पिछले
दिनों भारत ने विश्व में अपनी प्रतिभा और विज्ञान का लोहा मनवाते हुए, मंगल-ग्रह
पर बेहद कम खर्च पर अपना मंगलयान भेजा। दूसरी तरफ़, उसी भारत का
सुप्रीम कोर्ट 1861 में ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए एक कानून में
हस्तक्षेप से इनकार करता है, और इसकी जिम्मेदारी संसद को सौंप देता
है। ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाया गया 'इंडियन पीनल कोड' का
सेक्शन 377 दो वयस्कों के समलैंगिक यौन संबध बनाने को अपराध मानता है, जिसके
लिए आपको दस साल की जेल या आजीवन कारावास तक हो सकता है। इस कानून के समर्थकों का
कहना है कि समलैंगिक संबंधों से एड्स का खतरा बढ़ता है, हालांकि भारत
में दफा 377 पर सवाल सबसे पहले 1991 में एड्स
भेदभाव विरोधी आंदोलन ने ही उठाया था।
पत्नी
का यौन उत्पीड़न
गौर
करने की बात है कि जो आईपीसी 377 में दो वयस्कों के समलैंगिक यौन संबध
को अपराध कहता है, वही सेक्शन 375 में पति द्वारा
अपनी पत्नी को बिना उसकी सहमति से भोगने को अपराध नहीं मानता। पिछले साल दिसंबर
में हुए निर्भया आंदोलन के बाद बलात्कार के कानून में बदलाव जरूर हुए लेकिन विवाह
के दायरे में पत्नी पर किया यौन उत्पीड़न कानून की नज़र में अब भी अपराध नहीं है।
जिन अंग्रेजों ने 200 साल पहले ये कानून बनाए, वे 1991
में ही अपने संविधान में बदलाव कर पति द्वारा किए यौन उत्पीड़न को बलात्कार की
श्रेणी में रख चुके हैं।
इस
साल जुलाई में ब्रिटिश संसद ने समलैंगिक विवाह को भी जायज मान लिया है। विज्ञान और
विकास-दर के विषय में दुनिया को टक्कर देने की बात करने वाले कई वर्ग समलैंगिकता
पर प्रहार क्यों कर रहे हैं? क्यों सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से एक
बड़े तबके के बीच खुशी खिल आई है?
कुतर्क
कई हैं। जैसे अगर आदमी का आदमी के साथ यौन संबध बनाना नैतिक है, तो
आदमी का जानवर के साथ यौन संबंध बनाना भी नैतिक होगा। यहां नैतिक-अनैतिक की बहस
छेड़ना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है। बात सिर्फ इतनी है कि संविधान इंसान के लिए
है। दो इंसान अपनी मर्जी से हमबिस्तर होना चाहें, तो कानून को
खिड़की से अंदर झांकने का अधिकार नहीं होना चाहिए। जो वयस्क वोट देकर सरकार चुन
सकते हैं, सड़क पर गाड़ी चला सकते हैं, वो अपनी खुशी से जैसा चाहें वैसा संबंध
बना सकते हैं।
दूसरा
कुतर्क इसके धर्म और सभ्यता के विरुद्ध होने का है। भारत के प्राचीन मंदिरों में
समलैंगिक कलाकृतियों का अंबार लगा है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है, लेकिन इस बोर्ड
को बूढ़ी शाहबानो के हाथ में तलाक के बाद निर्वाह के चंद रुपए नहीं देखे गए थे और
उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में पलटवा दिया था। टीवी चैनलों पर आजकल ईसाई
धर्म के पैरोकार भी नजर आ रहे हैं, जो कहते हैं 'समलैंगिकता पाप
है, लेकिन समलैंगिक होना पाप नहीं है, इसलिए उन्हें
सज़ा नहीं देनी चाहिए।' शायद बाइबल की ये 'चाइल्ड सेक्शुअल
अब्यूज़' के केसों से घिरे पादरियों को माफ करने में काम आती होगी।
तीसरा
कुतर्क, समलैंगिकता को दस-बीस साल की चीज मानने का है, लेकिन यह कोई आज
की उपज नहीं है। समलैंगिक लोग सदियों से इसी समाज का हिस्सा रहे हैं जिसमें आप
आंखें और कान बंद करके जी रहे हैं। दुनियाभर के इतिहास, साहित्य,
कला-कृतियों
और कविताओं पर नजर डालें तो एहसास होगा कि भारत में इस तबके ने आवाज़ उठाने में कुछ
ज़्यादा ही वक्त लगा दिया। आठवीं शताब्दी में अरबी, तुर्की, फ़ारसी
में समलैंगिक प्रेम कविताएं लिखी गईं जो बाद में उर्दू में भी अनूदित हुईं। चौथा
कुतर्क- समलैंगिकता चुनाव है।
पहली
बात तो ये कि अगर यह चुनाव है, तब भी हर इन्सान को अपनी जिंदगी चुनने
का हक है, चाहे वो आपसे कितना भी अलग क्यों न हो। दूसरी बात, यह
चुनाव नहीं है, क्योंकि अगर आप पैदाइशी समलैंगिक नहीं हो सकते,
तो
आप पैदाइशी स्ट्रेट भी नहीं हो सकते। दुनिया भर में इस विषय पर वैज्ञानिकों दवारा
सैकड़ों अध्ययन किए गए हैं, जिनमें समलैंगिकता को सामान्य पाया गय।
अमेरिकन अकेडमी ऑफ पीडिऐट्रिक्स, अमेरिकन साइकॉलॉजिकल असोसिएशन, यूनिवर्सिटी
ऑफ ईस्ट लंडन, बॉस्टन यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिसिन...लिस्ट बहुत
लम्बी है।
इंसान
तो समझें
रही बात इसकी कि ये सभी विदेशी
यूनिवर्सिटी हैं, इन पर कैसे भरोसा कर लें तो याद रखिए आपके हाथ
में जो मोबाइल फोन है, घर में जो बल्ब लगा है, जिस कंप्यूटर को
आप इस्तेमाल करते हैं, सब विदेशियों की ही देन हैं। बहस बहुत लंबी चल
सकती है। पर एलजीबीटी समुदाय के पक्ष को समझने के लिए सिर्फ इतना याद रखना काफी है
कि वो भी उतने ही इंसान हैं, जितने आप। और समलैंगिकों को भी गांठ
बांधनी होगी- जैसे उन्नीसवीं सदी से शुरू हुई स्त्री-आंदोलन की लड़ाई इक्कीसवीं सदी
में भी जारी है- बहुत कठिन है डगर पनघट की।
- फौजिया रियाज
साभारः
नवभारत टाइम्स
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