चुनावों
के बाद दिल्ली सरकार ने बिजली की दरें घटा दीं और इस होड़ में हरियाणा व
महाराष्ट्र की सरकारें भी शामिल हो गई
हैं। सबकी नजरें अगले चुनावों पर हैं। अत: अन्य सरकारें भी इसी दबाव में आएंगी।
वास्तव में कोई भी सरकार बिजली की दर नहीं घटा रही है। केवल आपके ही टैक्स से आपको
अनुदान दे रही है। ऐसा करने पर उन्हें सड़क, पानी, शिक्षा,
स्वास्थ्य
आदि के बजट में कटौती करनी होगी और आम आदमी पर ही उसका प्रभाव होगा। इस समस्या का
वास्तविक समाधान तो तब होगा जब बिजली की कीमत
घटे। मूल प्रश्न यह है कि बिजली इतनी महंगी क्यों हो गई है?
सत्य
तो यह है कि बिजली उद्योग एवं भ्रष्टाचार का हमारे देश में चोली-दामन का साथ रहा
है। बिजली की चोरी आम बात है। दिल्ली में निजीकरण से पूर्व लगभग आधी बिजली चोरी व
भ्रष्टाचार के कारण गायब हो जाती थी और सरकार इसे टी एंड डी लॉस (वितरण के दौरान
हानि) के नाम से नजरअंदाज कर देती थी। पिछले वर्षों में टी एंड डी लॉस तो घटा है,
लेकिन
अब दूसरे प्रकार की चोरी का संदेह है। अत: सीएजी से लेखा परीक्षण कराया जा रहा है।
अन्य राज्यों में भी भारी चोरी है,
हालांकि
पिछले कुछ वर्षों में तकनीकी सुधारों से इसमें कमी अवश्य हुई है। वस्तुत:
भ्रष्टाचार, चोरी एवं दूषित पूंजीवाद ही महंगी बिजली के
मुख्य: कारण हैं ।
इस
शोषण की व्यवस्था के कई उदाहरण हैं। कोयला खानों के आवंटन में मची आपाधापी केवल
इसलिए थी कि मुफ्त में इन खदानों को हथियाकर भारी मुनाफे पर बिजली बेची जा सके। 2008 से
2012 तक 1,32,000 करोड़ रुपए की बिजली औसतन पांच रुपए
प्रति यूनिट के थोक भाव पर वितरण कंपनियों को बेची गई। यानी इसका खुदरा भाव लगभग
आठ रुपए प्रति यूनिट पड़ेगा। इतने महंगे भाव की बिजली किसी बड़े देश में नहीं
बिकती। यह बिजली तो एनरॉन के दाभोल पावर स्टेशन से भी काफी महंगी थी। विदेशी एनरॉन
को तो सरकार ने निकाल फेंका, लेकिन घरेलू पूंजीवादियों पर अकुंश
लगाने में सर्वथा असहाय रही। महंगी बिजली खरीदने से सभी राज्यों की वितरण कंपनियों
का घाटा तेजी से बढ़ा और अब सरकार द्वारा उन्हें 1,00,000 करोड़ रुपए की
सहायता दी जा रही है। यानी आम आदमी से टैक्स लेकर इस घाटे की भरपाई होगी ।
पिछले
कुछ वर्षों में बहुत से बिजलीघरों पर निजी निवेश का प्रारंभ हुआ। इनमें से कुछ तो
कोयला नहीं जुटा पाए और तो कुछ के पास गैस नहीं है। केवल परियोजनाएं हथियाने की
होड़ में पूंजीवादियों ने यह निवेश बैंकों से भारी ऋण लेकर प्रारंभ किया। अब ऐसी
स्थिति बन गई है कि बिजली उद्योग तो मझधार में है और बैंकों का हजारों करोड़ रुपया डूबने के कगार पर है।
दिल्ली
सरकार और केंद्र सरकार ने हाल ही में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो बीड़ा उठाया है,
उसकी
परीक्षा सबसे पहले बिजली उद्योग में होगी क्योंकि देशभर में तीन लाख करोड़ रुपए की
बिजली एक वर्ष में बिकती है और इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार से आम आदमी ग्रसित है।
इसका मुख्य कारण सरकारी नियंत्रण एवं मोनोपॉली (एकाधिकार) है । हर उपभोक्ता को एक
ही कंपनी से बिजली खरीदनी पड़ती है, कोई विकल्प नहीं है। मोनोपॉली के चलते
चोरी, भ्रष्टाचार, दूषित पूंजीवाद एवं अकुशलता पर अकुंश
नहीं रहता और नेता, इंजीनियर व ठेकेदार (बिजली उद्योग के त्रिदेव!)
इसका लाभ उठाते हैं ।
हमारे
देश ने टेलीफोन व सॉफ्टवेयर से लेकर अंतरिक्ष तक अपनी पहचान बनाई है। बिजली के
मामले में हम पिछड़े देशों की श्रेणी में खड़े हैं । आज भी कुछ शहरों को छोड़ पूरे
देश में बिजली की कटौती होती है जबकि आम आदमी की यह मूलभूत आवश्यकता है। याद कीजिए
लाइसेंस-परमिट राज के रहते टेलीफोन, कार, स्कूटर, हवाई
यात्रा इत्यादि में स्पद्र्धा का वातावरण नहीं था और आम आदमी को महंगी एवं अकुशल
सेवाएं मिलीं तथा सरकारी तंत्र का बोलबाला रहा । जैसे ही इन्हें स्पद्र्धा का
सामना करना पड़ा, दाम गिरे, कुशलता बढ़ी एवं
कटौती भी समाप्त हुई। यदि बिजली उद्योग को भी इसी प्रकार खोल दिया जाता तो दरें घट
जातीं और कटौती भी नहीं होती ।
दिल्ली
में वितरण कंपनियां पांच रुपए प्रति यूनिट पर थोक बिजली 24 घंटे खरीद रही
हैं जबकि रात की थोक दर लगभग दो रुपए है। इससे उपभोक्ता पर अनुचित भार पड़ रहा है
। सरकारी अनुदान से दरों को तो घटाया जा सकता है, किंतु
भ्रष्टाचार, चोरी एवं मुनाफाखोरी में कमी न हो पाएगी। इसके
लिए संस्थागत सुधार करने होंगे एवं
विद्युत अधिनियम द्वारा निर्देशित
प्रतियोगिता को लागू करना होगा ।
1973
में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने ऑटर टेल पावर कंपनी के केस में आदेश दिया था कि
ट्रांसमिशन (प्रसारण) कंपनियों को अन्य लोगों की बिजली भी ढोनी होगी ताकि मोनोपॉली
नहीं हो। 1989 में इंग्लैंड ने कानून बनाया कि सभी वितरण
कंपनियों को अन्य लोगों की बिजली भी ढोनी होगी। इस कानून के तहत 1990
में सभी बड़े ग्राहकों को एवं पांच वर्षों में अन्य सभी ग्राहकों को विभिन्न कंपनियों से बिजली
खरीदने की छूट दी गई। इससे कुशलता बढ़ी एवं दरों में कटौती हुई। इसी व्यवस्था को
यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि
में भी अपनाया गया।
आपके
घर में सरकारी फोन एवं तार है किंतु सब निजी टेलीफोन कंपनियां अपने फोन की आवाज आप
तक इन्हीं तारों के माध्यम से पहुंचा सकती
हैं। इसी प्रकार हर वितरण कंपनी के तारों के माध्यम से अन्य कंपनियों की बिजली आप
तक पहुंच सकती है। विकसित देशों में यह व्यवस्था दशकों से चल रही है।
हमारे
यहां भी यदि स्पद्र्धा होगी तो दरें अवश्य घटेंगी और बिजली कटौती भी नहीं होगी।
इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। दिल्ली सरकार यदि दो रुपए प्रति
यूनिट पर मिलने वाली थोक बिजली आम आदमी के लिए आरक्षित कर दे तो दरें भी घटेंगी और
अनुदान भी बचेगा। उद्योग एवं व्यवसाय या तो वितरण कंपनियों से महंगी बिजली खरीदें
अन्यथा प्रतियोगिता का लाभ उठाकर बाजार से बिजली खरीदें। ऐसी व्यवस्था पूर्णतया
संभव है।
शायद
अब भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण में इस समस्या का निवारण हो। यह तो निश्चित है कि
स्थायी सुधार केवल ऐसी व्यवस्था से होंगे, जिसमें चोरी व भ्रष्टाचार के अवसर बहुत
कम रह जाएं एवं प्रतियोगिता से कुशलता बढ़े और दरें स्वत: ही घटें।