पिछले कुछ माह में मध्य-पूर्व दुनिया
का और भी हिंसक क्षेत्र हो गया है। इराक में सीरिया के बाद सबसे खूनी गृहयुद्ध चल
रहा है। इन भयावह घटनाओं को होते देख अमेरिका में कई लोगों को यकीन हो गया है कि
यह वाशिंगटन की विफलता का नतीजा है। इस क्षेत्र के प्रति ओबामा प्रशासन के
निष्क्रिय रवैये के कारण ही वहां अस्थिरता को बढऩे का मौका मिला। अब अगर इस
क्षेत्र को किसी चीज की जरूरत है तो वह अमेरिका का और अधिक हस्तक्षेप ही है। उसका
दखल ही क्षेत्र का माहौल बदल सकता है।
मध्यपूर्व उसी तरह के सांप्रदायिक
संघर्ष में फंस गया है जैसा यूरोप में कैथोलिक और प्रोटेस्टंट के बीच सुधारवादी
युग में देखा गया था। इन तनावों की जड़ें इतिहास और राजनीति में हैं और ये आसानी
से दूर नहीं होंगे। तीन तथ्य हैं जिनके कारण हालात ऐसे हो गए हैं। एक तो
मध्य-पूर्व के देशों की संरचना। आधुनिक मध्य-पूर्व का निर्माण प्रथम विश्व युद्ध
के अंत में औपनिवेशिक शक्तियों ने किया था। ब्रितानियों व फ्रांसीसियों ने जिन
राष्ट्रों का निर्माण किया वे ऐेसे हताश समूह थे, जिन्हें एक राष्ट्र के रूप में शासित होने का कोई अनुभव नहीं था। फिर
इन राष्ट्रों के निर्माण के पहले कोई व्यवस्थित सोच-विचार भी नहीं किया गया।
मसलन, ऑटोमन साम्राज्य के तीन प्रांतों को लेकर इराक को एक राष्ट्र का रूप
दिया गया, जबकि तीनों प्रांतों में ऐसी कोई समानता
नहीं थी कि वे एक राष्ट्र का रूप ले सकें। औपनिवेशिक शक्तियों ने प्राय:
अल्पसंख्यक गुटों से शासक चुने। (यह धूर्ततापूर्ण रणनीति थी, क्योंकि एक अल्पसंख्यक सत्ता को शासन
करने के लिए हमेशा ही बाहर से मदद की जरूरत बनी रहेगी। इस तरह सुनिश्चित किया गया
कि मध्य-पूर्व के शासक उन पर निर्भर रहें।)
1930 और 1940 के दौरान जब फ्रांसीसियों
को सीरिया में राष्ट्रवादी विद्रोह का सामना करना पड़ा तो उन्होंने तब प्रताडि़त
किए जा रहे अल्पसंख्यक अलावाइट समुदाय के लोगों की भारी भर्ती की। इतनी कि सेना और
खासतौर पर अफसरशाही में इस समुदाय का प्रभुत्व हो गया। दूसरा तथ्य था बढ़ता
इस्लामी कट्टरतावाद। अब कट्टरता बढऩे की भी अपनी वजहें हैं। एक वजह तो सऊदी अरब का
उदय तथा वहां से खालिस वहाबी विचारों का बाहर के मुल्कों में प्रसार रही। फिर
ईरानी क्रांति और क्षेत्र के धर्मनिरपेक्ष
गणराज्यों का सैन्य तानाशाही में तब्दील होने से पश्चिमीकरण की साख का घटना दूसरा
कारण था।
उदाहरण के रूप में क्षेत्र के सबसे
महत्वपूर्ण देश गमाल अब्देल नासेर के मिस्र को लिया जा सकता है। वह कट्टरपंथी नहीं
था बल्कि अपनी धर्मनिरपेक्ष मानसिकता पर जोर देता था। किंतु वक्त के साथ जैसे-जैसे
ये सत्ताएं नाकाम होती गईं, वे उन कबीलों के निकट आती गईं जो उनके प्रति वफादार थे। सद्दाम हुसैन
के जिस इराक में ज्यादा धार्मिक आग्रह नहीं था वह 1990 के आते-आते अत्यधिक
कट्टरपंथी हो गया।
आमतौर पर नई सांप्रदायिकता प्रभुत्व की तत्कालीन शैली को और मजबूत करती
गई। जब आप मध्य-पूर्व में जाएं तो आपको प्राय: यह सुनने को मिलता है कि यहां
शिया-सुन्नी का मतभेद पूरी तरह बनावटी है और पुराने दिनों में दोनों समुदायों के
लोग सौहार्दपूर्ण वातावरण में रहते आए थे। ऐसी टिप्पणियां लगभग हमेशा ही सुन्नियों
की ओर से ही सुनने को मिलती हैं, जो मानकर चलते हैं कि सत्ता के गलियारों में बहुत कम नजर आने वाले
उनके शिया बंधु अपनी अधीनस्थ हैसियत से पूरी तरह संतुष्ट हैं।
तीसरा कारण वाशिंगटन से गहराई तक जुड़ा
है- इराक पर हमला। यदि मध्य पूर्व में
पिछले कुछ दशकों के दौरान सांप्रदायिक संघर्ष को तेज करने का कोई एक कारण है तो वह
है इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता उलटने, वहां सारे सुन्नी केंद्रों को ध्वस्त करने और फिर इराक को शिया
धार्मिक पार्टियों को सौंपने का तब के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का फैसला है।
उन दिनों वाशिंगटन पर मध्य-पूर्व को रूपांतरित करने का भूत सवार था और उसने इसके
सांप्रदायिक अंजामों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया कि वह किस चीज का सूत्रपात करने जा
रहा है। मैं इराक के मौजूदा प्रधानमंत्री नौरी अल-मलिकी से 2005 में मिला था जब वे
इस पद पर नहीं थे।
तब मैंने उनका वर्णन इन शब्दों में
किया था : 'ऐसे कट्टरपंथी शिया नेता जो अपने
धार्मिक विचारों पर जरा भी झुकने को तैयार नहीं हैं और सुन्नियों को तो वे सिर्फ
सजा ही देना चाहते हैं। वे मुझे ऐसे व्यक्ति कतई नहीं लगे जो राष्ट्रीय सुलह-सफाई
चाहते हों।' यह भी साफ ही था कि लगभग दो दशकों तक
सीरिया और ईरान में निर्वासित जीवन बिताने के कारण वे इन दोनों सत्ताओं के नजदीक
थे। इन दोनों देशों के शासकों ने मलिकी व उनके सहयोगियों को शरण दी थी। जाहिर है
सत्ता चलाने उनके तरीकों पर दोनों सत्ताओं का असर तो पड़ेगा बुश प्रशासन के
अधिकारियों ने इन चिंताओं को एक सिरे से
खारिज कर दिया और मुझे कहा कि मलिकी का भरोसा लोकतंत्र और बहुलतावाद में
है।
इन नीतियों के नतीजे अब साफ नजर आ रहे
हैं। शिया शासक वाशिंगटन के आशीर्वाद से सुन्नियों के दमन में लग गए। इसके कारण
देश में खून-खराबा बढ़ गया है और अस्थिरता का पुराना दौर लौट आया है। 20 लाख से
ज्यादा इराकी, जिनमें ज्यादातर सुन्नी और ईसाई धर्म
के लोग शामिल हैं,
देश
से पलायन कर गए और इसकी उम्मीद न के बराबर हैं कि वे कभी लौटेंगे भी। इराक में अब
भी सत्ता अपने पास होने का भ्रम पाले सुन्नी अल्पसंख्यकों ने पलटकर संघर्ष शुरू कर
दिया है। अब वे और भी अधिक कट्टरपंथी व अतिवादी हो गए हैं। इन सारे कबीलों के
पड़ोसी सीरिया के सुन्नी कबीलों से खून के रिश्ते हैं और जब इन सीरियाई सुन्नी
कबीलों ने इराक के गृह युद्ध को देखा तो वे भी अतिवादी बन गए।
अब जबकि हिंसा और भड़क गई है तो बुश
प्रशासन के जमाने के अफसरों की टोली कहने लगी यदि अमेरिका इराक में थोड़ा और
सक्रिय होता, उसके कुछ हजार सैनिक वहां होते, सुन्नी उग्रवादियों से लड़ते और मलिकी
को मजबूत समर्थन देते तो स्थिति कुछ और ही होती। उन्हें अब भी समझ में नहीं आ रहा
है कि उनका यह दृष्टिकोण ही समस्या की वजह है। इस नजरिये से मध्य-पूर्व के संघर्ष
के गहरे चरित्र को लेकर नासमझी तो जाहिर होती ही है, यह भी पता चलता है कि वाशिंगटन यह देख ही नहीं पा रहा है कि किसी एक
का पक्ष लेने से स्थिति काफी बिगड़ गई है। धर्म और राजनीति के जटिल संघर्ष में
अमेरिकी हस्तक्षेप का एक और दौर संघर्ष की अग्नि को और भड़का देगा।
फरीद जकारिया
टाइम मैगजीन के एडिटर एट लार्ज
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