शनिवार, 28 दिसंबर 2013

मुश्किल भरी रहेगी विदेश नीति

1990 के दशक में जो दो घटनाएं घटी थीं उन्होंने दुनिया की नीतियों को किस कदर प्रभावित किया था, इसका सटीक विवरण भले ही न उपलब्ध हो, लेकिन भारत पर उनका प्रभाव स्पष्ट दिखा। इनमें से एक थी, सोवियत संघ का पतन और चुनौतीविहीन अमेरिका का उदय और दूसरी थी, भूमण्डलीकरण के नाम पर विदेशी पूंजी एवं कमोडिटी के साथ-साथ अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया की नीतियों का राष्ट्रनीति पर प्रभाव। हालांकि इनका प्रभाव अटल बिहारी वाजपेयी के समय से ही इन दोनों ही घटनाओं का प्रभाव दिखने लगा था, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के आगमन के साथ ही स्थितियां एकदम स्पष्ट हो गईं और देश पुराने ढर्रे को छोड़कर पूरी तरह से अमेरिका की ओर चल पड़ा। इसका प्रभाव यह पड़ा कि भारत की सरकार अपनी नीतियों को अमेरिकी प्रकाश में तय होने लगीं और इसके साथ ही उनकी व्याख्या भी अमेरिकी शब्दकोश में शब्दों की तलाश कर की जाने लगी। उधर अमेरिका ने भी भारत को अपना स्वाभाविक एवं रणनीतिक मित्र या साझेदार बताना शुरू कर दिया। इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि भारतीय विदेश नीति के जिन बुनियादी तत्वों का निर्माण बड़े ही प्रयासों के बाद नेहरू कर पाए थे, वे धीरे-धीरे गौण हो गए? इस दौरान हमारा परम्परागत मित्र रूस भी हमसे काफी दूर चला गया जबकि उसे हमारी जरूरत थी, आखिर क्यों? आखिर इसमें दोष किसका है और ये स्थितियां क्या आगे भी बनी रहेंगी?

जब 21वीं सदी आरम्भ हुई थी तब बड़े जोर-शोर से यह प्रचार किया जा रहा था कि भारत महाशक्ति बनने जा रहा है। चूंकि यह प्रचार पूंजीवादी शक्तियों या भी सरकार के प्रवक्ताओं द्वारा किया जा रहा था, इसलिए स्वीकार करने की वजह नहीं बन पा रही थी। लेकिन जब सत्ता कांग्रेस और विशेषकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आई तो यह शंका कुछ यादा ही हुई थी कि कहीं भारत प्रोफेसनल्स या सेल्समैन्स का देश न बन जाए। यदि ऐसा हुआ तो देश कमजोर होगा और फिर महाशक्ति बनना शायद एक दिवास्वप्न ही रह जाए। कारण यह था कि मनमोहन सिंह जमीन के नेता नहीं थे (कमोबेश यह स्थिति कांग्रेस में अभी बनी भी रहेगी क्योंकि सम्भावित नेता भी जमीनी नेता नहीं है) बल्कि वे बहुत हद तक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा गाइडेड थे, इसलिए उन्हें देश को वही दिशा देनी थी जैसा कि वे संस्थाएं चाहतीं। क्या ऐसा ही हुआ या फिर मनमोहन सिंह इन सब चुनौतियों से बचते हुए देश के लोगों को आगे ले जा पाए?

वास्तव में पिछले एक दशक में भारत की विदेश नीति को अंतरराष्ट्रीय परिवर्तनों साथ-साथ काफी बदलना था। इनमें कुछ नई चुनौतियों और जटिलताओं का समावेश होना था। भारतीय राजनय को न केवल इसे समझना था, बल्कि उन काउंटर फोर्सेज का निर्माण भी करना था जो भारत के सामरिक हितों के अनुकूल करतीं। लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं था, क्योंकि नेतृत्व अनुपयुक्त था। यही कारण है कि इस दौर में भारत रियल पॉलिटिक की ओर भी नहीं ले जा सकता था।  पिछले दिनों पाकिस्तान के एक समाचारपत्र में एक रिपोर्ट रिपोर्ट छपी थी जिसमें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के उन शब्दों को व्यक्त किया गया था जिनके जरिए उन्होंने यह कहने की हिम्मत जुटा डाली थी कि 'कश्मीर एक फ्लैशप्वाइंट है और यह किसी भी वक्त दो परमाणु शक्तियों के बीच चौथी जंग छेड़ सकता है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के इस बयान में भारतीय विदेश नीति की पहली और प्रमुख चुनौती निहित है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के इस बयान को प्रमुख चुनौती के रूप में स्वीकारने की वजहें हैं। पहली वजह तो यह है कि भारत की सरकार किसी खास घरेलू दबाव या फिर विशेष बाहरी दबाव की वजह से पाकिस्तान के प्रति हमेशा सॉफ्ट कार्नर रखती है, यह जानते हुए कि पाकिस्तान के चरमपंथी भारत को 'सनातन शत्रु' मानते हैं और पाकिस्तानी सेना उसे दुश्मन 'नम्बर वन'। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान के किसी भी राजनीतिक दल की सरकार भारत के हितों के अनुकूल काम नहीं कर सकती, लेकिन इसके बावजूद भूगोल न बदले जाने जैसे जुमलों के आधार पर पाकिस्तान से हाथ मिलाने के लिए बेताबी प्रकट की जाती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह शायद यह भूल चुके हैं कि उन्होंने ही यह कहा था कि पाकिस्तान जब तक मुंबई हमले के गुनहगारों को सजा नहीं देगा तब तक उससे कोई बातचीत नहीं होगी। पाकिस्तान ने इन्हें कोई सजा तो नहीं दी, लेकिन इसके विपरीत कई बार सीज फायर का उल्लंघन किया गया, भारतीय सैनिकों को मार कर उनके सिर काटने जैसा जघन्य कृत्य किया... क्या ये पाकिस्तान की तरफ से भारत को दिए गये मित्रता के तोहफे थे जो मनमोहन सिंह न्यूयॉर्क में नवाज शरीफ से बात करने के लिए बेहद बेताब हुए थे? पाकिस्तान एक साथ तीन मोर्चों पर काम कर रहा है? एक- कश्मीर में, बंगलादेश के जरिए पूर्वोत्तर में और नेपाल के जरिए बिहार व उत्तर प्रदेश में आतंकी गतिविधियों को ऑपरेट करने का कार्य। द्वितीय- वह चीन और श्रीलंका के साथ एक ऐसा गठबंधन तैयार कर रहा है जो भारत को घेरने में निर्णायक भूमिका निभाए और तृतीय- वैश्विक शक्तियों के सामने काश्मीर तथा भारत की परमाणु कार्यक्रम का रोना जारी रखना। महत्वपूर्ण बात यह है कि वह इन सभी मोर्चों पर सफल है और भारत पूरी तरह से विफल।

पिछले महीने श्रीलंका में आयोजित राष्ट्रमंडल देशों के शासनाध्यक्षों के शिखर सम्मेलन (चोगम) में शामिल न होकर खुद को तमिल समर्थक बताने और अब तमिल बहुल जाफना के दौरे की तैयारी में जुटे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का श्रीलंका में विरोध शुरू हो गया है। भारतीय प्रधानमंत्री के दौरे की भनक लगते ही यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के वरिष्ठ नेता जॉन अमरतुंगा ने संसद में कहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री के जाफना दौरे को इजाजत नहीं दी जा सकती क्योंकि पिछले महीने उन्होंने राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भाग नहीं लिया था। अमरतुंगा ने सवाल किया, 'मनमोहन सिंह बिना हमारे राष्ट्रपति के बुलावे के कैसे जाफना के दौरे पर जा सकते हैं। हम आशंकित हैं कि कहीं यह देश के बंटवारे की कोशिश तो नहीं है। यहां पर भारत सरकार ने विवेकशून्य होने का परिचय दिया और क्षेत्रीय दलों के दबाव में चोगम बैठक में प्रधानमंत्री को न भेजने का निर्णय लिया। श्रीलंका अपने विवेक से काम नहीं कर रहा है, बल्कि उसके पीछे चीन और पाकिस्तान का दिमाग काम कर रहा है। चीन हम्बनटोटा में अपना सैन्य अड्डा बनाकर भारत की घेराबंदी करने में सफल हो रहा है और पाकिस्तान आईएसआई के जरिए भारतीय तमिलों की शक्ति को काउंटर करने के नाम पर कट्टरपंथ का पोषणा कर रहा है। यानि सम्भव है कि अभी तक जो आतंकवाद काश्मीर और नेपाल की तरफ से रिसकर आ रहा था अब श्रीलंका की तरफ से आ सकता है। हालांकि नेपाल में संविधान सभा के लिए हुए चुनावों में नेपाली कांग्रेस सबसे आगे रही है लेकिन इससे बहुत बेहतर माहौल बनने वाला नहीं है। चीन अपना नेपाली गेम बंद नहीं करेगा, बल्कि माओवादियों के जरिए वह कुछ ऐसा करने की कोशिश अवश्य करेगा जिससे भारतीय हितों को नुकसान पहुंचे। यही स्थिति बंगलादेश की है। यदि कहीं हसीना सत्ता से बाहर हो गईं उस स्थिति में पाकिस्तान की सेना और आईएसआई बंगाली संस्कृति को उर्दू संस्कृति द्वारा आच्छादित करने का प्रयास करेगी यानि चरमपंथ लौट आएगा और बंगलादेश उभरते हुए आतंकवाद के गढ़ से कुछ और आगे बढ़ जाएगा तथा इसके साथ ही वहां ग्रेटर बंगलादेश का स्वप्न प्रौढ़ होगा।


बहरहाल विदेश नीति के समक्ष आने वाली भावी चुनौतियां से निपटना भारत और भावी संघीय सरकार के लिए आसान तो नहीं ही होगा।

देशबन्धु

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य