रविवार, 22 दिसंबर 2013

महंगाई का दंश

आम लोग रोजाना जो अनुभव करते हैं, आंकड़ों ने भी उसकी पुष्टि की है। नवंबर में महंगाई पिछले चौदह महीनों के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गई। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई की दर अक्तूबर में सात फीसद थी, इसके अगले महीने यह आधा फीसद और बढ़ गई। पर यह थोक कीमतों पर आधारित आंकड़ा है। उपभोक्ताओं का वास्ता खुदरा कीमतों से पड़ता है, और पिछले दिनों उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के हिसाब से आए आंकड़े बताते हैं कि खुदरा महंगाई की दर करीब ग्यारह फीसद है। यह भी गौरतलब है कि सबसे ज्यादा बढ़ोतरी खाने-पीने की चीजों के दामों में हुई है। खाद्य महंगाई बीस फीसद सालाना की दर से बढ़ी है। जबकि सब्जियों के दाम साल भर में दुगुने हो गए हैं। यह आम धारणा है कि हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जबर्दस्त शिकस्त के पीछे महंगाई एक प्रमुख वजह रही। कांग्रेस के तमाम नेता भी इसे स्वीकार करते हैं। गरीब लोग पाते हैं कि उनका जीना दूभर हो गया है, वहीं मध्यवर्ग के भी बड़े हिस्से के लिए अपना घरेलू बजट बनाना मुश्किल हो गया है।

यूपीए सरकार यह बहाना नहीं गढ़ सकती कि महंगाई का यह दौर तात्कालिक असामान्य परिस्थिति की देन है। जबकि इस साल अच्छे मानसून के चलते कृषि ने साढ़े चार फीसद की शानदार बढ़ोतरी दर्ज है। फिर खाद्य पदार्थों की कीमतें बेलगाम बने रहने की क्या वजह है? मूल्य नियंत्रण की कोई ठोस योजना तो दूर, ऐसा लगता है कि सरकार और नीति नियामकों के पास समस्या का कोई विश्वसनीय आकलन तक नहीं है। घबराहट में सारी जिम्मेदारी रिजर्व बैंक पर डाल दी जाती है, मानो मौद्रिक कवायद ही महंगाई से निजात दिला देगी। पर कई बार लगातार रेपो दरों में बढ़ोतरी करने का भी कोई अपेक्षित परिणाम नहीं आ पाया है। एक बार फिर यह कयास लगाया जा रहा है कि इसी हफ्ते रिजर्व बैंक अपनी नई मौद्रिक समीक्षा में रेपो दरों में बढ़ोतरी कर सकता है। पर मौद्रिक नीति के ही सहारे महंगाई पर काबू पाने की उम्मीद पालने के बजाय सरकार को दूसरे विकल्प आजमाने चाहिए। यह मांग बार-बार उठती रही है कि अनाज को वायदा बाजार के दायरे से बाहर रखा जाए। पर हर बार इसे अनसुना कर दिया गया। खुद कृषिमंत्री शरद पवार संसद में यह स्वीकार कर चुके हैं कि हर साल हजारों करोड़ रुपए की सब्जियां और फल सड़ जाते हैं। इसी तरह उचित रखरखाव के अभाव में काफी मात्रा में अनाज के भी बर्बाद हो जाने की खबर अमूमन हर साल आती है।

बरसों से ढांचागत सुविधाओं के विस्तार के तमाम दावों के बावजूद खाद्य सामग्री का भंडारण-प्रबंध दुरुस्त करने और आपूर्ति के तौर-तरीके सुधारने पर ध्यान नहीं दिया गया। कई बार बफर स्टॉक में जरूरत से ज्यादा अनाज रख कर सरकार खुद महंगाई को हवा देती है। थोक और खुदरा कीमतों के बीच के फर्क को तर्कसंगत कैसे बनाया जाए इस बारे में कभी सोचा नहीं जाता। रही-सही कसर जमाखोरों और कालाबाजारियों की करतूतें पूरी कर देती हैं। उन पर लगाम कसने का जिम्मा केंद्र का ही नहीं, राज्य सरकारों का भी है। पर वे सारा दोष केंद्र पर मढ़ कर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं। यह उम्मीद की जा रही है कि कुछ दिनों में मौसमी वजहों से महंगाई में थोड़ी कमी आ सकती है। पर इस तरह की फौरी राहत की आस देखने के बजाय यूपीए सरकार को कुछ स्थायी कदम उठाने के बारे में सोचना चाहिए, इसलिए कि यह थोड़े दिनों की परिघटना नहीं है। पिछले नौ साल में यानी यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल में खाद्य महंगाई दस फीसद रही है, जबकि उससे पहले के दशक में यह दर पांच फीसद थी।

  

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