रविवार, 15 दिसंबर 2013

बाली का समझौता

बाली में विश्व व्यापार संगठन की मंत्रिस्तरीय बैठक में वैश्विक व्यापार को बढ़ावा देने संबंधी अपनी तरह कापहला विश्व समझौता वैश्विक व्यापार की दृष्टि से एक बड़ी उपलब्धि है। इस समझौते से व्यापार प्रक्रिया को सरल बनाने के साथ-साथ गरीब देशों के सामान बेचने की प्रयिा को और आसान बनाया गया है। विश्लेषकों का कहना है कि इस समझौते से विश्व अर्थ व्यवस्था को करीब दस खरब डॉलर की उछाल मिल सकेगी। लेकिन इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए विकासशील देशों के निर्णय लेने की स्वायत्तता, उनके हितों को किस तरह दांव पर लगाया गया है, यह भी समझने की जरूरत है। जब सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद बढ़ा तो एक वक्त ऐसा लगा कि इस बार भी सम्मेलन बिना किसी नतीजे पर पहुंचे खत्म हो जाएगा। दरअसल भारत की ओर से पुरजोर मांग की गई कि सब्सिडी वाले अनाज को भी नए खाद्य सुरक्षा कानून में शामिल किया जाए। खाद्य सुरक्षा सिर्फ भारत के लिए नहीं, दुनिया के करीब चार अरब लोगों के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। विकासशील देशों की न सिर्फ आबादी यादा है, बल्कि महंगे अनाज का आयात भी यहां की सरकारों के लिए संभव नहीं। यही कारण है कि इस मांग में भारत के साथ आवाज उठाने वाले दक्षिण अमरीका, अफ्रीका व एशिया के 33 देश यानी जी-33 शामिल रहे। अमरीका और यूरोपीय संघ इस मांग का विरोध कर रहे थे। उनका कहना है कि ये कार्यक्रम डब्ल्यूटीओ के नियमों को तोड़ने वाले हैं। मतभेदों के बाद अब बीच का रास्ता निकालते हुए कहा गया कि इस मुद्दे पर चार साल के भीतर कोई हल खोज लिया जाएगा। दरअसल कृषि सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की सीमा तय करने की कोशिश लंबे समय से विकसित देश करते रहे हैं। इस बार जी-33 के विरोध के बीच जो मध्यम मार्ग निकाला गया है वह कृषि समझौते में शांति अनुच्छेद है। इसके तहत इंतजाम किया गया है कि ग्यारहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन तक कृषि सब्सिडी संबंधी प्रावधान लागू नहीं किया जाएगा।


डब्ल्यूटीओ का मंत्रिस्तरीय सम्मेलन हर दो साल पर होता है। यानी अगले चार साल तक कोई भी देश कथित शांति-अनुच्छेद को डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटारा प्राधिकरण में चुनौती नहीं दे सकेगा। लेकिन उसके बाद क्या होगा, यह कोई नहींजानता। फिलहाल भारत के वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा इस करार पर संतुष्टि जतला रहे हैं। किंतु यह सोचने वाली बात है कि जिस खाद्य सुरक्षा कानून को यूपीए सरकार ने बड़े जोर-शोर से पेश किया, उसमें डब्ल्यूटीओ के दखल की गुंजाइश को वह किस तरह रोकेगी। चार साल बाद ही सही लेकिन हमारे देश में कृषि सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने में डब्ल्यूटीओ की बड़ी भूमिका रहेगी, तो हमारी नीति निर्धारण की संप्रभुता का क्या होगा। रही बात वैश्विक व्यापार की, तो इससे इन्कार नहींकिया जा सकता कि भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार के इस दौर में सभी देशों के आर्थिक हित एक-दूसरे से किसी न किसी तरह जुड़े हुए हैं। एक की मंदी से दूसरे का प्रभावित होना स्वाभाविक है। इसलिए डब्ल्यूटीओ की चिंता वैश्विक मंदी से उबरने की है, यही कारण है कि मतभेदों को दूर करते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यापार में बढ़ोत्तरी के लिए समझौते के प्रयास हुए और उसमें सफलता भी मिली। समझौते पर खुशी जाहिर करते हुए डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक रॉबर्टो एजेवेदो ने कहा कि हम दुनिया को विश्व व्यापार संगठन के मंच पर एकजुट करने में सफल रहे हैं; संगठन के इतिहास में पहली बार बड़ी कामयाबी हासिल की गई है। विगत 12 वर्षों से संगठन में किसी न किसी तरह का गतिरोध बना हुआ था, उस लिहाज से एजेवेदो का दावा काफी हद तक सही है। पर सवाल यह है कि आखिर विकासशील देशों के हितों को हाशिए पर धकेल कर कब तक ऐसी कामयाबी का जश्न मनाया जाता रहेगा।

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