जनभावनाओं के प्रति संवेदनहीन नेताओ को
छोड़कर कांग्रेस के अंदर किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि 4 हिंदी प्रदेशों के चुनाव
में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर होगा। दिल्ली और राजस्थान को लेकर भी वे मुगालते में
नहीं थे। दिल्ली में तो कांग्रेस की स्थिति सबसे यादा खराब रही। 15 साल से
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठी शीला दीक्षित को भी करारी हार का सामना करना पड़ा और
वह लगभग 26 हजार मतों से चुनाव हार गईं। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल
ने उन्हें बुरी तरह हराया।
इसमे संदेह नहीं कि दिल्ली का शीला
दीक्षित के कार्यकाल में काफी विकास हुआ। अन्य रायों की राजधानियों को राष्ट्रीय
राजधानी से विकास के मामले में डाह हुआ करता था और यही दिल्ली का गर्व था। दिल्ली
की सड़कें चौड़ी हुई हैं। अनके फ्लाई ओवर बने हैं। अंडर ब्रिज और ओवर ब्रिज बनाए गए।
दर्जनों बड़े बडे मॉल अस्तित्व में आ गए। वातानुकूलित मेट्रो भी दिल्ली के पास है।
इसके पास एक विशाल हवाई अड्डा भी है। सच कहा जाय तो शीला दीक्षित ने दिल्ली को एक
शहरीकृत गांव से बदलकर एक माडर्न अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाला महानगर बना दिया।अपनी उपलब्धियों की कहानी लोगों को
बताने के लिए शीला दीक्षित ने करोड़ों रुपये विज्ञापनों पर भी खर्च किए। लेकिन उसके
बावजूद कांग्रेस की अब तक की सबसे बड़ी हार दिल्ली में हुई। दिल्ली के चुनावी
इतिहास में इतने के वोट कांग्रेस को कभी नहीं मिले थे।
अन्य कांग्रेसी नेताओं की तरह शीला
दीक्षित भी इस बात को भूल गई थीं कि विकास को हम सीमेंट कंक्रीट के रूप में नहीं माप
सकते। लोग सड़क और फ्लाइओवर नहीं खाते हैं। आम आदमी के लिए खाना, कपड़ा और मकान सबसे यादा मायने रखते
हैं। और बढ़ती महंगाई लोगों का जीना मुहाल कर रही है। दिल्ली के अधिकांश लोग ऐसे
मुहल्लों में रह रहे हैं, जहां सफाई का घोर अभाव है। बिजली महंगी होती जा रही है और पीने के
पानी का अभाव है। गंदगी के कारण बीमारियों ने दिल्ली को अपना बसेरा बना रखा है।
सरकार दफ्तरों में भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं और सड़कों पर अपराध। यही कारण है कि शीला
दीक्षित और उनकी पार्टी को दिल्ली के लोगों ने करारा झटका दिया। आम आदमी पार्टी का
चुनाव चिन्ह झाड़ू था। यह चुनाव चिन्ह बहुत ही हिट रहा। कहा जाय तो यह सुपर हिट
रहा। झाड़ू ने लोगों के गुस्से को बिम्बित किया। झाड़ू भ्रष्टाचार को बुहारने का
प्रतीक बन गया। आम आदमी पार्टी के इस झाड़ू ने कांग्रेस का तो सफाया किया ही, अन्य पार्टियों को भी इससे डरना चाहिए।
क्षेत्रीय पार्टियों को इस झाड़ू से तो और भी यादा डरना चाहिए, क्योंकि वे सभी की सभी जातिवादी, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय राजनीति कर
अस्तित्व में बनी हुई है और लोगों का उनसे शायद मोह भंग होने लगा है। उन्हें अब यह
सपष्ट हो जाना चाहिए कि देश का एक आम आदमी क्या चाहता है।
चुनाव परिणाम ने यह भी साबित कर दिया
है कि लोग खाद्य सुरक्षा कानून जैसे बेहूदा कानूनों के द्वारा बेवकूफ नहीं बनाए जा
सकते। बिना खाद्य उत्पादन की सुरक्षा को सुनिश्चित किए हुए केन्द्र सरकार ने एक
ऐसे खाद्य सुरक्षा कानून को बना डाला है, जिसे अमल में लाया ही नहीं जा सकता। एक तरफ केन्द्र सरकार अनाज उत्पादन को अपनी नीतियों से
महंगा करती जा रही है और दूसरी तरफ वह एक
रुपये किलो गेहूं और दो रुपये किलो चावल बेचने की बात कर रही है। उसकी अपनी
नीतियों में ही अंतर्विरोध है। वह खाद पर से सब्सिडी हटा रही है और बिजली को भी
महंगा किया जा रहा है। इससे अनाज का उत्पादन लागत महंगी हो जाएगी। सरकार किसानों
को दिया जाने वाले समर्थन मूल्य को भी बढ़ाना नहीं चाहती, लेकिन वह चाहती है कि लोगों को अनाज
सस्ता मिले। यही कारण है कि खाद्य सुरक्षा कानून को दिल्ली की जनता ने भी गंभीरता
से नही लिया, जबकि कांग्रेस को इस कानून से बहुत
उम्मीद थी और राजीव गांधी के जन्म दिवस पर पिछले 20 अगस्त को इसे जोर शोर से लागू
किया गया। खाद्य सुरक्षा कानून लागू करते समय कांग्रेस यह भूल गई कि अनाज से लोगों
का पेट भरता है,
न
कि कानून से। लोगों को खाद्य चाहिए था, लेकिन सरकार ने उन्हें खाद्य के बदले खाद्य कानून दे डाला, जिसे आम जनता ने अपमान जनक माना।
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