता है और दबाव डालता है कि वह बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। भारत में न
गृहयुध्द छिड़ा हुआ है, न
बाहरी हमला हुआ है और उत्तराखंड जैसे एकाध स्थान को छोड़कर कहींभारी प्राकृतिक आपदा
भी पिछले एक वर्ष में नहींआयी है। फिर भी बच्चों का शोषण इस देश में जारी है और
बालअधिकार कागजों में सिमट कर रह गया है। बहुत हुआ तो किसी सभा-संगोषठी में इस पर
चर्चा हो जाती है,
लेकिन
वे बातें कार्यरूप में परिणत नहींहोती। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों में महिला एवं
बाल कल्याण मंत्रालय बना हुआ है, कमीशन फार प्रोटेक्शन आफ चाइल्ड राइट एक्ट 2005 की धारा 17 के
मुताबिक बाल अधिकार आयोग की स्थापना का कानून भी बना है, लेकिन इसका पालन करने की सुध किसी को
नहींहै। पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में उन 19 राज्यों को निर्देश
जारी किए थे, जिनमें बाल अधिकार आयोग नहींगठित किए
गए हैं। लेकिन साल भर बाद भी इस स्थिति में कोई सुधार नहींहुआ है। कानूनन हर राज्य
में एक आयोग गठित होना चाहिए जो अपने क्षेत्र में बाल अधिकारों की रक्षा व उनके
विकास के लिए कार्य करे। इस आयोग में एक अध्यक्ष व छह सदस्य होने चाहिए, जो बालकल्याण के कार्यों से जुड़े हुए
हों, छह सदस्यों में कम से कम एक महिला
सदस्य का होना आवश्यक है। यह आयोग प्रतिवर्ष अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपे और अगर
जरूरत हो तो विशेष सिफारिशें भी करे। दंगा, आतंकवाद, प्राकृतिक
आपदा, घरेलू हिंसा, एड्स जैसी घातक बीमारी, दर्व्यवहार, शारीरिक शोषण, वेश्यावृत्ति आदि के कारण बच्चों का जो
शोषण हो रहा है,
उसे
रोकने के लिए कानूनों का पालन हो रहा है या नहीं, यह देखना आयोग का काम है। बच्चों की रक्षा के लिए कुछ सुझाव भी वह
सरकार को दे सकता है। वंचित समुदाय के बच्चों को विशेष देखभाल व सुरक्षा मिले यह
देखना भी आयोग के जिम्मे है। बाल अधिकारों के क्षेत्र में शोध कार्य करवाना, विभिन्न माध्यमों से समाज में जागरूकता
फैलाना व बाल संरक्षण गृहों का समय-समय पर निरीक्षण करना आयोग की जिम्मेदारी है।
कुल मिलाकर वर्ग,
जाति, संप्रदाय से परे हर बच्चे को उसका
अधिकार मिले, परिस्थितियां कैसी भी हों, उनके दुष्प्रभाव से बच्चे बचे रहें, स्वस्थ-सुखद माहौल में उनकी परवरिश हो, ऐसी व्यवस्था कानून में की गई है और
इसका पालन करवाने की जिम्मेदारी बाल अधिकार आयोग पर है। लेकिन भारत के अधिकतर राज्यों
में बाल अधिकार आयोग कागज पर गठित होने से आगे नहींबढ़ पाए हैं।
उत्तरप्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, चंडीगढ़, त्रिपुरा, पांडीचेरी, अंडमान व निकोबार, लक्षद्वीप, दादरा नगर हवेली एवं दमन-दीव में बाल
अधिकार आयोग का गठन होना बाकी है। आंध्रप्रदेश, नागालैंड व मेघालय में आयोग गठित कर लिए गए, लेकिन उसमेंसदस्य नियुक्त नहींकिए।
छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा व तमिलनाडु में आयोग के अध्यक्ष नियुक्त हो गए, किंतु सदस्य नियुक्त नहींकिए गए हैं।
वहींगुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल में सदस्य बना दिए गए हैं, लेकिन अध्यक्ष नहींनियुक्त हुए हैं।
आयोग क्यों नहींगठित हुए, सदस्यों का चयन क्यों नहींकिया गया, अध्यक्ष क्यों नहींबनाए गए, इसे लेकर हर किसी के पास अपने तर्क व कारण हैं। इस वजह से विषम
परिस्थितियों में जी रहे बच्चों के बर्बाद होते जीवन की जिम्मेदारी लेने के लिए
शायद ही किसी के पास शब्द हों। दरअसल बच्चे किसी वोटबैंक में नहींआते, जो राजनैतिक दल उन्हें लेकर हंगामा खड़ा
करें। वे कभी किसी राजनैतिक दल के घोषणापत्र का हिस्सा नहींबनते। मुफ्त लैपटाप या
साइकिल निकट भविष्य के वोटरों को ही दिया जाता है। बच्चे सुर्खियों में भी तभी आते
हैं, जब उनकी कोई खास उपलब्धि होती है या
बालदिवस जैसा कोई विशेष अवसर हो। कुल मिलाकर बच्चों के प्रति अत्यंत संवेदनहीन, उदासीन समाज में हम जीते हैं और सुखद
भविष्य की कामना करते हैं। क्या ऐसे फल की उम्मीद हमें करनी चाहिए, जिसका बीजारोपण ही नहींकिया गया हो।
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