रविवार, 8 दिसंबर 2013

डब्लूटीओ में भोजन का अधिकार

इंडोनेशिया के बाली द्वीप में चल रही डब्लूटीओ बैठक को भारत जैसे कृषि प्रधान देशों के लिए वाटरलू बताया जाता रहा है। वाटरलू, यानी वह जगह जहां दुनिया जीतने का सपना लेकर निकले नेपोलियन बोनापार्त को आखिरी शिकस्त मिली थी और उसका सपना हमेशा-हमेशा के लिए टूट गया था।

ताकतवर देशों का शुरू से यह दबाव रहा है कि भारत समेत दुनिया का कोई भी देश अपनी कुल खेतिहर उपज के दस फीसदी से ज्यादा रकम अपने किसानों को सब्सिडी के रूप में न दे, क्योंकि ऐसा करने पर बाजार में अनावश्यक विकृति पैदा होती है। यह शर्त बेहद टेढ़ी है, क्योंकि सब्सिडी के विभिन्न रूपों पर नजर रखना तो दूर, अलग-अलग समाजों में कुल खेतिहर उपज की कीमत तय करना भी समुद्र की लहरें गिनने जैसा काम है। इस संबंध में अमेरिका और यूरोप के मानक अगर भारत और चीन जैसे देशों में ज्यों के त्यों लागू कर दिए गए तो न सिर्फ इन देशों के किसान दिवालिया हो जाएंगे, बल्कि अनाज खरीद कर खाने वाली यहां की बहुत बड़ी आबादी भूखों मरने लगेगी।

ताकतवर देशों को सबसे ज्यादा नाराजगी भारत में कुछ समय पहले लागू भोजन के अधिकार को लेकर है। उनके मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए भारत सरकार पहले ही 10 फीसदी से कम सब्सिडी वाली शर्त का उल्लंघन करती आ रही है, अब किसानों से महंगी दर पर खरीदे गए इस अनाज को बहुत ही सस्ती कीमत पर जरूरतमंद आबादी को मुहैया कराकर वह विश्व बाजार में दोहरी विरूपता पैदा कर रही है। बाली में, और इससे पहले जिनेवा में भी इस मुद्दे पर भारत का डटकर खड़े होना बिल्कुल उचित है, और इसके चलते अगर डब्लूटीओ टूटता है तो उसे बेहिचक टूट जाने दिया जाना चाहिए।

बीच की व्यवस्था के रूप में विकसित देशों की तरफ से चार साल की एक खिड़की प्रस्तावित की गई थी- कि इस अवधि में भारत अपने किसानों को ज्यादा सब्सिडी देता है तो दे, उसके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई डब्लूटीओ की तरफ से नहीं की जाएगी। यह खुद में एक वाहियात बात है। भारतीय संसद से पारित हो जाने के बाद भोजन का अधिकार देश के सभी नागरिकों के लिए तब तक अक्षुण्ण रहेगा, जब तक संसद में एक और प्रस्ताव लाकर इसे सिरे से खारिज नहीं कर दिया जाता। ऐसे में किसी बाहरी दबाव में आकर इस पर एक निश्चित अवधि की तलवार भला कैसे लटकाई जा सकती है?


विश्व व्यापार संगठन खुद में कोई साम्राज्यवादी इंतजाम नहीं है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इससे कई क्षेत्रों में भारतीय निर्यात को अभूतपूर्व फायदा हुआ है। लेकिन कम क्षेत्रफल, अधिक आबादी और धीमे औद्योगीकरण के चलते भारत की कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं, जिन्हें डब्लूटीओ तो क्या, संसार की कोई भी व्यवस्था दरकिनार नहीं कर सकती। विकसित देश अगर यह समझने की कोशिश ही नहीं करेंगे कि यहां किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और गरीब आबादी को सस्ता राशन दिए जाने का क्या औचित्य है, तो भारत के आम लोगों की नजर में डब्लूटीओ की एक जोर-जबर्दस्ती वाली छवि ही बनेगी।  

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