रविवार, 8 दिसंबर 2013

एक युगांत

दक्षिण अफ्रीका ने अपना सबसे महान सपूत खो दिया। लेकिन नेलसन मंडेला न केवल अपने देश के लिए बल्कि दुनिया भर के लिए अन्याय-विरोध के असाधारण प्रतीक थे, और इस रूप में उनकी प्रेरक स्मृति हमेशा बनी रहेगी। अत्यंत सम्मानित विश्व-नेताओं में और भी कईनाम लिए जा सकते हैं, पर उन सभी को इतिहास-निर्माता या युग प्रवर्तक नहीं कहा जा सकता। मंडेला का अनूठापन यह था कि वे एक बड़े मुक्ति-नायक थे और शायद महात्मा गांधी के बाद सत्याग्रही शक्ति के सबसे बड़े स्तंभ। बीसवीं सदी के महान जननायकों में से एक। लिहाजा, उनके निधन से दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ बाकी दुनिया ने भी बहुत कुछ खोया है। उनके  जाने से पैदा हुई रिक्तता तब और चुभने लगती है जब हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि आज की दुनिया किस तरह के राजनेताओं से संचालित हो रही है। मंडेला का नायकत्व कुछ दिनों की उथल-पुथल से नहीं बना, यह रंगभेद के खिलाफ उनके लंबे संघर्ष की उपज था। उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चला। सभाओं और दौरों पर रोक सहित कई पाबंदियां झेलनी पड़ीं। उन्हें सत्ताईस साल जेल में बिताने पड़े। पर उनके जीवट और अथक संघर्ष ने आखिरकार रंगभेदी शासन को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

मंडेला 1994 में राष्ट्रपति चुने गए और दक्षिण अफ्रीका ने नस्लवाद से मुक्ति पाई। पर जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा, इसे वे केवल अपनी नहीं, सामूहिक प्रयासों की कामयाबी मानते थे। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका में गोरों की रंगभेदी हुकूमत के खिलाफ चला संघर्ष तर्कसंगत परिणति तक पहुंचा तो इसके पीछे मंडेला की अटूट हिम्मत के साथ-साथ अश्वेत समाज को एकजुट करने और जोड़े रखने की उनकी क्षमता भी थी। रंगभेदी आंदोलन का मंच बनी एएनसी यानी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की स्थापना 1912 में ही हो गई थी। मंडेला इसके साथ तीस साल बाद जुड़े। पर जैसे भारत में कांग्रेस गांधीजी का हाथ थामने के बाद ही जन-जन तक पहुंच सकी थी, वैसे ही एएनसी भी जनांदोलन की वाहक मंडेला के जुड़ने के बाद ही बन पाई। दशकों चले जनांदोलन में एक दौर ऐसा भी था जब प्रतिबंधों और निषेधाज्ञाओं की काट में एएनसी ने उग्र तरीके अपनाए और मंडेला को ही इसकी कमान सौंपी गई। पर उस दौर में भी यह खयाल रखा गया कि खून-खराबा न हो। मंडेला और उनके साथियों के खिलाफ चली न्यायिक कार्यवाही के रिकार्ड से भी इसकी पुष्टि होती है। अरसे तक तमाम दमन झेलने के बाद भी मंडेला में अपने विरोधियों के प्रति कड़वाहट नहीं थी, जिसका सबसे उल्लेखनीय प्रमाण वह सच्चाई और सामंजस्य आयोगथा, जो उनके राष्ट्रपति बनने के बाद गठित किया गया।


मंडेला की अगुआई में एएनसी के रंगभेद विरोधी आंदोलन को दुनिया भर से अपार समर्थन मिला और भारत सहित अनेक देशों ने दक्षिण अफ्रीका से राजनयिक संबंध मुल्तवी रखा। एक समय ब्रिटेन, अमेरिका की निगाह में मंडेला आतंकवादी थे। पर खुद अमेरिका और यूरोप के नागरिक समाजों में एएनसी और मंडेला के प्रति सहानुभूति और उनकी रिहाई की मांग बढ़ती गई और पश्चिमी सरकारों को अपना नजरिया बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। राष्ट्रपति चुने जाने से एक साल पहले मंडेला शांति के नोबेल से विभूषित किए गए। इसके अलावा उन्हें मिले अंतरराष्ट्रीय सम्मानों की लंबी फेहरिस्त है। दुनिया की अनेक भाषाओं में उनकी जीवनियां लिखी गर्इं, उन पर बहुत-सी किताबें आर्इं। बहुत सारे देशों में सड़क, पार्क, संस्थान आदि के नामकरण मंडेला के नाम पर किए गए। दुनिया भर में लगाव और सम्मान की ऐसी मिसालें गिनी-चुनी ही मिलेंगी। एएनसी के स्वतंत्रता-घोषणापत्र में मंडेला ने लिखा, कोई भी सरकार राज करने के अधिकार का तब तक दावा नहीं कर सकती, जब तक वह सभी लोगों की इच्छा पर आधारित न हो। उनके इस संदेश को याद रखा जाना चाहिए।

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