शनिवार, 7 दिसंबर 2013

सियासी संकट की चपेट में बंगलादेश

1971 में बंगलादेश  के अस्तित्व में आ जाने के बाद यह तो स्पष्ट हो गया था कि 1947 में भारत का धार्मिक आधार पर किया गया विभाजन पूरी तरह से गलत था, लेकिन अभी यह तय होना शेष था कि भाषायी संस्कृति की बुनियाद पर खड़ा हो रहा यह राष्ट्र किस तरह से समृध्द और सम्पन्न होगा। लाखों निर्दोषों की हत्याओं और सामूहिक बलात्कार की अनगिनत घटनाओं के बाद गहरे जख्म लेकर बंगलादेश का जन्म हुआ था। लेकिन ऐसा लगता है कि बंगलादेश की राजनीतिक और कट्टरपंथी जमातों ने इन विद्रूपताओं को न ही गौर से देखा और न ही कुछ सीखा। सम्भवत: इसी का परिणाम है कि बंगलादेश के राजनीतिक दल ही आज उसकी शांति और संस्कृति, दोनों को ही तहस-नहस कर रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि इस पर विराम कितनी दूर जाकर लग पाएगा अथवा लग पाएगा भी या नहीं ? एक महत्वपूर्ण बात तो यह भी है कि भारत को भी उदार, शांत एवं प्रगतिशील बंगलादेश की जरूरत है, इसलिए यह देखना होगा कि भारत का राजनय इन स्थितियों को किस नजर से देखता और एक बेहतर बंगलादेश बनाने में किस तरह का योगदान दे सकता है?
सामान्य तौर पर तो बंगलादेश पूरे वर्ष भर हड़ताल व हिंसा के दौर से गुजरा जिसके कारण बंगलादेश की व्यवस्था व नागरिकों का जीवन पंगु हो गया। दो राजनीतिक गुटों के बीच हुई हिंसक घटनाओं में सैकड़ों लोग मारे गए और करोड़ों की क्षति पहुंची। इस बीच कई ऐसे अदालती निर्णय भी आए जिससे माहौल और उग्र हुआ। लेकिन वर्तमान समय में राजनीतिक गतिरोध चुनाव आयोग की उस घोषणा के बाद उत्पन्न हुआ है जिसमें 5 जनवरी, 2014 को बंगलादेश की जातीय संसद के लिए चुनाव कराने की घोषणा की गई है। मुख्य विपक्षी पार्टी बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की मांग है कि जब तक राजनीतिक दलों के बीच आम राय नहीं बन जाती 5 जनवरी को होने वाला चुनाव स्थगित कर दिया जाना चाहिए। इसी मांग के समर्थन में बीएनपी के नेतृत्व में 18 पार्टियों के गठबंधन ने दो दिन के बंद का आह्वान किया था जिसमें जमकर हिंसा हुई और कई मौतें भी हुईं। लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त काजी रकीबुद्दीन अहमद ने चुनाव की तिथि की घोषणा करते समय ही यह स्पष्ट कर दिया था कि संवैधानिक मजबूरी के चलते 24 जनवरी, 2014 से पूर्व चुनाव कराना आवश्यक है। दरअसल आवामी लीग और बीएनपी के बीच झगड़ा इस बात को लेकर है कि चुनाव किसकी देखरेख में कराए जाएं और जमात-ए-इस्लामी जैसी पार्टियों द्वारा विरोध करने का कारण दूसरा है। प्रधानमंत्री शेख हसीना सर्वदलीय सरकार बनाकर चुनाव कराने का फैसला कर चुकी हैं जबकि बीएनपी के नेतृत्व वाले 18 पार्टियों के गठबंधन की मांग है कि चुनावों के लिए एक  'गैर-दलीय' सरकार बनाई जाए और एक 'स्वीकार्य व्यक्ति' चुनाव पर नजर रखे। इसका मतलब यह होगा कि शेख हसीना अपने पद से त्यागपत्र दे दें जबकि शेख हसीना इस मांग को 'असंवैधानिक' मानती हैं। (महत्वपूर्ण बात यह है कि बंगलादेश का सुप्रीम कोर्ट भी इसे संविधान की लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ बता चुका है) इसलिए उसे खारिज भी कर चुकी हैं साथ ही विपक्ष से चुनावी सर्वदलीय कैबिनेट में शामिल होने के लिए कहा है।

दरअसल बंगलादेश में 1991 में जनरल इरशाद को सत्ता से बाहर किए जाने के बाद इस बात पर विवाद छिड़ गया कि चुनाव किस तरह कराए जाएं। एक समझौते के तहत बंगलादेश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाया गया और आम चुनाव कराए गए। लेकिन यह सांविधानिक प्रावधान नहीं बना। इसलिए अवामी लीग ने मांग उठाई कि इसे एक सांविधानिक प्रावधान बना दिया जाना चाहिए ताकि देश में चुनाव हमेशा निष्पक्ष अंतरिम सरकार के नेतृत्व में ही हो। फलत: 6 मार्च, 1996 को 13वां संविधान संशोधन कर 'नॉन-पार्टी केयरटेकर गवर्नमेंट'(एनपीसीटीजी) को संवैधानिक फ्रेमवर्क प्रदान किया गया जिसमें एक प्रमुख सलाहकार और 10 से अनधिक सलाहकारों का प्रावधान था। यह सामूहिक रूप से राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी थी। इसी प्रावधान के तहत 1998 और 2001 के आम चुनाव सम्पन्न हुए। लेकिन बंगलादेश के सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई, 2011 को निर्णय दिया कि देश में गैर दलीय आंतरिक सरकार व्यवस्था (नॉन-पार्टी केयरटेकर गवर्नमेंट सिस्टम) के निर्माण के लिए किया गया सांविधानिक प्रावधान अवैध था। कोर्ट का कहना था कि देश में बिना चुनी हुई सरकार नहीं रहनी चाहिए क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के विरुध्द है।  इस आदेश का परिणाम यह हुआ कि अवामी लीग सरकार ने जून 2011 में 15वां संविधान संशोधन कर (विपक्ष की गैर-मौजूदगी में ही) एनपीसीटीजी के प्रावधान को रद्द कर दिया। दरअसल 13वें संविधान संशोधन द्वारा एनपीसीटीजी को लेकर दिक्कत तब पैदा हुई जब वर्ष 2007 में एक संविधानेत्तर ताकत सेना का समर्थन पाकर लगभग 2 वर्षों तक सत्ता पर काबिज रही। जबकि 13वें संविधान संशोधन के अनुसार केयरटेकर सरकार का कार्य नई जातीय संसद के लिए चुनाव कराना और चुनावों पर निगरानी रखना मात्र था। अनुच्छेद 123(3) के तहत जातीय संसद के विघटन के 90 दिनों के अंदर यह चुनाव हो जाने चाहिए और 120 दिन में चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंप देनी चाहिए। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ था। ऐसी स्थिति में सेना समर्थित गैर-दलीय सरकार वास्तव में लोकतंत्र के लिए खतरा है, और इस सम्बंध में शेख हसीना का शंका वाजिब है इसलिए इसके बजाय एक चुनी हुई राष्ट्रीय सरकार का विकल्प कहीं ज्यादा  बेहतर है। लेकिन राजनैतिक नफा-नुकसान को देखते हुए बेगम खालिदा जिया और उनके सहयोगी इसे स्वीकारना नहीं चाहते।

गौर से देखें तो बंगलादेश में इस समय फैली अराजकता और हिंसा के तात्कालिक कारण भले ही वर्तमान सरकार के नीतिगत निर्णयों या कुछ न्यायिक निर्णयों में निहित हों, लेकिन बंगलादेश पिछले लगभग चार दशक से कभी कम तो कभी यादा समस्याओं का शिकार होता ही रहा है। यदि इस कालखण्ड के इतिहास को देखें तो लगभग 15 वर्षों तक सैन्य जनरलों ने बंगलादेश पर शासन किया और फिर शेष समय में दो बेगमों ने जिनमें से एक सैन्य शासक की पत्नी हैं और दूसरी बंगलादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की पुत्री यानि खालिदा जिया और शेख हसीना। वैसे इन दोनों शासनकालों में केवल ऊपरी खोल ही बदला, लेकिन आंतरिक व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। सैन्य शासन जनरल इरशाद के भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने के साथ समाप्त हुआ और बाद में बेगमों को भी इसी कारण से देश से निष्कासित होने तक की नौबत आ गई। मरहूम जनरल जियाउर रहमान की बेगम खालिदा जिया ने अपनी पार्टी की सरकारों के दौरान बंगलादेश को उसी रास्ते पर चलाया जिस पर पाकिस्तान चल रहा था और चाह रहा था। इसी का परिणाम था कि वर्ष 2006-08 के दौरान यह विचार किया गया कि आपातकाल और 'माइनस टू' के बगैर देश को सुधारने का कोई रास्ता ही शेष नहीं है। वास्तव में यदि देश भ्रष्टाचार के गर्त में इस कदर चला जाए कि निकलने की गुंजाइश ही न रह जाए (उल्लेखनीय है कि इस दौर में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक बंगलादेश भ्रष्टाचार के मामले में सबसे ऊपर था) तो शायद यही रास्ता उत्तम हो सकता था। इस भ्रष्टाचार एवं अराजकता ने बंगलादेश के नागरिकों को मूलभूत संसाधनों से वंचित कर दिया। बढ़ती हुई गरीबी और बेरोजगारी ने कट्टरपंथ और आतंकवाद के लिए उर्वर भूमि तैयार कर दी जिसे बेगम खालिदा जिया जैसी नेता ने कट्टरपंथियों को संरक्षण देकर पोषित किया। खास बात यह है कि जैसे-जैसे यह देश मानव विकास पर पिछड़ता गया, वैसे-वैसे कट्टरता और आतंकवाद के करीब आता गया। यही वह दौर था जब 'सोनार बांग्ला' 'आतंकवाद के उभरते हुए गढ़' में रूपांतरित हो गया। सबसे अहम् बात यह है कि आईएसआई वहां बांगला संस्कृति को उर्दू संस्कृति में परिवर्तित करने का षड़यंत्र रच रही है जिसमें बीएनपी सहित कई दलों की महत्वपूर्ण भूमिका भी है। वह इसके जरिए बंगलादेश का तालिबानीकरण कर उसे पूरी तरह से भारत के विरुध्द खड़ा करना चाहती है।


बहरहाल आज की स्थिति यह है कि दोनों प्रमुख दलों के बीच तनातनी है जिससे न केवल राजनीतिक गतिरोध बना हुआ है बल्कि हिंसा और अराजकता का वातावरण भी बना हुआ है। इस दुनिया बंगलादेश के सियासी संकट के रूप में देख रही है। मजहबी पार्टी की बढ़ रही तादाद देश की बुनियाद के लिए खतरा बनती जा  रही है। ये वही पार्टियां हैं जिन्होंने 1971 में पाकिस्तान से अलग होने का इन पार्टियों ने विरोध किया था। फिलहाल तो ये स्थितियां देश को सियासी संकट की ओर ले जा रही हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि देश को अभी कई तरह के दबावों से गुजरना होगा।  




देशबन्धु

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य