न्यायिक
नियुक्ति आयोग (जेएसी) को संवैधानिक दर्जा देने पर राजी होकर केंद्र ने संबंधित
विधेयक के पास होने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अगर सरकार ने विपक्ष का सहयोग
पाने के लिए उचित तत्परता दिखाई तो संभव है कि ऐसा वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल में
ही हो जाए। संसद के मानसून सत्र में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों
की नियुक्ति की नई प्रक्रिया स्थापित करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया,
जिसके
मुताबिक भविष्य में ऐसी सभी नियुक्तियां जेएसी करेगी।
जेएसी
के गठन के लिए अलग से बिल रखा गया। जेएसी के गठन संबंधी प्रावधान को संविधान
संशोधन का हिस्सा न बनाने से भारतीय जनता पार्टी नाराज हो गई। तब बिल संसद की
स्थायी समिति के पास भेजा गया। संसदीय समिति इस तर्क से सहमत हुई कि जेएसी के गठन
की प्रक्रिया संवैधानिक प्रावधान के तहत होनी चाहिए ताकि सरकारें जब चाहें साधारण
विधेयक पास कर इसके स्वरूप में हेरफेर न कर पाएं। स्वागतयोग्य है कि सरकार ने इस
सिफारिश को स्वीकार कर लिया है।
राजनीतिक
हलकों और यहां तक कि न्यायिक दायरे के भी एक बड़े हिस्से में इस बात पर सहमति है
कि जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम पारदर्शी एवं जवाबदेह व्यवस्था के रूप में
स्थापित होने में विफल रहा है। किसी विकसित लोकतंत्र में ऐसी मिसाल नहीं है,
जहां
जजों को खुद जज ही नियुक्त करते हों। यानी उसमें विधायिका या कार्यपालिका की कोई
भूमिका न रहती हो। अंकुश एवं संतुलन का सिद्धांत इस मामले में लागू हो, इसके
लिए नई प्रक्रिया की मांग बीते वर्षों में जोर पकड़ती गई।
अंतत:
ऐसे विधेयक का स्वरूप सामने है, जिस पर राजनीतिक दायरे में आम सहमति
है। इसके तहत सात सदस्यीय जेएसी के गठन का इरादा है, जिसके अध्यक्ष
भारत के प्रधान न्यायाधीश होंगे। हालांकि कई विशेषज्ञों ने यह सवाल जरूर उठाया है
कि क्या जेएसी के पदेन सदस्य नियुक्ति संबंधी कार्यों पर पूरा ध्यान दे पाएंगे?
क्या
इसमें पूर्णकालिक सदस्य नहीं होने चाहिए? मुमकिन है, ऐसे कुछ और
प्रश्न अनुत्तरित रह गए हों। आशा है, संसदीय बहस के दौरान इन पर ध्यान दिया
जाएगा। फिलहाल, वांछित यह है कि यथाशीघ्र यह विधेयक पास करने
के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष उचित गंभीरता दिखाएं।
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