आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा पहले की
अपेक्षा आज कहीं यादा मजबूत हो गया है, पाकिस्तान में इसके सुरक्षित गढ़ हैं। संगठन को चलाने के लिए इसके
आर्थिक मददगारों की संख्या भी बढ़ी है और चंदा इकट्ठा करने के लिए खाड़ी में इसके
पास मजबूत नेटवर्क है। यह भारत का कहना नहीं है बल्कि अमरीका के रक्षा विशेषज्ञों
का आकलन है। अमरीकी विशेषज्ञों का जो विश्लेषण सामने आया है उनके मुताबिक 2611 के
मुम्बई हमलों के पांच वर्ष बीत जाने के बाद लश्कर की ताकत में बहुत बड़ा इजाफा हुआ
है। पाकिस्तानी सेना और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई का वह भारत के खिलाफ एक पसंदीदा
हथियार बन गया है। विशेषज्ञों का आकलन है कि लश्कर, जमात-उद-दावा जिसको अमरीका भी सबसे बड़ा
खतरा मानता है, से जुड़ा हुआ सशस्त्र संगठन है। अनुमान
है कि जमात के पास पांच लाख से यादा प्रशिक्षित हथियारबंद सदस्य हैं और वे अन्य
आतंकी संगठनों के साथ मिलकर काम करते हैं। जहां तक लश्कर तथा अन्य आतंकवादियों का
सवाल है, भारत हमेशा से यह कहता आ रहा है कि
पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा पनाहगार है। वहां आतंकी संगठनों को प्रशिक्षण
दिया जाता है और उनका इस्तेमाल भारत में दहशत पैदा करने के लिए किया जा रहा है।
अभी बीते दिनों ही प्रधानमंत्री ने देश की सुरक्षा व्यवस्था से जुड़ी मशीनरी को
आतंकी हमलों के प्रति सचेत भी किया है और कहा है कि ऐसे तत्व अपनी नापाक
गतिविधियों से देश में चल रही चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा डाल सकते
हैं।
जहां तक मुम्बई हमले के दोषियों के
खिलाफ कार्रवाई की बात है तो उस घटना की
पांचवीं बरसी पर भारत के गृहमंत्री ने फिर एक बार इस बात को दोहराया और
पाकिस्तान से आग्रह किया कि उस आतंकी हमले के दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें। उन्होंने इस बात का भी जिक्र
किया कि इस हमले के दोषियों को जल्दी सजा दिलाने के नजरिये से ही भारत ने
पाकिस्तानी न्यायिक आयोग को दो बार भारत आने की इजाजत भी दी जिससे वह इस मामले के
जांच अधिकारियों के बयान ले सके और त्वरित कार्रवाई की जा सके। भारत ने आतंकवाद के
मसले को अमरीका के साथ-साथ दुनिया के सभी बड़े मुल्कों और प्रमुख मंचों पर कई बार
उठाया भी। मुम्बई हमले के बाद भारत की तरफ
से इस बात के पुख्ता सबूत पेश किए गए कि आतंकियों का सरपरस्त पाकिस्तान का खुफिया
संगठन आईएसआई है। अमरीका के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र ने भी पाकिस्तान से इंसानियत
के खिलाफ किए गए उस भयानक अपराध के दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करते हुए उन्हें
कटघरे में लाने की चेतावनी दी। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रवक्ता का कहना
था कि हमारी सरकारें वैश्विक आतंकवाद के खतरों से निपटने के लिए मिलजुल कर सहयोग
कर रही हैं। ऐसे में पाकिस्तान को चाहिए
कि वह मुम्बई हमले के सरगना और उसके प्रायोजकों को इंसाफ के कटघरे में खड़ा करें।
लेकिन यह सब एक औपचारिकता ही दिखाई देती है। जहां तक अमरीका का सवाल है वह अपनी
जरूरत के हिसाब से अपनी रणनीति और कार्रवाईयों की दिशा तय करता है। उसे जब जरूरत
महसूस हुई तो उसने आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले लादेन को खुफिया सैन्य कार्रवाई
करके पाकिस्तान के अन्दर ही मार डाला, यहां तक कि उसके शव को भी खुद ही ऐसे ठिकाने लगा दिया जिससे उसका कोई
अता-पता ही न चल सके।
जहां तक भारत में आतंकी घटनाओं का सवाल
है, चाहे वह संसद पर हमले का मामला रहा हो
या मुम्बई की 2611 की घटना अथवा सीमा पार से लगातार हो रही घुसपैठ, इन आतंकी घटनाओं में भारत ने बड़े
पैमाने पर अपने जन-धन की हानि उठाई है। आए दिन कश्मीर से लगी सीमा पर पाकिस्तान की
तरफ से लगातार घुसपैठ की खबरें मिलती रहती हैं। निश्चितरूप से आतंकी पाकिस्तानी
सेना की सहमति के बिना सीमा पार कर भारत में घुसपैठ नहीं कर सकते। भारत ने इस बारे
में पाकिस्तान सरकार के साथ बार-बार इस तथ्य को रखा और पिछली बार जम्मू क्षेत्र
में हुई आतंकी घटना जिसमें आतंकियों ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर सेना के शिविर और सिविल पुलिस की चौकियों पर
हमला कर तबाही मचा दी थी, उसके बाद स्थिति यहां तक पहुंच गई कि लग रहा था दोनों देशों के बीच वार्ता के दरवाजे
हमेशा के लिए बन्द हो जायेंगे, लेकिन भारत हमेशा शांति और सहअस्तित्व का अनुयायी रहा है तथा पड़ोसी
से भी वह इसी तरह की उम्मीद करता है क्योंकि उसका मानना है कि शांति के रास्ते
चलकर ही देश का विकास किया जा सकता है। वह ऐसे किसी भी कार्रवाई का पक्षधर नहीं
रहा जिससे दोनों देशों के सम्बन्ध हमेशा के लिए टूट जाए, लेकिन पाकिस्तान की तरफ से इस दिशा में
कोई सकारात्मक पहल नहीं दिखाई देती।
आईएसआई, जिसका पाकिस्तानी सेना के साथ गहरा
तालमेल है उसके द्वारा आतंकी संगठनों को लगातार समर्थन और वित्त पोषित किया जा रहा
है। पाकिस्तान में लोकतंत्र के हिमायतियों और शांति के पक्षधरों की तादाद कम नहीं
है लेकिन वहां की सरकार सेना, आईएसआई और भारत विरोधी कट्टरपंथियों के जाल से निकलने का साहस नहीं
कर पा रही है। सत्ता बदलने के बाद नवाज शरीफ और उनकी सरकार से यह उम्मीद बंधी थी
कि वह इस दिशा में कोई ठोस पहल करके दोनों देशों के रिश्तों को सुधारने की कोशिश
करेंगे, लेकिन ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा
है।
देशबन्धु
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